Delhi Landfill Sites: दिल्ली से क्यों खत्म नहीं हो रहे 'कूड़े के पहाड़', इसमें कहां आ रही बाधा और कौन है जिम्मेदार?
सारी मेहनत ढेर होती नजर आती है। इन्हें खत्म करने का कोई ठोस स्थायी उपाय दिसंबर 2024 तक के लक्ष्य के बावजूद भी नजर नहीं आता। दिल्ली की लैंडफिल साइटों पर बने कूड़े के पहाड़ों को खत्म करने में इच्छाशक्ति में क्यों कमी है? इसमें कहां है बाधा? और कौन है इसके लिए जिम्मेदार? साथ ही दिल्ली व एनसीआर की लैंडफिल साइटों पर कूड़ा आखिर पहुंच ही क्यों रहा है?
जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। दिल्ली के प्रवेश द्वारों पर कूड़े के पहाड़ भद्दे लगते हैं। शहर के प्रति देश की राजधानी के प्रति एक नकारात्मक अवधारणा को जन्म देते हैं। स्वच्छता जिस शहर की पहचान होनी चाहिए वहां कूड़े का पहाड़ द्वारों पर दिखते हैं।
कूड़े का पहाड़ जिम्मेदार निकाय और राजनेताओं की अव्यवस्था का ही दुष्परिणाम है। इसे हटाने, कम करने की कवायदें खूब चलीं लेकिन हाल वही रहा, दो फीट कम किया और जितना घटाया उतना ही वहां लाकर डाल दिया गया।
क्यों नहीं हो रहा कूड़े का निस्तारण?
सारी मेहनत ढेर होती नजर आती है। इन्हें खत्म करने का कोई ठोस स्थायी उपाय दिसंबर 2024 तक के लक्ष्य के बावजूद भी नजर नहीं आता। दिल्ली की लैंडफिल साइटों पर बने कूड़े के पहाड़ों को खत्म करने में इच्छाशक्ति में क्यों कमी है?
इसमें कहां है बाधा? और कौन है इसके लिए जिम्मेदार? साथ ही दिल्ली व एनसीआर की लैंडफिल साइटों पर कूड़ा आखिर पहुंच ही क्यों रहा है, शहरों से निकलने वाले पूरे कूड़े का उचित निस्तारण क्यों नहीं किया जा पा रहा है? यह कैसे संभव बनाया जाए कि लैंडफिल साइटों तक कूड़ा पहुंचना ही बंद हो जाए। इसी की पड़ताल करना हमारा आज का मुद्दा है :
-क्या आप मानते हैं कि जिस गति से कार्य चल रहा है, इस वर्ष दिसंबर माह तक दिल्ली के कूड़े के पहाड़ खत्म हो जाएंगे?
हां : 8
नहीं : 92
-क्या एनसीआर में कूड़े का शत प्रतिशत निस्तारण न हो पाने के लिए अधिकारियों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए?
हां : 98
नहीं : 2
महापौर दें आदेश तो हो सकता है स्थायी समिति का गठन
दिल्ली नगर निगम एक्ट में सभी की शक्तियों का उल्लेख अनुच्छेद 44 किया हुआ है। इसमें महापौर, स्थायी समिति, निगमायुक्त का उल्लेख है। सभी क्या कार्य कर सकते हैं कैसे कर सकते हैं इसका विवरण निगम एक्ट के साथ ही संचालन के नियमों में है।
जब 2023 में दिल्ली नगर निगम का गठन हुआ तो महापौर व उप महापौर के चुनाव के कुछ समय बाद ही वार्ड कमेटियों का चुनाव होना चाहिए था। दिल्ली नगर निगम ने स्थायी समिति के लिए सदन से निर्वाचित होने वाले सदस्यों का निर्वाचन पूरा कर लिया है।
अब अगर, वार्ड कमेटियों का चुनाव हो जाए तो प्रत्येक वार्ड कमेटी से एक-एक सदस्य का निर्वाचन हो जाएगा। सदन से छह और वार्ड कमेटियों से 12 सदस्य चुने गए लोग अपने में से किसी एक सदस्य को डिप्टी चेयरमैन तो किसी एक सदस्य को चेयरमैन निर्वाचित कर सकते हैं। इसकी प्रक्रिया भी सरल है।
जब महापौर और उप महापौर के साथ ही सदन से स्थायी समिति के लिए चुने जाने वाले छह सदस्यों का निर्वाचन हो गया है तो उसके बाद नियम है कि निगमायुक्त वार्ड कमेटियों के चुनाव के लिए तारीख तय करें और महापौर इन वार्ड कमेटियों में से किसी एक सदस्य को पीठासीन अधिकारी नियुक्त करें।
नहीं हुए वार्ड कमेटियों के चुनाव
इसके बाद यह चुनाव संपन्न हो सकते हैं। पर, इस पर कार्य नहीं किया गया तो वार्ड कमेटियों के चुनाव नहीं हुए। देश की किसी भी अदालत ने दिल्ली की वार्ड कमेटियों से लेकर स्थायी समिति के गठन पर रोक नहीं लगाई है।
सुप्रीम कोर्ट में मनोनीत पार्षदों की नियुक्ति का मामला चल रहा है जिसमें अदालत ने इस मामले का निर्णय सुरक्षित रख रखा है। वहां भी कोर्ट ने स्थायी समिति के गठन पर रोक नहीं लगाई है। बावजूद इसके लिए दिल्ली में स्थायी समिति का गठन नहीं हो सका।
अब रही बात कि स्थायी समिति का गठन नहीं होगा तो इससे क्या क्या कार्य प्रभावित होंगे। इससे बहुत से कार्य सीधे तौर पर प्रभावित होते हैं। या आसान भाषा में कहें कि ऐसा कोई भी कार्य जिसकी राशि पांच करोड़ या उससे अधिक हैं उसकी निविदा प्रक्रिया करने के लिए भी स्थायी समिति की जरूरत तो होगी ही साथ ही निविदा प्रक्रिया पूरी होने के बाद इस कार्य के लिए निविदा में भाग लेने वाली आई एजेंसी को कार्य सौंपने की मंजूरी भी स्थायी समिति से चाहिए होगी।
स्थायी समिति की मंजूरी जरूरी
पांच करोड़ या उससे कम राशि के कार्य निगमायुक्त की मंजूरी से हो सकते हैं, लेकिन इससे ज्यादा राशि के कार्य कराने के लिए स्थायी समिति की मंजूरी की आवश्यकता होगी। दिल्ली में कूड़े के पहाड़ों को खत्म करना है, इसके लिए बड़े-बड़े टेंडर होते हैं। इसमें खर्चा 40-50 करोड़ होगा तो बिना स्थायी समिति के यह कार्य नहीं हो सकेगा। इसके अलावा दिल्ली में जो महत्वपूर्ण कार्य स्थायी समिति की मंजूरी के बिना नहीं हो सकता है। वह है लेआउट प्लान पास करने की।
दिल्ली में विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों के लेआउट प्लान आते हैं। इनको बिना स्थायी समिति की मंजूरी के पास नहीं किया जा सकता। मेरी जानकारी में आया है कि 50 के करीब लेआउट प्लान स्थायी समिति की मंजूरी के लिए लंबित हैं। इसी प्रकार कूड़े उठाने की बहुत सारी निविदाएं भी आने वाले समय में होनी है उनकी निविदा की समय-सीमा भी पूरी होने जा रही है।
अगर, स्थायी समिति का गठन नहीं हुआ तो दिल्ली का विकास इससे प्रभावित होगा। दिल्ली में कूड़े के पहाड़ों को खत्म करने के लिए जो निविदा है अगर, उसकी समय सीमा मई 2024 में खत्म हो रही है और टेंडर की शर्तों में निविदा की समय-सीमा आगे बढ़ाने का नियम नहीं है तो यह काम बंद हो जाएगा।
इस मामले में निगम में चुनी हुई सरकार को चाहिए कि वह इस मामले में आगे आए और बिना देरी के स्थायी समिति के गठन की प्रक्रिया को शुरू करें। महापौर अगर, वार्ड कमेटी के चुनाव के निर्देश निगम सचिव को देगी तो निगम सचिव निगमायुक्त से तारीख लेकर इसके चुनाव की अधिसूचना जारी कर देंगे।
इससे दिल्ली नगर निगम की बहुत सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। यह जानकारी नगर निगम के पूर्व मुख्य विधि अधिकारी के अनिल कुमार गुप्ता से जागरण संवाददाता निहाल सिंह से बातचीत पर आधारित है।
घर पर होगा निस्तारण तो लैंडफिल पर घटेंगे कूड़े के पहाड़
पिछले एक दशक में शहरीकरण तेजी से हुआ है। खासतौर पर गुरुग्राम की बात करें तो एक छोटे शहर से मेट्रोपालिटन सिटी में बदल चुका है। आइटी कंपनियों और उद्योगों का हब होने के कारण गुरुग्राम में 30 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। अब आबादी ज्यादा है तो स्वाभाविक है कि घरों से कूड़ा भी ज्यादा निकल रहा है।
अकेले गुरुग्राम से ही 1200 टन कूड़ा बंधवाड़ी लैंडफिल पर पहुंच रहा है। कूड़े की मात्रा ज्यादा है, यह बड़ी बात नहीं है। विशेष यह है कि मिश्रित कूड़ा लैंडफिल पर पहुंच रहा है। इस कारण वहां पर कूड़े का पहाड़ बन गया है और पिछले दस साल में यहां पर कोई वेस्ट टू एनर्जी प्लांट भी नहीं लगा है।
एजेंसी को अलग-अलग उठाना चाहिए सूखा और गीला कूड़ा
शहर में ही कूड़े का निस्तारण हो, इसके लिए नगर निगम को सख्त और लोगों को जागरूक होना होगा। शहर में लगभग साढ़े तीन लाख से ज्यादा घरों से कूड़ा नगर निगम उठवाता है, लेकिन कूड़ा सेग्रीगेशन यानी गीले और सूखे कूड़े को अलग-अलग करने की प्रक्रिया नहीं अपनाई जा रही है।
इसका नुकसान यह है कि लैंडफिल पर इसके निपटाने में परेशानी होती है। नीले और हरे रंग के डस्टबिन प्रत्येक घर में रखने होंगे। सूखा कूड़ा नीले डस्टबिन में और हरे रंग के डस्टबिन में किचन वेस्ट डालना चाहिए ताकि किचन वेस्ट से कंपोस्ट तैयार की जा सके। जो लोग कूड़ा अलग-अलग नहीं रखते, उन पर निगम की ओर से जुर्माना भी लगना चाहिए।
दूसरी बात यह है कि डोर टू डोर कूड़ा कलेक्शन करने वाली एजेंसी को भी घरों से सूखा और गीला कूड़ा अलग-अलग उठाना चाहिए। कूड़ा उठाने वाली गाड़ी में दो भाग होने चाहिए, जिससे कूड़ा मिक्स न हो। आमतौर पर यह देखने में आता है कि कूड़ा उठाने वाला वेंडर या ठेकेदार इस काम में लापरवाही बरतता है और गीले-सूखे कूड़े को मिला देता है।
इसके अलावा शहर में ही कूड़े के निपटान के लिए मटीरियल रिकवरी फेसिलिटी सेंटर (एमआरएफ) बने होने चाहिए ताकि जो गीला कूड़ा निकलता है, उसको इन सेंटर में भेजकर कंपोस्ट तैयार करवाई जा सके। आबादी के हिसाब से शहर में एमआरएफ सेंटर बनने चाहिए। ऐसा करने से काफी हद तक कूड़े के पहाड़ की समस्या का समाधान हो सकता है।
नियमों का पालन नहीं करने पर है जुर्माना लगाने का प्रविधान
बल्क वेस्ट जनरेटर यानी 50 किलोग्राम या इससे अधिक कूड़ा जिन संस्थानों, होटल, रेस्त्रां या सोसायटी से निकलता है, ठोस कचरा प्रबंधन नियम के अंतर्गत उनको अपने यहां कंपोस्ट यूनिट स्थापित करनी होती है। लेकिन इस पर अभी नगर निगम को काम करने की जरूरत है। नियमों का पालन नहीं करने पर जुर्माना लगाने का भी प्रविधान है।
शहर के कुछ आरडब्ल्यूए और संस्थाएं बल्क वेस्ट को लेकर काफी अच्छा काम कर रही हैं, जिनसे सभी को सीख लेने की जरूरत है। अगर सभी सोसायटियों में गीले कूड़े से खाद बनने लगेगी तो लैंडफिल पर अपने आप कूड़े का बोझ कम हो जाएगा। सोसायटियों और फाइव स्टार होटलों में खानापूर्ति के लिए कंपोस्टर तो लगे हैं, लेकिन इनको चलाया नहीं जा रहा।
इसका नुकसान यह है कि ऐसे संस्थानों से कूड़ा निजी वेंडर उठाते हैं और रात के समय शहर में कहीं पर भी खाली जगहों और सड़कों के किनारे फेंक देते हैं। इस कारण लैंडफिल ही नहीं बल्कि शहर भी गंदा हो रहा है। शहरों में तो जगह की कमी होती है, गांवों में कंपोस्टिंग आसानी से की जा सकती है। ज्यादातर ग्रामीणों के पास अपनी खेती की भी जमीन है।
गीले कूड़े का उपयोग फसलों के लिए खाद बनाने में किया जा सकता है। शहरी लोगों में भी किचन गार्डनिंग का शौक बढ़ता जा रहा है, सब्जियों के वेस्ट का हरियाली बढ़ाने में उपयोग करना चाहिए।
महिलाओं को लेनी चाहिए जिम्मेदारी
महिलाओं को आगे आकर यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए क्योंकि शहर को स्वच्छ रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।अगर अभी से कूड़ा प्रबंधन नहीं किया गया तो सभी शहरों के लिए स्थिति भयावह हो सकती है। इंदौर शहर ऐसे उपायों के दम पर ही स्वच्छ सर्वेक्षण में लगातार नंबर वन बन रहा है।
गुरुग्राम और मानेसर नगर निगम इंदौर से किसी भी लिहाज से बजट या संसाधनों में पीछे नहीं नहीं है। बस दृढ़ इच्छाशक्ति से बदलाव लाया जा सकता है। यह जानकारी सेवानिवृत मुख्य अभियंता जीएमडीए (गुरुग्राम मेट्रोपालिटन डेवलपमेंट अथारिटी) के प्रदीप कुमार से जागरण संवाददाता संदीप रतन से बातचीत पर आधारित है।
आइए जानते हैं कि दिल्ली में कूड़े के पहाड़ कहां कहां हैं, इनकी अधिकतम ऊंचाई क्या थी, कब से इन्हें खत्म करने के प्रयास शुरू हुए, अब वर्तमान में इनकी ऊंचाई कितनी-कितनी है, तीनों को खत्म करने की समयसीमा क्या है? यहां जानिए कूड़े का गुणा गणित।
अन्य महत्वपूर्ण जानकारियां-
- तीनों लैंडफिर को खत्म करने की समय-सीमा 31 दिसंबर 2024 है।
- एनसीआर में लैंडफिल साइटें कहां-कहां हैं, यहां कितने मीटर ऊंचाई के कूड़े के पहाड़ बने हुए हैं, इन्हें खत्म करने के लिए क्या योजना है।
- शहर में कुल कितना कूड़ा निकलता है, इस कूड़े में से कितने का निस्तारण होता है और कितना लैंडफिल साइटों तक पहुंचता है।
- 11000 मीट्रिक टन कूड़ा प्रतिदिन निकलता है।
- 4400 मीट्रक टन प्रतिदिन सूखा कूड़ा निकलता है।
- 6600 मीट्रिक टन प्रतिदिन गीला कूड़ा निकलता है।
- 8171 मीट्रिक टन कूड़ा बिजली बनाने, बायो गैस और खाद बनाने में निस्तारित हो जाता है।
- 2829 मीट्रिक टन कूड़ा लैंडफिल साइटों पर जाता है।
- घरों से गीला व सूखा कूड़ा अलग-अलग करने की क्या स्थिति है, कितनी एजेंसियां इस कार्य में लगी हुई हैं, कितने प्रतिशत अलग हो पा रहा है।
- दिल्ली में कूड़े के पहाड़ खत्म करने के लिए कितना संसाधन लगाया गया है, इसपर कितना खर्च किया जा रहा है, अब तक कितना खर्च हो चुका है।
- इसके लिए केंद्र सरकार से करीब 1100 करोड़ रुपये का फंड मिला पंचवर्षीय योजना के तहत मिला था। अब तक निगम करीब 300 करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। कूड़े के तीनों पहाड़ों को खत्म करने में।