विश्वकर्मा ने बनाया था यह सूर्य मंदिर, पूजा से पूरी होतीं मनोकामनाएं
औरंगाबाद का देव सूर्य मंदिर छठ पूजा के लिए विख्यात है। कहते हैं कि इसका निर्माण खुद भगवान विश्वकर्मा ने किया था। यहां पूजा करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
पटना [अमित]। बिहार के औरंगाबाद में स्थित देव सूर्य मंदिर से हिंदू धर्मावलंबियों की आस्था गहरे जुड़ी है। मान्यता है कि इसका निर्माण त्रेता युग में स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था। मंदिर के शिल्प व स्थापत्य में नागर व द्रविड़ शैली का समन्वय नजर आता है।
देव का सूर्य मंदिर राज्य की धरोहर एवं अनूठी विरासत है। हर साल छठ पर्व के अवसर पर यहां लाखों श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं। कहा जाता है कि जो भक्त सच्चे मन से इस मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
एतिहासिकता व निर्माण को लेकर प्रचलित हैं ये कहानियां
देव के सूर्य मंदिर के निर्माण को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं। इनमेें कौन सही है, इस विवाद में नहीं पड़ते हुए इतना तो कहा ही जा सकता है कि मंदिर अति प्राचीन है। धर्मग्रंथों में इसकी चर्चा है इससे लोगों की आस्था जुड़ी हुई है।
यहां देव माता अदिति ने की थी पूजा
मंदिर को लेकर एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी।
कहते हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया।
कुष्ठ रोग ठीक होने पर राजा ऐल ने बनवाया मंदिर
मान्यता है कि सतयुग में इक्ष्वाकु के पुत्र व अयोध्या के निर्वासित राजा ऐल एक बार देवारण्य (देव इलाके के जंगलों में) में शिकार खेलने गए थे। वे कुष्ठ रोग से पीड़ित थे। शिकार खेलने पहुंचे राजा ने जब यहां के एक पुराने पोखर के जल से प्यास बुझायी और स्नान किया, तो उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया। वे इस चमत्कार पर हैरान थे।
बाद में उन्होंने स्वप्न देखा कि त्रिदेव रूप आदित्य उसी पुराने पोखरे में हैं, जिसके पानी से उनका कुष्ठ रोग ठीक हुआ था। इसके बाद राजा ऐल ने देव में एक सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। उसी पोखर में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व शिव की मूर्तियां मिलीं, जिन्हें राजा ने मंदिर में स्थान देते हुए त्रिदेव स्वरूप आदित्य भगवान को स्थापित कर दिया। इसके बाद वहां भगवान सूर्य की पूजा शुरू हो गयी, जो कालांतर में छठ के रूप में विस्तार पाया।
इस स्थल पर गिरा था सूर्य का टुकड़ा
देव के बारे में एक अन्य लोककथा भी है। एक बार भगवान शिव के भक्त माली व सोमाली सूर्यलोक जा रहे थे। यह बात सूर्य को रास नहीं आयी। उन्होंने दोनों शिवभक्तों को जलाना शुरू कर दिया। अपनी अवस्था खराब होते देख माली व सोमाली ने भगवान शिव से बचाने की अपील की। फिर, शिव ने सूर्य को मार गिराया।
सूर्य तीन टुकड़ों में पृथ्वी पर गिरे। कहते हैं कि जहां-जहां सूर्य के टुकड़े गिरे, उन्हें देवार्क, लोलार्क (काशी के पास) और कोणार्क के नाम से जाना जाता था। यहां तीन सूर्य मेदिर बने। देव का सूर्य मंदिर उन्हीं में से एक है।
देवयानी के नाम पर पड़ा नाम
एक अनुश्रुति यह भी है कि इस जगह का नाम कभी यहां के राजा रहे वृषपर्वा के पुरोहित शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के नाम पर देव पड़ा था।
प्राचीन काल में हुआ निर्माणछठ के दौरान साल में दो बार लगता मेला मंदिर के पुजारी सच्चिदानंद पाठक कहते हैं कि इस मंदिर में सच्चे मन से आने वालों की मनोकामना पूरी होती है। हर साल कार्तिक व चैत्र महीने में होने वाले छठ व्रत के दौरान यहां मेला लगता है। इस दौरान दूर-दूर से श्रद्धालु पूजा करने आते हैं।