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NDA बार-बार क्यों दिला रहा लालू राज की याद? अभी से ही विधानसभा के लिए सारे दांव-पेंच तैयार, RJD का भी फार्मूला सेट

Bihar Politics लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव की तैयारी भी तेज हो गई है। महागठबंधन नौकरी के सहारे चुनाव को अपने पक्ष में लाने की कोशिश कर रहा है। वहीं एनडीए लगातार लालू राज की याद दिला रहा है। अब सवाल यह बनता है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी सत्ता पक्ष पुराने दिनों की याद क्यों दिला रहा है।

By Arun Ashesh Edited By: Mukul Kumar Published: Thu, 16 May 2024 11:18 AM (IST)Updated: Thu, 16 May 2024 11:18 AM (IST)
बिहार के डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी। फोटो- जागरण

अरुण अशेष, (पटना)।Bihar Politics In Hindi चार जून को जब लोकसभा चुनाव के परिणाम आएंगे तो उसमें अगले वर्ष होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम की भी झलक मिलेगी। अभी प्रचार के समय ही लोगों को अगले चुनाव के लिए सतर्क किया जा रहा है।

राजग के डबल इंजन सरकार के प्रचार में विस चुनाव में गठबंधन के पक्ष में वोट करने की अपील अंतर्निहित है। महागबंधन के प्रचार में भी अगली बार, तेजस्वी (Tejashwi Yadav) सरकार की मांग साफ सुनाई देती है।

विपक्ष नौकरी के मुद्दे पर खेल रहा दांव

महागठबंधन युवाओं को आश्वासन दे रहा है कि केंद्र और राज्य में उनकी सरकार बनती है तो उनके लिए सरकारी नौकरियों का इतना बड़ा दरवाजा खुलेगा, जिसमें सभी बेरोजगार प्रवेश कर जाएंगे। राज्य का चुनाव हमेशा सामाजिक समीकरण यानी सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर लड़ा जाता है।

विभिन्न जाति समूहों को किसी गठबंधन के पक्ष में वोट करने के लिए सहमत कर लेना ही यहां सोशल इंजीनियरिंग है। कभी कांग्रेस की जीत सवर्ण, मुसलमान और वंचितों (अनुसूचित जातियों) की एकमुश्त गोलबंदी के आधार पर होती थी।

वंचितों के वोट कई हिस्से में विभाजित हुए

Bihar News भागलपुर का सांप्रदायिक दंगा और मंडल के प्रादुर्भाव के बाद तत्कालीन जनता दल ने मुसलमानों को उस समीकरण से बाहर कर अपने साथ जोड़ लिया। कांग्रेस के पास वंचित और सवर्ण रह गए। मंडल आंदोलन में तेजी आई और उसके मुकाबले मंदिर आंदोलन शुरू हुआ तो सवर्ण भाजपा से जुड़ गए।

वंचितों के वोट कई हिस्से में विभाजित हुए, पर 1995 के विस चुनाव के साथ एक बड़ी सामाजिक गोलबंदी सामने आई, जिसने उस समय के जनता दल और उसके नेता लालू प्रसाद को अपराजेय बना दिया। यही वह समय था, जब मंडल और मंदिर से इतर लालू (Lalu Yadav) के पक्ष और विपक्ष में गोलबंदी होने लगी।

सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण

इसका परिणाम ठीक 10 वर्ष बाद आया, जब 2005 में लालू बिहार की सत्ता से बाहर हो गए। उनके पास सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण बचा रह गया था। बिहार में इस समय लोस चुनाव की रणनीति और प्रचार-प्रसार पर ध्यान दें तो साफ लगेगा कि यह वर्तमान से अधिक अतीत पर आश्रित है।

लालू महागठबंधन को 1995 के जनाधार के स्तर पर लाना चाह रहे हैं। उधर, राजग की रणनीति का मूल पाठ यह है कि कैसे लालू और उनके गंठजोड़ को 2005 की तरह किनारे कर दिया जाए।

यही कारण है कि राजग के नेता केंद्र में 10 वर्ष और राज्य में 19 वर्ष की सरकार की उपलब्धियों के साथ लालू के शासन का डर दिखा रहे हैं। यही वह डर है, जिसने अगड़े-पिछड़े के भेद को मिटाकर बड़ी आबादी को राजग के पक्ष में गोलबंद कर दिया था। राजग की रणनीति से लालू परिचित हैं।

कई जातियां लालू से छिटक कर राजग के पाले में चली गईं

2005 से लेकर उसके बाद तक कई जातियां लालू से छिटक कर राजग के पाले में चली गईं। इनमें पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के अलावा सवर्ण और वंचित हैं। महागठबंधन ने लोस के 40 में से 20 टिकट उन जातियों के बीच बांट दिए, जिन्हें 2005 और उसके बाद राजग के घटक दलों से जोड़कर देखा जाता था।

कुशवाहा, वैश्य व भूमिहार के अलावा वंचितों में पासवान को राजग के कट्टर समर्थक के रूप में देखा जाता था। हां, 36 प्रतिशत की आबादी वाली अति पिछड़ी जातियों को उनकी संख्या के अनुपात में उम्मीदवारी नहीं दी गई। इनके दो प्रत्याशी बनाए गए। इन्हें अब भी राजग के खाते में माना जाता है।

इसलिए लालू शासन की याद दिला रहा एनडीए

लोस चुनाव परिणाम से यह भी पता चलेगा कि लालू अपनी सोशल इंजीनियरिंग में किस हद तक सफल हुए। अगर उन्हें सफलता मिलती है तो इसी पैटर्न पर टिकट देकर 2025 में फिर से सत्ता में आने का सपना देख सकते हैं। तब वे 1995 के अपने आधार को छूने के बारे में सोच सकते हैं। यही कारण है कि राजग उनके शासन की याद दिला रहा है।

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