जब काम करने की इच्छा ही न हो, तो दया नहीं दिखाई जा सकती: हाईकोर्ट
जिस व्यक्ति की काम करने की इच्छा ही नहीं उसके प्रति दया नहीं दिखाई जा सकती। यह टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महिला की उस याचिका को रद्द कर दिया जिसमें उसने अपनी बर्खास्तगी के फैसले को चुनौती दी थी।
नई दिल्ली [अमित कसाना] जिस व्यक्ति की काम करने की इच्छा ही नहीं उसके प्रति दया नहीं दिखाई जा सकती। यह टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महिला की उस याचिका को रद्द कर दिया जिसमें उसने अपनी बर्खास्तगी के फैसले को चुनौती दी थी।
महिला निचली अदालत में लोअर डिविजनल क्लर्क (एलडीसी) थी। बिना अनुमति अवकाश लेने पर जिला एवं सेशन जज ने उसे बर्खास्त किया था। न्यायमूर्ति वीपी वैश की पीठ ने कहा कि जो व्यक्ति अपने अधिकारियों द्वारा जारी निर्देशों व चेतावनी का सम्मान नहीं करता उसके प्रति दया नहीं दिखाई जा सकती। इस मामले में साफ है कि याची को पर्याप्त मौके दिए गए, लेकिन उसने खुद में कोई सुधार नहीं किया। वह बिना नतीजों की चिंता किए अपनी सनक व काल्पनिक दुनिया में रहते हुए नौकरी से नदारद रही। ऐसे में उसके असंतोषजनक कार्य के चलते अदालत उसे नियमित न किए जाने के फैसले से सहमत है।
पीठ ने अपने फैसले में कहा कि महिला पर ये कार्रवाई दंडात्मक नहीं है और न ही किसी मकसद से उठाया गया कदम है। महिला की बर्खास्तगी केंद्रीय सिविल सेवा (अस्थायी सेवा) नियम 1965 के नियम 5 (1) के तहत की गई है। जिसमें नौकरी से नदारद रहने पर नोटिस के एक माह बाद हटाने का अधिकार दिया गया है।अदालत ने कहा कि याची यह साबित करने मे नाकाम रही है कि उसने जो छुट्टी ली थी उसकी स्वीकृति उसे दी गई थी।
याची ने अदालत में कहा कि उसे मामले की बिना जांच किए ही नौकरी से हटाया गया है, जो गैर कानूनी है। वहीं, जिला जज ने अदालत में कहा कि महिला अस्थायी तौर पर कार्यरत थी उसकी सेवाएं अभी नियमित नहीं हुई थी। वह अपनी जिम्मेदारी लगन से नहीं निभा रही थी और उसका काम संतोषनजक नहीं था। उन्होंने कहा कि नोटिस जारी करने के बाद भी महिला द्वारा नौकरी पर न आना यह जाहिर करता है कि वह नौकरी करना ही नहीं चाहती है।
यह था मामला
पेश मामले में 1992 में सविता सिंह (बदला हुआ नाम) ने निचली अदालत में एलडीसी (अस्थायी) के पद पर ज्वाइन किया था। 15 दिसंबर 1999 से 27 अप्रैल 2000 तक वह मातृत्व अवकाश पर रही। 28 अप्रैल 2000 को वह छुट्टी से वापस लौटी। आरोप है कि इसके बाद बिना स्वीकृति के आए-दिन वह छुट्टी कर लेती थीं और यह सिलसिला करीब एक साल तक चला। जिला जज ने उनको नौकरी से नदारद रहने पर नोटिस जारी कर जवाब मांगा। नोटिस के एक माह बाद 13 नवंबर 2002 को उन्हे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया।