बद्री नारायण। विश्व के किसी भी जनतंत्र की परिपक्वता का एक मानदंड उसकी राजनीति में होने वाली बहस भी है। राजनीतिक बहसें चुनावी समय में तेज एवं मुखर हो जाती हैं। अभी मतदान के दो चरण हुए हैं। तीसरे चरण का मतदान आज है। चुनाव प्रचार आगे बढ़ने के साथ राजनीतिक विषयों पर बहस और तेज होगी। राजनीतिक बहसों में जनतंत्र की एक बानगी दिखती है। जनतंत्र में राजनीतिक बहसें दो तरह की होती हैं-एक तो प्रगतिकामी और दूसरी, पारंपरिक अस्मिताओं की गोलबंदी बढ़ाने वाली।

जब संसदीय चुनावों का प्रचार प्रारंभ हुआ तो विकास, भविष्य के भारत की संकल्पना, एक भारत-श्रेष्ठ भारत तथा समाज कल्याण की नीतियों को भाजपा ने अपने राजनीतिक विमर्श का विषय बनाया। पार्टी का संकल्प पत्र भी इन्हीं बिंदुओं को लेकर गढ़ा गया। पार्टी ने अपने चुनाव अभियान में भविष्य की दृष्टि से बहस सृजित करने की कोशिश की। उसने पारंपरिक विभाजनकारी जातीय अस्मिताओं को राजनीतिक बहसों में आने से रोकने की भी कोशिश की, लेकिन इसी बीच कांग्रेस और उसके सहयोगी दल अपने चुनाव प्रचार में आक्रामक ढंग से जातीय गोलबंदी कायम करने में जुट गए।

इसके लिए एक तो जातीय जनगणना का लोक-लुभावनवादी नारा उछाला गया। इसके साथ ही संविधान एवं आरक्षण पर खतरे को प्रचारित कर एक भय का भाव सृजित किया जाने लगा। इसके जरिये यह माहौल बनाया जाने लगा कि यदि भाजपा इस बार जीत गई तो फिर आगे कभी चुनाव नहीं होंगे, देश में अधिनायकवाद आ जाएगा, संविधान बदल दिया जाएगा और आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा। इस तरह भाजपा की ओर से छेड़ी गई बहस को आशंका, भय, चिंता की जंजीरों से बांध दिया गया।

भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत अपने अन्य नेताओं की ओर से बार-बार यह स्पष्ट किया कि संविधान एवं आरक्षण को न छुएंगे और न किसी को छूने देंगे। कांग्रेस को जवाब देने के क्रम में भाजपा ने संपत्ति के पुनर्वितरण का मुद्दा उछालकर उसे निशाने पर लेना भी शुरू कर दिया। संविधान, लोकतंत्र और आरक्षण को खत्म करने को लेकर जो आरोप-प्रत्यारोप शुरू हुए, उनसे राजनीतिक बहस लौटकर जातीय राजनीति की बेड़ियों में उलझ गई, क्योंकि एक असुरक्षा बोध रचकर उसे राजनीतिक गोलबंदी के तत्व के रूप में विकसित कर दिया गया। यदि कांग्रेस के चुनावी विमर्श का मूल्यांकन करें तो स्पष्ट होगा कि वह एक अनजाना एवं आधारहीन भय रचकर ‘भयभीत सामाजिक मानस’ रचना चाहती है और फिर उस मानस को अपने पक्ष में गोलबंद करना चाहती है।

यह भय आज मध्य वर्ग, दलित एवं अल्पसंख्यक समुदाय में फैलाया जा रहा है। यह भय ही चिंता में बदलता है और असुरक्षा बोध पर आधारित गोलबंदी का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। इस प्रक्रिया में अपने विरोधी को जनतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा एवं अपने को उसका रक्षक बता समर्थन सृजित किया जाता है। हालांकि असुरक्षा बोध पर आधारित यह राजनीति भारतीय जनता के लिए नई नहीं है। अनेक राजनीतिक दल समय-समय पर इसका इस्तेमाल करते रहे हैं। कांग्रेस पर सेक्युलरवाद के आवरण के तहत असुरक्षा बोध पर आधारित अल्पसंख्यक मतों की गोलबंदी का आरोप लगता ही रहा है।

भय एवं असुरक्षा बोध आधारित गोलबंदी फासीवादी राजनीति की महत्वपूर्ण रणनीति मानी जाती है। यह समझना मुश्किल है कि किस परिस्थिति के कारण कांग्रेस भयादोहन की राजनीति में फंसती जा रही है। संविधान पर खतरा प्रचारित करने की राजनीति मध्य वर्ग एवं दलित-पिछड़ों में यह भय पैदा करने के लिए की जा रही है कि इससे आपके अनेक अधिकार छीन लिए जाएंगे। दलित एवं पिछड़े सामाजिक समूहों में एक भय मिश्रित दीर्घकालिक चिंता भी फैलाई जा रही है कि इससे आपका आरक्षण छीन लिया जाएगा।

यह वही पद्धति है, जो अल्पसंख्यकों में अस्मितापरक भय रचकर उनमें चुनावी गोलबंदी के लिए इस्तेमाल की जाती थी। अब यही हथियार दलित एवं पिछड़े वर्गों की गोलबंदी के लिए इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत समेत आरएसएस के कई नेताओं ने भी आरक्षण को लेकर अपने पक्ष को बार-बार स्पष्ट किया है, लेकिन संघ और भाजपा को आरक्षण विरोधी साबित करने की कोशिश जारी है। मोहन भागवत ने कई बार कहा है कि भारतीय समाज में जब तक भेदभाव है, आरक्षण चलना चाहिए। फिर भी कांग्रेस ने संघ को अमूर्त भय सृजित करने के प्रतीक के रूप में विकसित कर लिया है।

वैसे तो अल्पसंख्यकों को अपने पक्ष में गोलबंद करने की राजनीति कांग्रेसी रणनीति का लंबे समय से हिस्सा रही है, मगर अब वह अपनी इस राजनीति का विस्तार दलित एवं पिछड़ों के बीच भी करने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस और कुछ अन्य दलों के विमर्शकारों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक अमूर्त अवधारणा में तब्दील कर दिया है। वे हर उस व्यक्ति, नीति, संस्था, संस्था प्रमुख, लेखक, विचारक, कुलपति, न्यायाधीश को आसानी से ‘संघी’ कह खारिज कर देते हैं, जिनके विचारों से सहमत नहीं होते।

यह यही बताता है कि अपने देश में राजनीतिक विमर्श कैसे गढ़े जाते हैं और कैसे मुद्दों में घालमेल किया जाता है। भारतीय जनतंत्र एक परिपक्व स्तर पर पहुंच चुका है। एक अग्रगामी देश गढ़ने की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि हमारी राजनीतिक बहसें भी परिपक्व एवं भविष्यगामी हों। अभी संसदीय चुनाव के चार चरण बाकी हैं। देखना यह है कि आने वाले दिनों में राजनीतिक बहस क्या रूप-स्वरूप लेती है? यह ध्यान रहे कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए स्वस्थ राजनीतिक बहस आवश्यक होती हैं।

(लेखक गोविंद बल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, प्रयागराज के निदेशक हैं)