तंत्र के गण। दिला रहे हैं सिर उठाकर जीने का अधिकार
शैलेन्द्र सिंह, नई दिल्ली कई बार हम-आप रेहड़ी-पटरी वालों से सामान खरीदते हैं और रिक्शा चालक हमें घ
By Edited By: Updated: Sat, 23 Jan 2016 10:28 PM (IST)
शैलेन्द्र सिंह, नई दिल्ली
कई बार हम-आप रेहड़ी-पटरी वालों से सामान खरीदते हैं और रिक्शा चालक हमें घर तक पहुंचाने में मदद करता है, लेकिन हम कभी भी न तो रेहड़ी-पटरी वालों की समस्याओं को जानने की कोशिश करते हैं और न ही रिक्शा चालक की। मगर, एक शख्स है जो इनकी समस्याओं को दूर कर खुशी का अनुभव करता है। डॉ. अमित चन्द्रा कहते हैं कि हमारी कोशिश रहती है कि देश में सभी को आर्थिक मोर्चे पर भी स्वतंत्रता प्राप्त हो। आर्थिक स्वतंत्रता पर जीतना हक संपन्न व्यापारिक धरानों का है, उतना ही गरीब रेहड़ी-पटरी वाले का भी है। 32 साल के युवा अमित चन्द्रा ने कॉमर्स स्ट्रीम में बीकॉम की तो साथियों व परिवारजनों ने एम.कॉम व एमबीए करने की सलाह दी। लेकिन, उनका मन कुछ और ही कह रहा था। मुगलसराय के इस युवा ने अपने मन की बात सुनी और महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ का रुख किया। वहां पहले समाज कार्य में एमए किया और फिर पीएचडी की डिग्री हासिल कर उन लोगों के लिए काम शुरू किया, जोकि छोटा-मोटा काम कर अपनी जीविका चला रहे हैं। वर्ष 2009 से दिल्ली व राजस्थान में रेहड़ी -पटरी वालों के बीच उनके हक की लड़ाई लड़ते आ रहे डॉ. चन्द्रा बताते हैं कि बडे़ औद्योगिक घराने तो अक्सर सरकारी नीतियों को लेकर सजग होते हैं और उनके हिसाब से ही व्यापार करते हैं पर रेहड़ी-पटरी वाले अनभिज्ञ होते हैं। इसी वजह से कभी पुलिस प्रशासन तो कभी सरकारी विभागों के बाबुओं के शोषण का शिकार होते हैं। पिछले करीब छह से सात सालों से मेरी कोशिश है कि छोटे काम के जरिये अपना व अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले रिक्शा चालकों व रेहड़ी-पटरी वालों के लिए काम के बेहतर अवसर विकसित किए जाएं और उन्हें सरकारी की बदलती नीतियों व उनके माध्यम से मिलने वाले लाभ से अवगत कराया जाए।
वे कहते हैं शुरू में उन्हें कुछ परेशानी जरूरी आती थी। लोग आसानी से उनकी बात सुनना पसंद नहीं करते थे, लेकिन सेंटर फॉर सिविल सोसायटी के माध्यम से लगातार प्रयास करने पर लोगों ने न सिर्फ उनकी बात पर गौर करना शुरू किया बल्कि उनके साथ मिलकर नई पॉलिसी के निर्धारण में रुचि लेना भी शुरू किया। अमित कहते हैं कि इस क्षेत्र में लम्बे समय तक काम करने पर उन्होंने पाया है कि रेहड़ी-पटरी वालों की आधी समस्या का हल तो जागरूकता से ही हो जाता है। अक्सर हम देखते हैं कि इन छोटे कामगारों को इस बात का इल्म ही नहीं होता है कि सरकार उनके उत्थान व विकास के लिए क्या कर रही है और कैसे सरकारी योजनाओं का लाभ वे उठा कर अपने काम के क्षेत्र में मिलने वाली राहत ले सकते हैं। अमित कहते हैं कि इस मोर्चे पर कई बार सरकारी नीतियों में बदलाव की भी जरूरत होती है और इसके लिए हमने प्रयास भी किए और सफलता भी हासिल की। वे कहते हैं कि उनको इस काम को करने में काफी खुशी मिलती है। सरकार का जोर रोजगार देने पर होना चाहिए
अमित कहते हैं कि केंद्र सरकार हो या फिर राज्य सरकार, वे गरीब तबके को लेकर जो योजनाएं तैयार करती हैं, वो कहीं न कहीं लोगों को काम के बिना खाने की सुविधा उपलब्ध कराती हैं। यानी उन्हें सस्ता व मुफ्त राशन उपलब्ध कराना व आर्थिक सहायता देना। वे कहते हैं कि ऐसी योजनाएं तो दिव्यांग व वृद्धों को उपलब्ध करानी चाहिए। अन्य गरीब तबकों के लोगों के लिए तो सरकार को ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए, जिससे कि उनको रोजगार मिले। हाल ही में सरकार की ओर से शुरू की गई मुद्रा योजना ऐसा ही एक प्रयास है। मैं भी हमेशा से ही सरकार के स्तर पर ऐसी ही कोशिशों का समर्थन करता हूं, जिससे की रोजगार कमाने के इच्छुकों को मेहनत करने का अवसर मिले और वे आर्थिक स्वतंत्रता को हासिल करें।
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