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Rahul Gandhi: बिहार में राहुल गांधी ने ऐसा क्या किया? हार कर भी कमबैक कर गई कांग्रेस

बिहार में घुटनों के बल रेंग रही कांग्रेस को 2024 के लोकसभा चुनावों ने एक तरीके से कमबैक करने का मौका दे दिया है। बिहार में कांग्रेस की न सिर्फ सीटें बढ़ी हैं बल्कि प्राप्त मतों में भी वृद्धि हुई है। इस बार कांग्रेस को पिछली बार से दो अधिक सीटें मिली हैं और 1.44 प्रतिशत अधिक प्राप्त मत प्रतिशत भी बढ़ा है।

By Vikash Chandra Pandey Edited By: Mohit Tripathi Published: Wed, 05 Jun 2024 09:57 PM (IST)Updated: Wed, 05 Jun 2024 09:57 PM (IST)
कांग्रेस की सफलता राहुल गांधी व मल्लिकार्जुन खरगे की सधी रणनीति का प्रतिफल। (फाइल फोटो)

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। Lok Sabha Elections Result 2024 । बिहार में घुटनों के बल रेंग रही कांग्रेस को इस चुनाव ने बड़ा संबल दिया है। पिछली बार से उसकी सीटें ही नहीं, प्राप्त मतों में भी वृद्धि हुई है।

सीटें तो उसे परंपरागत ही मिली हैं, लेकिन पूर्णिया में निर्दलीय राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की सफलता से उन कोनों में भी उसके लिए आस जगी है, जहां पिछले चार दशक से वह एक अदद जीत के लिए तरस रही। यह आस इसलिए भी जीवंत हो सकती है, क्योंकि कांग्रेस को मिली सफलता अपने बूते की है।

इस बार कांग्रेस को पिछली बार से दो अधिक सीटें मिली हैं और 1.44 प्रतिशत अधिक वोट। यह राहुल गांधी (Rahul Gandhi) व मल्लिकार्जुन खरगे (Mallikarjun Kharge) की सधी रणनीति का प्रतिफल है। हालांकि, मतों में वृद्धि इतनी अप्रत्याशित भी नहीं कि माना जाए कि उसे आइएनडीआइए (बिहार में महागठबंधन) के घटक दलों के वोट एकमुश्त हस्तांतरित ही हो गए।

दरअसल, सहयोगी दलों का अस्तित्व उसी जन-जमीन पर है, जो कभी कांग्रेस का आधार हुआ करता था। राजद के माय (मुसलमान-यादव) समीकरण के मुसलमान कांग्रेस के परंपरागत मतदाता हैं। वैसे ही वाम दलों की राजनीति को दमदार बनाने वाले गरीब व दलित भी।

इन दोनों वर्गों के साथ सवर्ण समाज ने गुजरे दौर में कांग्रेस को जनाधार की एक पुख्ता जमीन मुहैया कराई थी। बाद में लालू प्रसाद आदि ने उसमें सेंध लगाने की शुरुआत कर दी।

मजबूत विकल्प देख सवर्ण राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की ओर आकृष्ट हो गए और छीना-झपटी में मुसलमानों व दलितों के मत बिखरते रहे। पसमांदा के मुद्दे मुसलमानों को लुभाने के लिए उछाले गए तो महादलित का वर्गीकरण कर वंचित वर्ग को आगे बढ़ाने का उपक्रम हुआ।

कांग्रेस विधायक दल के नेता डॉ. शकील अहमद खान का दावा है कि इस बार इन वर्गों ने अपनी पुरानी प्रतिबद्धता का ख्याल रखा। इसका कारण वे कांग्रेस के पांच न्याय व 25 गारंटियों के साथ संविधान के संरक्षा-सुरक्षा की प्रतिबद्धता बता रहे। कपिलदेव प्रसाद यादव का कहना है कि परंपरागत जनाधार के साथ पिछड़ा व अति पिछड़ा वर्ग को जोड़ने के प्रयास में भी कांग्रेस पीछे नहीं रहने वाली।

भागलपुर दंगे ने कांग्रेस को दिए थे गहरे जख्म

भागलपुर दंगा ने कांग्रेस को बिहार में गहरा जख्म दिया। वह प्रदेश की सत्ता से बाहर तो हुई ही, लोकसभा चुनाव में भी उसकी उपलब्धि दो-तीन सीटों तक सिमटती चली गई। उसी बीच लालू-राबड़ी का राज रहा।

लालू ने तो कांग्रेस को हाफ और वाम दलों को साफ करने तक की बात चलाई थी। समय के फेर में राजनीति ने करवट ली तो कांग्रेस की रणनीति भी बदली। कांग्रेस लालू के साथ क्या हुई कि उनकी शरण में चली गई।

2009 में अकेले लड़ा था चुनाव

2009 में तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अनिल शर्मा ने अकेले दम चुनाव लड़ने का साहस किया, लेकिन सफलता दो सीटों पर सिमट कर रह गई। अलबत्ता मत प्रतिशत में जो उछाल आया, उसे कांग्रेस बाद के चुनावों में प्राप्त नहीं कर पाई।

अनिल शर्मा कांग्रेस छोड़ भाजपा में जा चुके हैं। यह क्षोभ जताते हुए कि राजद से गठबंधन में कांग्रेस लालू-राबड़ी के जंगल-राज व भ्रष्टाचार के आरोपों में हिस्सेदारी से कैसे इनकार कर सकती है।

कांग्रेस के प्रति जन-विश्वास में गिरावट का यही मूल कारण है। इस गिरावट से उसकी चुनावी संभावनाएं प्रभावित हुईं तो संगठन की जड़ें भी कमजोर होती गईं। सत्ता और चुनावी सफलता के लिए संगठन का मजबूत होना जरूरी है।

ऐसा रहा है कांग्रेस का प्रदर्शन

पिछली बार तो किशनगंज ने लाज रख ली, अन्यथा कांग्रेस ही नहीं, महागठबंधन की भी झोली खाली रह जाती। 2019 में कांग्रेस एकमात्र सुपौल में सफल रही थी। जदयू प्रत्याशी को पराजित कर मो. जावेद विजयी हुए थे।

2014 में किशनगंज में मो. असरारूल हक और सुपौल में रंजीत रंजन को सफलता मिली थी। 2009 में भी सासाराम में मीरा कुमार और किशनगंज में मो. असरारूल हक को सफलता मिली थी।

उससे पहले 2004 में मधुबनी में शकील अहमद खान, औरंगाबाद में निखिल कुमार और सासाराम में मीरा कुमार सफल रही थीं।

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