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दिल्ली में लुट गया इस टेलीविजन एक्टर का लंगोट, 'अंगूरी भाभी' से जुड़ा है नाम

मुझे उन दिनों मंडी हाउस, बंगाली और रिफ्युजी मार्केट की गलियों से मुहब्बत सी हो गई थी।

By JP YadavEdited By: Updated: Tue, 13 Mar 2018 08:43 AM (IST)
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दिल्ली में लुट गया इस टेलीविजन एक्टर का लंगोट, 'अंगूरी भाभी' से जुड़ा है नाम

नई दिल्ली (जेएनएन)। 'मैंने अपनी जिंदगी के सबसे अहम दस साल दिल्ली में गुजारे हैं। तीन साल राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में अदाकारी और रंगमंच से जुड़ी तमाम बारीकियों को सीखने में और बाद में वहां अदाकारी के इच्छुक लोगों को उस विधा की गहराई सिखाने में। दरअसल इस शहर में मुझे बार-बार अपनाया।' यह कहना है कि टेलीविजन सीरियल 'भाभी जी घर पर हैं' में मनमोहन तिवारी का किरदार निभाने वाले एक्टर रोहिताश गौड़ का।  

मैंने एनएसडी से पढ़ाई करने के बाद मुंबई का रुख कर लिया था। वह नब्बे के दशक की बातें थीं। तब सिर्फ दूरदर्शन के कार्यक्रम हुआ करते थे। ऐसे में हम जैसे आम चेहरे-मोहरे वाले कलाकारों के लिए ज्यादा संभावनाएं नहीं थीं, तो 1989 में मैं वापस दिल्ली आ गया। उसने मेरा खुले दिल से स्वागत किया।

फिर मैं मुंबई का होकर रह गया

एनएसडी की रैपेट्री में अगले छह-सात साल मैंने विद्यार्थियों को सिखाया और अपने हुनर पर खूब अभ्यास भी किया। मेरी मेहनत कामयाब हुई। फिर जब मैंने 1997 में मुंबई का रुख किया तो मेरा सपना पूरा हुआ। सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास 'मुझे चांद चाहिए' पर आधारित सीरियल में काम मिला। उसके बाद से मुंबई का होकर रह गया। ढेर सारे सीरियल और फिल्मों में मुझे काम मिले।

दिल्ली में मुझे बहुत दोस्त मिले

रोहिताश का कहना है कि मैं दिल्ली का शुक्रगुजार रहूंगा। इस शहर ने मुझे निर्मल पांडे और सीताराम पांचाल जैसे जिगरी दोस्त दिए थे। हालांकि जिंदगी ने उन दोनों को मुझ से छीन लिया, पर दिल्ली प्रवास ने हम तीनों ने बड़ी शरारतें की थीं। उन दोनों के अलावा सीमा विश्वादस, गोविंद नामदेव और सौरभ शुक्ला जैसे बड़े कलाकारों के साथ बतौर कलाकार करने का सौभाग्य भी उन्हीं के चलते मिला। रंगमंच से मेरी जड़ें मेरा अभिनय और परिपक्व व गहरा हुआ।

एक शरारत हुई दिल्ली में

रोहिताश ने बताया कि दिल्ली में मेरे साथ एक अजीबोगरीब शरारत हुई थी। वह मैं ताउम्र नहीं भूल पाऊंगा। मैं कालका जैसे छोटे शहर से हूं तो वहां से जब दिल्ली के लिए निकला तो पिताजी ने एक बात गांठ बांध कर रखने को कही थी। वह यह कि मर्द को हमेशा लंगोट पहनकर रहना चाहिए। एक तो उसके निरंतर इस्तेमाल से हर्निया की शिकायत कभी नहीं होती, दूसरी यह कि पीठ कसी हुई रहती है। 'मन' काबू में रहता है, तो ड्रामा स्कूल में जाने के दौरान उन्होंने मुझे 'लंगोटिया' दी।

एक बड़ा सा ट्रंक भी बनवाकर दिया, जिस पर पेंट से बड़े-बड़े अक्षरों में मेरा नाम और कालका का पता लिखा हुआ था। हॉस्टल में कई दिन रहने के बाद जब मैंने उसे खोला तो पाया कि मेरी लंगोटिया उसके अंदर नहीं है। इधर-उधर नजर घुमाई तो उसे सामने बालकनी में रस्सी पर टंगा पाया।

पीछे की तरफ से तो वह ठीक-ठाक नजर आ रही थी, मगर जब सामने गया तो देखा कि वह सिगरेट से दगी हुई थी। छेद ही छेद थे उस पर। मैं झल्ला उठा। हॉल में जाकर शिकायत की तो निर्मल पांडे और सीताराम पांचाल और बाकी लोग हंसने लगे।

मुझे समझाया-बुझाया कहा कि आज के जमाने में कौन लंगोट पहनता है? फिर मेरी आदत बदली। वह घटना मैं कभी नहीं भूल पाता हूं। मुझे उन दिनों मंडी हाउस, बंगाली और रिफ्युजी मार्केट की गलियों से मुहब्बत सी हो गई थी। अब भी दिल्ली प्रवास में मैं इन तीनों जगहों पर जाया ही करता हूं।

श्रीराम सेंटर की कैंटीन में खाने-पीने के अलावा गुणी लोगों का सानिध्य मिला करता था। उस कैंटीन में चाय छोटे-छोटे प्यालों में मिला करती थी। हम पीते हुए बातों में इतने मशगूल हो जाते थे कि सामने उन प्यालों के ढेर लग जाते थे। सबकी रचनात्मकता इन्हीं चाय की चुस्कियों से निकला करती थी।

प्रस्तुतिः अमित कर्ण

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