ODD-EVEN को लेकर केजरीवाल सरकार पर विशेषज्ञों ने उठाए गंभीर सवाल
पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण प्राधिकरण (ईपीसीए) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) इस निर्णय को पूरी तरह से अव्यावहारिक करार दे रहे हैं।
नई दिल्ली (संजीव गुप्ता)। दिल्ली सरकार भले ही ऑड-इवन लागू कर स्वयं को पर्यावरण हितैषी साबित करना चाह रही हो, लेकिन पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण एवं संरक्षण प्राधिकरण (ईपीसीए) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) इस निर्णय को पूरी तरह से अव्यावहारिक करार दे रहे हैं।
ऑड-इवन पर दिल्ली सरकार को भी कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। ईपीसीए अध्यक्ष डॉ. भूरेलाल दिल्ली सरकार के इस निर्णय को पूरी तरह से राजनीतिक करार दे रहे हैं। वह कहते हैं कि ऑड-इवन को लेकर दिल्ली सरकार तैयार ही नहीं है।
कुछ सौ अतिरिक्त बसों से लाखों यात्रियों को समायोजित करना नामुमकिन है। दिल्ली में 27 से 28 लाख कारें हैं। इनमें से अगर 13-14 लाख कारों पर ऑड-इवन का प्रतिबंध लगाया जाता है तो इतने यात्री मंजिल तक कैसे पहुंच पाएंगे?
अगर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली मजबूत होती तो यह निर्णय अवश्य प्रभावी हो सकता था। वहीं शुक्रवार रात से हवा चलने लगेगी, शनिवार को हालात बेहतर होने लगेंगे।
सोमवार तक तो स्मॉग बहुत हद तक छंट जाएगा। तब उस समय यह व्यवस्था लागू करने से दिल्ली वालों को सुविधा की बजाए असुविधा ही होगी।
सीपीसीबी के सदस्य सचिव ए. सुधाकर दिल्ली सरकार की कथनी एवं करनी में ही फर्क बताते हैं। वह कहते हैं, दिल्ली सरकार दिवाली के बाद से लगातार कहती आ रही है कि ऑड-इवेन के लिए तैयारी है। हकीकत में तैयारी अभी तक भी नहीं है। तैयारी होती तो यह व्यवस्था आपातकालीन हालात होने से पहले ही लागू कर दी जाती।
अब जबकि स्मॉग इमरजेंसी को तीन दिन बीत चुके हैं और शनिवार तक हालात काफी हद तक सुधरने के आसार हैं, तो ऑड-इवेन लागू करने का औचित्य समझ से परे है।
वैसे भी इस व्यवस्था में पिछली बार की तरह छूट के जितने प्रावधान इस बार भी जारी रखे गए हैं, उससे यह निर्णय भी स्कूल बंद करने की तरह राजनीतिक ज्यादा साबित होगा।
सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की कार्यकारी निदेशक अनुमिता राय चौधरी कहती हैं कि इस समय अस्थायी कदम उठाने से कोई फायदा नहीं मिलने वाला। सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को बढ़ाना जरूरी है।
दिल्ली में बस यात्रियों की संख्या वर्ष 2013 से हर साल औसतन नौ फीसद तक कम हो रही है। वर्ष 2013 से अब तक यह संख्या 34 फीसद कम हो चुकी है।