Bihar Diwas 2025: अलग पहचान की छटपटाहट और चाहत ने रखी बिहार की नींव, काफी कठिन रहा रास्ता
बिहार के सृजन में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा की सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे संविधान सभा के प्रथम कार्यकारी अध्यक्ष थे और बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाने के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। डॉ. सिन्हा ने हिंदू समाज में सुधार के लिए एक मौन लेकिन प्रभावी आंदोलन का नेतृत्व किया और बिहार को शैक्षिक और सांस्कृतिक पहचान दिलाने के लिए काम किया।

कंचन किशोर, आरा। Bihar Rajya Ki Sthapna: बिहार के सृजन में संविधान सभा के प्रथम कार्यकारी अध्यक्ष रहे डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा का वही स्थान है, जो बंगाल के नवजागरण में राजाराम मोहन राय का। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष प्रो. दीपक प्रकाश वर्द्धन कहते हैं कि बिहार बंगाल का हिस्सा था और 1857 की क्रांति के बाद के दशकों में समाज की रूढ़िवादिता धीरे-धीरे क्षीण होती गई।
सामाजिक समानता, महिलाओं की मुक्ति, महिलाओं की शिक्षा, लोकतंत्र के प्रति प्रेम जैसे विचार हावी होने लगे। विदेश से पढ़ाई कर लौटे डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने जाति और कुप्रथाओं से ग्रसित हिंदू समाज में सुधार के मौन, लेकिन प्रभावी आंदोलन का नेतृत्व किया।
उनके सुधारवादी कार्यक्रम में बिहार को शैक्षिक और सांस्कृतिक पहचान दिलाने की छटपटाहट थी, इसी ने बिहार के सृजन की बुनियाद रखी।
बिहार के छात्र को उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता विश्वविद्यालय जाना होता था
1966 में प्रकाशित शाहाबाद गजेटियर के लेखक राजस्व विभाग के तत्कालीन अधिकारी पीसी राय चौधरी के अनुसार तब बिहार के छात्र उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता विश्वविद्यालय जाते थे। वहीं पर कुछ छात्रों ने अलग बिहार के लिए आंदोलन शुरू किया।
डॉ. सिन्हा अपना परिचय बिहारी के रूप में ही देते थे
इसमें डॉ. सिन्हा की भूमिका महत्वपूर्ण रही। उनके समेत कई अन्य लोगों का लगातार प्रयास रंग लाया। गर्वनर जनरल लार्ड हार्डिंग ने 22 मार्च 1912 को दिल्ली दरबार में अलग बिहार एवं उड़ीसा प्रांत के गठन की घोषणा कर दी। वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर डा. बलराज ठाकुर कहते हैं कि डॉ. सिन्हा अपना परिचय बिहारी के रूप में ही देते थे। वर्ष 1893 में वह इंग्लैंड में पढ़ाई पूरी कर लौट रहे थे।
अंग्रेज वकील ने जब परिचय पूछा तो क्या जवाब दिया?
रास्ते में एक अंग्रेज वकील ने उनसे परिचय पूछा, तब उन्होंने अपना नाम बताते हुए स्वयं को बिहारी बताया। सहयात्री ने अचरज से पूछा- कौन सा बिहार, भारत में ऐसे किसी प्रांत के बारे में तो नहीं सुना है। यही सवाल डॉ. सिन्हा को चुभ गया और उन्होंने पृथक बिहार गढ़ने का निश्चय किया।
पत्रकारिता के माध्यम से जन जागरण किया: बिहार को बंगाल से पृथक करने की मुहिम को तेज करने के लिए उन्होंने ‘द बिहार टाइम्स’ के नाम से अंग्रेजी अखबार निकाला।
इसने तत्कालीन उच्च वर्ग और अंग्रेज अफसरों का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने इंडियन पीपुल्स एवं हिंदुस्तान रिव्यू नामक समाचार पत्रों का भी कई वर्षों तक संपादन किया।
हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से जन जागरण
आचार्य शिवपूजन सहाय के साथ मिलकर हिंदी पत्रकारिता के माध्यम से जन जागरण किया, बिहारी अस्मिता जगाई। इसके पहले मीडिया में बंगाली पत्रकारों की संख्या काफी अधिक थी। बंगाली पत्रकार बिहार के हितों की बात तो करते थे, लेकिन बिहार को अलग राज्य का दर्जा देने के विरुद्ध थे।
पर्यटन स्थल बने मुरार मुरार में आज भी डा. सिन्हा का पुश्तैनी मकान है, जो खंडहर बन चुका है। गांव के नंदलाल पंडित और बख्शी दिनेश सिन्हा कहते हैं कि उनके परिवार से जुड़े लोग गांव में नहीं रहते, लेकिन ग्रामीण डा. सिन्हा के गांव का निवासी होने पर गर्व महसूस करते हैं।
वे चाहते हैं कि डा. राजेन्द्र बाबू का जन्मस्थान जीरादेई की तरह मुरार भी पर्यटन स्थल बने और उनके पैतृक घर को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा मिले।
डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा का सफर
आजादी के पहले कानून मंत्री व पीयू के उप कुलपति रहे डा. सिन्हा का जन्म तत्कालीन शाहाबाद के डुमरांव के मुरार गांव में 10 नवंबर 1871 में हुआ। प्राथमिक शिक्षा गांव में लेने के बाद जिला स्कूल आरा से मैट्रिक की।
26 दिसंबर 1889 को वे बैरिस्टर की शिक्षा के लिए इंग्लैंड चले गए। आजादी से पहले वे बिहार के कानून मंत्री व पटना विश्वविद्यालय में उप कुलपति के पद पर भी रहे।
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