राज कुमार सिंह। लोकसभा चुनाव अब समापन की ओर हैं, मगर इसे लेकर संतोष से ज्यादा चिंता की लकीरें नजर आ रही हैं। चुनाव आयोग चिंतित है कि मतदाताओं को प्रेरित करने की कवायद के बावजूद मतदान में कमी क्यों? चुनाव से ही सत्ता बनती-बिगड़ती है। इसलिए राजनीतिक दल और नेता चिंतित हैं कि कम मतदान किस पर भारी पड़ेगा। दोनों के लिए ही कम मतदान का ठीकरा मौसम पर फोड़ना सुविधाजनक है। बेशक गर्मी तो है, पर 2014 के लोकसभा चुनाव भी कमोबेश ऐसे ही मौसम में हुए थे, जब संसदीय चुनाव में रिकार्ड 66.44 प्रतिशत मतदान हुआ था।

स्थितियों की मांग है कि सहज सुलभ बहानों के बजाय वास्तविक कारणों की पड़ताल की जाए। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के समय भी आयोग को पता होगा कि मई-जून में गर्मी चरम पर होगी। फिर मतदान सात चरणों तक क्यों खींचा गया? मतदान केंद्रों की दूरी कम क्यों नहीं रखी गई? पेयजल जैसी मूलभूत सुविधा भी सभी केंद्रों पर सुनिश्चित क्यों नहीं हुई? मतदाता सूचियां त्रुटिरहित क्यों नहीं? ग्रामीण मतदाताओं के लिए यह बड़ी समस्या है। मतदान केंद्रों के बाहर पहचान पत्र की जांच के नाम पर सुरक्षाकर्मी परेशान क्यों करते हैं? माना कि मतदान मतदाताओं का अधिकार और कर्तव्य है, पर यह उनकी परीक्षा नहीं। चुनाव परीक्षा है आयोग के प्रबंधन और राजनीतिक दलों की गतिविधियों की, जिसमें मतदाता उनके परीक्षक होते हैं।

राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों की चिंता अपने समर्थकों द्वारा अधिकाधिक मतदान के जरिये अपनी जीत सुनिश्चित करने तक सीमित है। कुल मतदान प्रतिशत में कमी के असर की आशंका से उन पर मानसिक दबाव तो बढ़ता है, लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र के हित में मतदान का प्रतिशत बढ़े, वे ऐसा प्रयास करते नहीं दिखते। अमूमन ज्यादा मतदान को सत्ता विरोधी लहर और कम मतदान को यथास्थिति का संकेत मान लिया जाता है, लेकिन अतीत के परिणाम इस पर एकमत नहीं। कम मतदान के बावजूद सत्ता परिवर्तन हुए तो ज्यादा मतदान के बाद भी यथास्थिति बरकरार रही।

1998 में जब मतदान चार प्रतिशत बढ़ा तो लोकसभा में भाजपा की सीटें बढ़कर 182 हो गईं, लेकिन अगले साल हुए चुनाव में मतदान में एक प्रतिशत कमी के बावजूद वह काफी सीटें बरकरार रखने में सफल रही। 2004 में मतदान 1.7 प्रतिशत कम हुआ। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राजग सरकार विदा हो गई, जबकि ओपिनियन पोल उसकी जीत की भविष्यवाणी कर रहे थे। तब मतदान का राष्ट्रीय औसत तो 58.7 प्रतिशत रहा, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में वह 50 प्रतिशत से नीचे चला गया, जबकि पहली बार देश भर में ईवीएम से चुनाव कराए गए थे।

वर्ष 2014 में सर्वाधिक 66.44 प्रतिशत मतदान हुआ, जो उससे पिछले लोकसभा चुनाव से सात प्रतिशत ज्यादा था। परिणामस्वरूप तीन दशक बाद किसी एक दल के रूप में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला। भाजपा ने बहुमत से भी 10 अधिक 282 सीटें जीतीं। 2019 में मतदान 1.7 प्रतिशत बढ़ा और भाजपा की सीटें भी बढ़कर 303 हो गईं। कम या ज्यादा मतदान प्रतिशत से चुनाव परिणाम पर पड़ने वाले असर के स्पष्ट निष्कर्ष को लेकर भ्रम के बावजूद मतदाताओं में कम या ज्यादा उत्साह के कारण समझने की कोशिश की जा सकती है।

1996 के लोकसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद वाजपेयी के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार मात्र 13 दिन चल पाई, क्योंकि समता पार्टी जैसे अपवादों के अलावा राजनीतिक अस्पृश्यता के चलते अन्य दल समर्थन देने को तैयार नहीं हुए। कांग्रेस के बाहरी समर्थन से एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में बनीं संयुक्त मोर्चा सरकारें कुछ ही महीनों की मेहमान साबित हुईं। संभव है कि उसका मतदाताओं पर प्रभाव पड़ा हो, जो अधिक मतदान प्रतिशत में नजर आया और जिसका लाभ भाजपा को 1998 और 1999 के चुनाव में मिला।

इसी तरह 2014 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार न सिर्फ नीतिगत जड़ता की शिकार नजर आई, बल्कि उसमें कई बड़े घोटाले भी उजागर हुए। इसके बाद हुए चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत और भाजपा की सीटें बढ़ीं, क्योंकि पुलवामा और बालाकोट से उपजा राष्ट्रवाद का तात्कालिक मुद्दा एक बड़ा कारक रहा। बेशक भाजपा के पास विशाल संगठन के साथ ही उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी सहयोग और शक्ति मिलती है, लेकिन इस सच से इन्कार नहीं किया जा सकता कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसकी भारी जीत के सबसे निर्णायक कारक स्वयं नरेन्द्र मोदी रहे।

अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं में वैसा उत्साह नजर नहीं आ रहा तो कारण किसी कारक विशेष की अनुपस्थिति और राजनीतिक व्यवस्था की बिगड़ती छवि में भी खोजने होंगे। तभी हम मतदाता की उदासीनता का मर्म समझ पाएंगे। हमें कुछ सवालों के जवाब तलाशने होंगे। जैसे, वोटवालों से वादों और नोटवालों की चिंता करने वाली राजनीति बड़ी संख्या में नेताओं का खानदानी पेशा क्यों बन रही है? क्या धनबल और बाहुबल ने चुनाव प्रक्रिया को सत्ता का तिकड़मी खेल नहीं बना दिया है? क्या आम आदमी इतने महंगे चुनाव लड़ने की सोच भी सकता है?

प्रत्याशियों के चयन का आधार क्या है? निष्ठा और नीति पर जीत की संभावना क्यों भारी पड़ जाती है? जनता के मुद्दे दलों के चुनावी मुद्दे क्यों नहीं बनते? कांग्रेस ने 55 साल शासन किया, किंतु जाति जनगणना की याद अब आ रही है? 80 करोड़ गरीबों को हर माह पांच किलो राशन मुफ्त देने पर सवाल उठाने वाली कांग्रेस चौथे चरण के बाद खुद 10 किलो राशन मुफ्त देने का वादा कर रही है। बेरोजगारी और महंगाई कम करने का ब्लूप्रिंट पेश करने के बजाय प्रचार अरबपति, आरक्षण और संविधान के इर्दगिर्द क्यों घूम रहा है? भाजपा दस साल के रिपोर्ट कार्ड पर वोट मांगने के बजाय पाकिस्तान, मंगलसूत्र और शहजादे का सहारा क्यों ले रही है? पाकिस्तान चूड़ियां पहने या कंगन, आम भारतीय का जीवन स्तर उससे कैसे बेहतर हो जाएगा? लगता है कि इस बार सत्ता के खिलाड़ी खुद मतदाता का मूड भांपने में भ्रमित हैं या फिर मतदान के बीच मुद्दे बदल कर उसे भरमाने की कोशिश कर रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)