जेएनयू की आवाज नहीं कन्हैया
राज्य ब्यूरो, नई दिल्ली : अंतरिम जमानत पर रिहा होकर जेएनयू कैंपस में कन्हैया कुमार ने अपने पहले ही
राज्य ब्यूरो, नई दिल्ली : अंतरिम जमानत पर रिहा होकर जेएनयू कैंपस में कन्हैया कुमार ने अपने पहले ही भाषण में जो बातें कहीं, उसे जेएनयू की आवाज कहना उचित नहीं होगा। कैंपस में रहने वाले छात्रों, शिक्षकों का ऐसा मानना है। वामपंथी विचारधारा के समर्थक कुछ पूर्व व वर्तमान छात्रों व शिक्षकों से अलग कैंपस में इस हंगामे से छात्र व शिक्षक प्रभावित हो रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी सरकार के खिलाफ देश की 69 फीसद जनता होने की बात करने वाले कन्हैया को समझना चाहिए कि उन्हें भी कैंपस के करीब 7500 मतदाताओं में से 1029 ने ही अध्यक्ष के तौर पर स्वीकार किया है। यानी करीब 85 फीसद छात्र उनसे अलग थे। ऐसे में वह अपनी आवाज को जेएनयू की आवाज न बताएं तो बेहतर होगा।
सेंटर फॉर लॉ एंड गवर्नेस की प्रोफेसर अमिता सिंह कहती हैं कि कन्हैया को इसी आशा में राहत दी गई है कि वह कैंपस में छात्रसंघ अध्यक्ष की जिम्मेदारी का निर्वहन करेंगे, लेकिन उनके तेवर देखकर ऐसा नहीं लग रहा है। अमिता कहती हैं कि जहा तक समर्थन की बात है तो पहले दिन से ही उन्हें उन वामपंथी विचारधारा के छात्रों व शिक्षकों का समर्थन प्राप्त है, जोकि अफजल गुरू व मकबूल बट की फासी के खिलाफ हैं। बृहस्पतिवार को भी जिस तरह से कुछ छात्र उमर व अनिर्बान की रिहाई की तख्ती लिए कन्हैया की सभा में नजर आएं, उससे तो यही प्रतीत होता है कि दिशा जरूर बदली है लेकिन सोच वहीं की वहीं है।
स्कूल ऑफ कंप्यूटर एंड सिस्टम साइंस के प्रोफेसर बुद्ध सिंह कहते हैं कि कुछ वामपंथी विचारधारा के समर्थक शिक्षकों की प्रयोगशाला में गरीब छात्र हथियार बन रहे हैं। कन्हैया इसका ताजा उदाहरण है। छात्र इस हद तक इन शिक्षकों के हाथ की कठपुतली बन गए हैं कि उन्हें सही गलत का फर्क समझ में नहीं आ रहा है। जब अदालत का फैसला उनके पक्ष में हो तो उन्हें न्यायपालिका पर भरोसा होता है, लेकिन जब फैसला उनके खिलाफ हो तो वो जूडिशयल किलिंग है। यदि स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस को छोड़ दिया जाए तो कैंपस में छात्र व शिक्षक वामपंथियों के इस हंगामे से तंग आ चुके हैं। वह चाहते हैं कि अब कैंपस में देशविरोधी गतिविधियों पर अंकुश लगे।
स्कूल ऑफ सोशल साइंसेस में पीएचडी के छात्र उमेश कुमार कहते हैं कि मुझे न वामपंथ से कुछ लेना-देना है और न ही दक्षिणपंथ से। कैंपस में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हो रही अति पर अंकुश लगे। जिस तरह से नौ फरवरी को मकबूल व अफजल का शहीद दिवस कार्यक्रम आयोजित हुआ और उसमें कन्हैया शामिल हुए, उससे साफ हो जाता है कि वह किस आजादी के पक्षधर हैं। अब कन्हैया किसान के लिए गरीबी और मनुवाद से आजादी की माग कर रहे हैं, लेकिन क्या अफजल और मकबूल खेती करते थे जो वह उनके पक्ष में आयोजित कार्यक्रम में उमर खालिद के बगल में खड़े नजर आ रहे थे।