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Bihar Election Result 2024: बिहार की इन सीटों पर जातियों को कोई नहीं हिला पाया, लेकिन इन जगहों पर हो गई सेंधमारी

Bihar Politics राजनीति संभावना ही नहीं समीकरण का भी खेल है। इस समीकरण को साधकर ही बिहार में जातीय आधिपत्य वाले कई किले बुलंद हुए थे। इस बार उनमें से तीन किलों में सेंधमारी हो गई है। परिसीमन के बाद हुए तीन चुनावों तक पिछड़ा वर्ग व सवर्णों के आधिपत्य वाले ऐसे 19 किले थे। उनकी संख्या घटकर 16 रह गई है।

By Vikash Chandra Pandey Edited By: Sanjeev Kumar Published: Thu, 06 Jun 2024 10:51 PM (IST)Updated: Fri, 07 Jun 2024 08:20 AM (IST)
बिहार लोकसभा चुनाव परिणाम 2024 (जागरण फोटो)

विकाश चन्द्र पाण्डेय, पटना। Bihar Political News Today: राजनीति संभावना ही नहीं, समीकरण का भी खेल है। इस समीकरण को साधकर ही बिहार में जातीय आधिपत्य वाले कई किले बुलंद हुए थे। इस बार उनमें से तीन किलों में सेंधमारी हो गई है। परिसीमन के बाद हुए तीन चुनावों तक पिछड़ा वर्ग व सवर्णों के आधिपत्य वाले ऐसे 19 किले थे। उनकी संख्या घटकर 16 रह गई है।

औरंगाबाद और आरा में पिछले चुनाव तक राजपूत समाज को विजयश्री मिली थी। उन दोनों क्षेत्रों से इस बार पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग से सांसद चुने गए हैं। इसके विपरीत वैश्य समाज को प्राथमिकता देने वाले शिवहर ने राजपूत समाज से अपना प्रतिनिधि चुन लिया है।

राजनीतिक हलकों में बिहार के चित्तौड़गढ़ के उपनाम से ख्यात रहे औरंगाबाद के सामाजिक समीकरण में 2009 के चुनाव से ही कुछ परिवर्तन हो गया। उसका कारण परिसीमन था। परिसीमन ने बिहार के लगभग सभी 40 संसदीय क्षेत्रों के भूगोल और समीकरण में थोड़ा-बहुत बदलाव किया।

उसके बाद मात्र जाति के दम पर राजनीति करने वाले कुछ ज्यादा जोर मारने लगे। बावजूद राजपूत समाज ने 2009 से 2019 तक संपन्न हुए तीन चुनावों में औरंगाबाद पर कब्जा बरकरार रखा। इस बार राजद के अभय कुशवाहा चढ़ाई में सफल रहे हैं।

भाजपा के सुशील कुमार सिंह अपनी लगातार चौथी जीत से वंचित हो गए। ऐसी ही स्थिति आरा की है, जहां भाजपा के आरके सिंह हैट-ट्रिक से चूक गए। वहां भाकपा (माले) के सुदामा प्रसाद बाजी मार ले गए हैं। कुशवाहा और सुदामा क्रमश: पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज से हैं।

औरंगाबाद के बाद शिवहर और महाराजगंज को क्रमश: बिहार का दूसरा और तीसरा चितौड़गढ़ कहा जाता है। ऐसा उन दोनों संसदीय क्षेत्रों में राजपूत समाज के दम-खम के कारण है। महाराजगंज अपने उस उपनाम को आज भी कायम रहे है, लेकिन शिवहर के मिजाज में परिसीमन के बाद से ही बदलाव आ गया।

वहां पिछले तीन चुनावों में वैश्य समाज की रमा देवी विजयी रही थीं। भाजपा ने इस बार उन्हें बेटिकट कर दिया। समझौते के तहत वह सीट जदयू के खाते में गई, जिसने लवली आनंद को मैदान में उतारा। लवली का तीर निशाने पर लगा है। राजद की रितु जायसवाल अपने पहले ही चुनाव में चित हो गईं। जातीय आधार पर जीत की ललक में राजद उन्हें लेकर आया था, लेकिन सफल नहीं रहा। रितु वैश्य समाज से हैं।

दरअसल, सामाजिक समीकरण को साधने के उद्देश्य ही जाति आधारित गणना हुई थी। लोकसभा के इस चुनाव में लगभग सभी दल उसका श्रेय लेने की होड़ में रहे। प्रत्याशियों के निर्धारण का वह बड़ा पैमाना रहा और काफी हद तक उसका लाभ भी मिला है।

इस बार के चुनाव में हार-जीत के कई और कारण भी रहे, लेकिन यह अटल सत्य है कि बिहार की राजनीति से जाति नहीं जाती। सेंधमारी के तमाम प्रयास के बावजूद अगर जातीय आधिपत्य वाले 16 किले इस बार भी बुलंद रहे तो कोई दो राय नहीं कि वहां बिरादराना वोटों की पहरेदारी पुख्ता रही है।

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