शिक्षा के स्तर में नहीं हुआ विशेष सुधार
अभिनव उपाध्याय, नई दिल्ली राजधानी के विश्वविद्यालयों और स्कूलों में दी जा रही शिक्षा ही नहीं बल्कि
By Edited By: Updated: Tue, 23 Dec 2014 03:52 AM (IST)
अभिनव उपाध्याय, नई दिल्ली
राजधानी के विश्वविद्यालयों और स्कूलों में दी जा रही शिक्षा ही नहीं बल्कि यहां होने वाले दाखिले पर भी सबकी नजर होती है। लेकिन विगत वर्ष की भांति न केवल नर्सरी बल्कि स्नातक स्तर पर दाखिले की स्थिति में सुधार की उम्मीद इस वर्ष भी बस उम्मीद ही बनकर रह गई। सरकार की ओर से 'सब पढ़ें-सब बढ़ें' से लेकर उच्च शिक्षा में भी तमाम तरह के वादे किए गए लेकिन बात बस वादों तक ही सीमित रह गई। साल के मध्य में दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में जबदस्त उठापटक हुई। क्योंकि यहां चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम को लेकर कई नाटकीय घटनाक्रम हुए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने नियमों का हवाला देते हुए डीयू पर चार वर्षीय पाठ्यक्रम को वापस करने का दबाव भी डाला और अंतत: पाठ्यक्रम को वापस ले लिया गया। इस बीच एक बड़ा सवाल डीयू की स्वायत्ता को लेकर भी उठा। ऐसा डीयू में पहली बार हुआ जब कॉलेजों ने यूजीसी को यह लिखकर देना शुरू किया कि जैसा आयोग कहेगा वह उसके लिए तैयार हैं। इस घटनाक्रम के बीच ही डीयू के कुलपति प्रो. दिनेश सिंह के इस्तीफे की भी सूचना आई और बाद में इसे महज अफवाह कहा गया। यहां पर बीटेक के कई विषयों को यूजीसी ने मान्यता देने से मना कर दिया और तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में भी बड़े स्तर पर बदलाव हुआ। इस पूरे प्रकरण में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) मजबूती के साथ खड़ा हुआ। इस सबका बड़ा फायदा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) को मिला और उसने 16 साल बाद सभी सीटों पर विजय प्राप्त की। इसी वर्ष जामिया मिलिया इस्लामिया और गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय को नए कुलपति भी मिले। जामिया के कुलपति प्रो. तलत अहमद ने अगले पांच वर्षो का अपना रोड मैप भी रखा जिसमें एक मेडिकल कॉलेज की योजना खोलने का प्रस्ताव था। गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के लिए यह वर्ष दिसंबर में विशेष सौगात लेकर आया जब मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने इसके पूर्वी कैंपस की आधारशिला रखी लेकिन उसके समीप ही खाली पड़ी डीयू की जमीन को अब भी शिलान्यास का पत्थर लगने का इंतजार है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस वर्ष कोई विशेष गतिविधि नहीं हुई लेकिन संस्कृति विभाग ने पाली भाषा सहित कुछ सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने की रूपरेखा रखी और यहां पर छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) तमाम विवादों के बाद भी छात्र संघ चुनाव में चारों पदों पर विजयी रही। प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा में नहीं हुआ कुछ विशेष
प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए यह वर्ष बहुत कुछ देने वाला नहीं रहा। नई योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए कुछ कार्य किए गए। शौचालयों के निर्माण से लेकर स्कूलों में बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कई प्रयास हुए लेकिन दिसंबर में चार नए स्कूलों की आधारशिला रखी गई। कुल मिलाकर प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर किए जाने वाले काम बहुप्रतीक्षित थे लेकिन कई ऐसे कार्य हैं जिसकी अब भी लोगों को प्रतीक्षा है। संबंधित आंकड़े-
-डीयू में कुल छात्रों की संख्या लगभग 58 हजार। -डीयू में इस वर्ष ढाई लाख से अधिक छात्रों ने दाखिले के लिए किया आवेदन। -डीयू में शिक्षकों की संख्या लगभग आठ हजार। -जामिया में छात्रों की संख्या लगभग 16 हजार। -जेएनयू में छात्रों की संख्या लगभग 8 हजार। -डीयू में तदर्थ शिक्षकों की संख्या लगभग 5000। -सरकारी स्कूलों की संख्या 1007। -नगर निगम के स्कूल लगभग 1500। -निजी स्कूलों की संख्या लगभग 4500। -सरकारी स्कूलों में 15000 शिक्षकों की कमी। -राजधानी के स्कूलों में प्रति वर्ष एक लाख छात्र बढ़ जाते हैं। पहला बाक्स क्रोनोलॉजी- 3 मई- शिक्षा निदेशालय ने स्कूलों में दाखिले के लिए उम्र निर्धारित करने का आदेश दिया। 8 मई- आइपीयू के कुलपति प्रो. अनिल त्यागी ने पदभार संभाला। 20 मई- सीबीएसई ने 10वीं का परीक्षा परिणाम जारी किया। 27 मई- सीबीएसई ने 12वीं का परीक्षा परिणाम जारी किया। 31 मई- चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम की वापसी के लिए सांसदों से मिले एबीवीपी पदाधिकारी। 2 जून- डीयू में दाखिले शुरू। 10 जून-चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम की वापसी के लिए मानव संसाधन विकास मंत्री से मिले एबीवीपी कार्यकर्ता। 13 जून- विभिन्न संगठनों के शिक्षकों ने मतभेद भुलाकर चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के विरोध में सांसदों को पत्र लिखा। 17 जून- डूटा ने चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के मुद्दे पर डूसू से बात की। 18 जून- यूजीसी ने चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम को वापस लेने के लिए कहा। 23 जून- डीयू कुलपति के इस्तीफे की खबर आई। 25 जून- चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम पर डीयू का रुख नरम। 28 जून- डीयू ने चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम वापस लिया। 14 दिसंबर- मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इरानी ने आइपीयू के पूर्वी कैंपस की आधारशिला रखी। 18 दिसंबर- 4 अन्य स्कूलों की आधारशिला रखी गई। ----------------- दूसरा बाक्स उचित कदम उठाने की जरूरत राजधानी में प्राथमिक हो या उच्च शिक्षा, दोनों में कई स्तर पर लगभग एक जैसी समस्या और चुनौती हैं। प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा में दाखिला लेने वाले छात्रों का प्रतिशत हर वर्ष बढ़ रहा है। जिस स्तर पर यह प्रतिशत बढ़ रहा है उस स्तर पर कॉलेजों या स्कूलों की संख्या नहीं बढ़ रही है। सरकार इन बुनियादी सवालों पर ध्यान नहीं दे रही है जबकि यह सवाल सीधे तौर पर देश के भविष्य से जुड़ा है। पारंपरिक पढ़ाई से बेहतर सरोकार से जुड़ी शिक्षा है जिसके लिए बड़े स्तर पर प्रयास किए जाने की जरूरत है। यह दुखद है कि विश्वविद्यालय हो या सरकारी स्कूल, यहां पर शिक्षा के स्तर पर बड़े कार्य नहीं हो रहे बल्कि आलोचना अधिक हो रही है। राजधानी में स्कूल और कॉलेज शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। डीयू जैसे संस्थान में आधे शिक्षक तदर्थ पर हैं जिन पर हमेशा नौकरी जाने का खतरा लटकता रहता है। ऐसे में वे छात्रों से ठीक से जुड़ भी नहीं पाते। आज डीयू सहित अन्य विश्वविद्यालयों में शिक्षा के स्तर में गिरावट की बात की जा रही है तो इसकी बड़ी वजह इनकी स्वायत्ता पर हस्तक्षेप है। सरकार या अन्य एजेंसियां शिक्षा के क्षेत्र में यदि विचारधारा को प्रधानता देने लगेंगी तो शिक्षा का जिस स्तर पर विकास होना चाहिए वह नहीं होगा। राजधानी के राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को भी अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए और शैक्षणिक गुणवत्ता पर भी ध्यान देना चाहिए। इससे अन्य विश्वविद्यालयों पर भार कम पड़ेगा और गुणवत्ता भी सुधरेगी। आज शैक्षणिक संस्थानों में एक बड़ी समस्या छात्र-छात्राओं का शिक्षकों के साथ जुड़ाव न होना भी है। आज शिक्षकों को पढ़ाई के लिए कम और अपनी पदोन्नति के लिए अंक एकत्रित करने में अधिक ध्यान देना पड़ रहा है। इससे शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा है। अगर शैक्षणिक व्यवस्था आत्म उन्नति को अधिक महत्व देने लगेगी तो शिक्षा का उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। सरकार शिक्षा को लेकर अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचती रही है। शिक्षा का तेजी से निजीकरण हो रहा है। शिक्षा पर खर्च किया जाने वाला धन अब भी सकल घरेलू आय का मात्र 3 फीसद है जबकि इसको 6 फीसद तक किए जाने की बात कही गई थी। महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों का पैमाना अब योग्यता नहीं राजनीतिक पहुंच हो गया है। ऐसे में यह लगता है कि शैक्षणिक संस्थान अपने उद्देश्य से भटक रहे हैं और देश का भविष्य बाजार, दुविधा और भ्रम के बीच शिक्षा ले रहा है। - डॉ. राजेश झा, प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय
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