राजधानी के विश्वविद्यालयों में दरक रही वामपंथ की जमीन
अभिनव उपाध्याय,नई दिल्ली : दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ है जब कार्यक
अभिनव उपाध्याय,नई दिल्ली :
दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले 20 साल में पहली बार ऐसा हुआ है जब कार्यकारी परिषद के चुनाव में शिक्षकों के प्रतिनिधि के रूप में कार्यकारी समिति में उनका कोई सदस्य नहीं चुना गया है। पहले स्थान पर नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के अध्यक्ष प्रो. एके भागी रहे जबकि दूसरे स्थान पर एकेडमिक फोर एक्शन एंड डेवलेपमेंट के नेता डॉ.राजेश झा चुने कार्यकारी समिति के सदस्य चुने गए।
दरअसल डीयू के नीति निर्धारण में शिक्षकों के दो प्रतिनिधि कार्यकारी परिषद में चुने जाते हैं जिनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विद्वत परिषद में कई शिक्षक संगठनों के प्रतिनिधि चुने गए लेकिन इसमें भी वामपंथी शिक्षकों का प्रभाव कम ही रहा।
इसकी नींव शिक्षक संघ के चुनाव में ही पड़ गई थी जब वर्तमान शिक्षक संघ की अध्यक्ष और डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट की नेता नंदिता नारायण, नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के नेता वीएस नेगी से बस 219 वोटों से जीत दर्ज की थी।
जेएनयू में भी शिक्षक संघ के चुनाव में आमतौर पर निर्विरोध चुने जाने की परंपरा रही है लेकिन पिछले चुनाव में वामपंथी शिक्षक अजय पटनायक को दक्षिणपंथ के समर्थक माने जाने वाले एके डिमरी ने कड़ी टक्कर दी थी। यही नहीं यदि छात्र राजनीति की बात करें तो जेएनयू में अकेले दम पर कोई वामपंथी छात्र संगठन चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं था। इसे देखते हुए आइसा और एसएफआइ ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा जबकि एबीवीपी के वोट फीसद में बढ़ोतरी दर्ज की गई।
डीयू में वामपंथ की स्थिति पिछले कई दशकों से बेहतर नहीं रही है और विगत वर्ष हुए छात्र संघ के चुनाव में बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट एसोसिएशन और एबीवीपी का दबदबा बना रहा।
जामिया, इग्नू, अंबेडकर यूनिवर्सिटी सहित अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक संगठनों में डीयू या जेएनयू के शिक्षक संगठन की तरह सक्रियता का अभाव देखा जाता है।
भारतीय जनता पार्टी समर्थित नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के महासचिव और डूटा अध्यक्ष के चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे डॉ. वीएस नेगी का कहना है कि डीटीएफ की लगातार जीत के बाद भी शिक्षकों के मुद्दों पर उनका ध्यान नहीं गया। जेएनयू में राष्ट्रविरोधी गतिविधि हो या कश्मीर का मुद्दा या अफजल गुरु का मामला हर स्तर पर डीटीएफ ने सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। इसलिए भी शिक्षकों का विश्वास डीटीएफ से घटा है।
डीयू में कार्यकारी परिषद की सदस्य रहीं और वामपंथ समर्थित शिक्षक संगठन डीटीएफ की सचिव आभादेव हबीब का कहना है कि मुझे नहीं लगता कि वामपंथ की जमीन दरक रही है। 1983, 2006 के बाद अब 2017 में ऐसा हुआ है कि डीटीएफ का कोई सदस्य कार्यकारी परिषद में नहीं चुना गया है। आमतौर पर जब संघर्ष की बात आती है तो शिक्षक वामपंथ की तरफ देखता है। हमने चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम का विरोध किया और शिक्षकों ने डूटा के चुनाव में डीटीएफ की नेता नंदिता नारायण को जिताया। सरकार की नीतियों के खिलाफ आज वामपंथी छात्र खड़ा है इसकी ¨चता एबीवीपी को नहीं है।