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सही दिशा में विदेश नीति

प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के एक साल पूरे कर लेने के साथ ही उनकी नीतियों और कायरें की गहन

By Edited By: Updated: Mon, 25 May 2015 06:04 AM (IST)
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प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के एक साल पूरे कर लेने के साथ ही उनकी नीतियों और कायरें की गहन समीक्षा हो रही है। विशेष ध्यान उनकी विदेश नीति पर दिया जा रहा है। मोदी ने विदेशी मामलों में सक्रिय रुचि प्रदर्शित की है। इसी का नतीजा है कि न केवल इस क्षेत्र के, बल्कि दुनिया भर के अन्य देशों के साथ भारत के संपर्क-संवाद में एक नई ऊर्जा दिख रही है। वह अपनी एक खास तरह की कूटनीतिक शैली से दूसरे देशों के साथ भारत के संबंधों को नया आयाम दे रहे हैं। यह आजादी के बाद भारत की सरकारों द्वारा अपनाई गई शैली और रीति-नीति से कई मायनों में अलग है। चूंकि यह शैली नई और गैर परंपरागत है इसलिए स्वाभाविक रूप से उसके बारे में तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। पाकिस्तान नीति को छोड़कर मोदी किसी भी मामले में अपनी विदेश नीति में लड़खड़ाए नहीं हैं। पाकिस्तान नीति जरूर भ्रम का शिकार नजर आ रही है। इसे उस शुरुआती दौर में वापस ले जाने की जरूरत है जब मोदी ने तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह की इस्लामाबाद यात्रा को रद कर दिया था। मोदी सरकार ने विदेश नीति में जो पहल की है उनमें से कुछ ऐसी हैं जो आने वाले दशकों में भारत के हितों को पूरा करेंगी। ऐसी ही एक पहल मोदी की सेशल्स और मारीशस के रूप में हिंद महासागर के दो द्वीपीय देशों की यात्रा है। यह दुखद है कि विदेश नीति के समीक्षकों और विद्वानों ने इन यात्राओं को उतना महत्व नहीं दिया जितना कि अपेक्षित था।

इस गलती के ऐतिहासिक कारण हैं। भारत की विदेश और सुरक्षा नीति का निर्धारण करने वालों ने ऐतिहासिक रूप से अपना ध्यान उन खतरों की ओर केंद्रित रखा है जो देश की भू-सीमा से उभर सकते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि प्राचीन काल से भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी क्षेत्र की भू-सीमाओं से ही लोगों का आना होता रहा है, खासकर खैबर और बोलन दररें से, जो कि अब पाकिस्तान में हैं। इन्हीं इलाकों से प्राचीन और मध्य युग में घुसपैठिए भी आते रहे हैं। लिहाजा भारत के नीति-नियंताओं के मन में यह बात घर कर गई कि भारत को अपनी भू-सीमाओं की हिफाजत करनी है। यही संदेश आजादी के बाद पाकिस्तान के हमलों से भी उभरा। यह बात अलग है कि पाकिस्तान के सभी हमले नाकाम हो गए। 1962 में चीन के साथ युद्ध के दौरान भी ऐसा ही हुआ। लंबे समय से यही धारणा कायम रहने के कारण भारत ने समुद्र से उभरने वाले खतरों की अनदेखी कर दी।

भारत के पूर्वी और दक्षिण इलाकों से व्यापारी और विद्वान दक्षिण पूर्व एशिया गए और उन्होंने वहां पहुंचकर एक गहरा सांस्कृतिक संबंध स्थापित किया। ये सब आज भी मौजूद हैं। सच है कि इन क्षेत्रों से कभी कोई खतरा नहीं उभरा। मुगल शासकों ने नौसेना और जहाजों के विकास के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह दिलचस्पी तब भी नहीं दिखाई गई जब मुस्लिमों को हज पर ले जाने वाले जहाजों पर हमेशा से समुद्री लुटेरों का खतरा मंडराता रहा। इसके बाद यूरोपीय लोग समुद्री रास्ते से भारत आए। भारत में ब्रिटिश आधिपत्य का एक प्रमुख कारण उसकी उन्नत नौसेना भी थी। चूंकि भारतीय राज्यों के पास कोई समुद्री शक्ति नहीं थी इसलिए उनके लिए ईस्ट इंडिया कंपनी का सामना करना असंभव हो गया। अब समय आ गया है जब भारत को यह अहसास करना होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हिंद महासागर सबसे अधिक अहम होगा। यह जरूरी है कि इस संदर्भ में की गई ऐतिहासिक गलतियों को सुधारा जाए। जैसे-जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की भूमिका बढ़ रही है वैसे-वैसे हिंद महासागर का महत्व भी बढ़ रहा है। यह भारत के व्यापार कॉरिडोर का सबसे प्रमुख मार्ग होगा। भारत इस मार्ग के जरिये ऊर्जा और खाद्यान्न के संदर्भ में अपनी आयात जरूरतों को भी पूरा कर सकता है। इसके साथ ही यह निर्यात का भी मार्ग होगा। भारत में उत्पादन का स्तर और अधिक बेहतर होने के साथ निर्यात के अवसर भी बढ़ेंगे। लिहाजा यह जरूरी है कि भारतीय नौसेना को एक शक्तिशाली निकाय के रूप में विकसित किया जाए। यही वह वजह है जिसके चलते सेशल्स और मारीशस सरीखे देशों का महत्व बढ़ जाता है। भारत के दीर्घकालिक समुद्री हितों के लिहाज से ये देश बहुत महत्वपूर्ण हैं। ये देश खुद बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए सहयोग की आवश्यकता है। सेशल्स के लिए भारत नजदीकी सहयोग वाला देश है। मारीशस 1968 में अपनी आजादी के बाद से सुरक्षा सहयोग के लिए भारत के साथ जुड़ा रहा है। यह साझेदारी मजबूत ही हुई है, क्योंकि मारीशस की आबादी का बहुमत भारतीय मूल का है। यही समूह आजादी के बाद से एक राजनीतिक शक्ति केंद्र बना रहा है। प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम के शासन के अनेक वषरें के बाद मारीशस भारत के साथ अपने सुरक्षा संबंधों को आगे बढ़ाने के प्रति एक तरह की अनिच्छा का प्रदर्शन कर रहा है।

सेशल्स के साथ बातचीत की प्रक्रिया कई वषरें से चल रही थी, लेकिन यह प्रक्त्रिया संप्रग सरकार के समय धीमी और बेनतीजा थी। संप्रग सरकार सेशल्स के साथ संबंधों में आमूल-चूल बदलाव लाने के लिए जरूरी प्रतिबद्धता दिखाने के प्रति हिचकती रही, लेकिन मोदी ने यह नजरिया बदल दिया। अपने पहले ही साल में उन्होंने एक ऐसे देश की यात्रा करने का फैसला किया जहां पिछले 34 साल से कोई भारतीय प्रधानमंत्री नहीं गया था। बदलाव को महसूस करने के लिए यही अपने आप में काफी है।

मोदी की यात्रा के दौरान सेशल्स में बुनियादी सुविधाओं के विकास के संदर्भ में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते पर अमल का काम प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। इसी तरह मारीशस के संदर्भ में भी एक महत्वपूर्ण समझौता किया गया। इसका संबंध समुद्री और वायु परिवहन में सुधार से है। इस बारे में भी कई वषरें से बातचीत चल रही थी। यह न केवल भारत, बल्कि मारीशस के भी हित में है कि इस समझौते पर सही तरह और बिना किसी देरी के अमल हो। सेशल्स और मारीशस, दोनों ही देशों में मोदी का ध्यान देना व्यापक अर्थ रखता है और इसका संबंध केवल सुरक्षा मामलों तक सीमित नहीं है। संबंधों के विकास के लिए सबसे अच्छा तरीका यही है कि संबंध किसी एक खास मकसद पर केंद्रित न हों। मारीशस के संदर्भ में तो यह और अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस देश के साथ हमारे रिश्ते खून के हैं। इन मामलों में एक और पहलू है। हिंद महासागर का क्षेत्र आने वाले दिनों में गहन समुद्री प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र बन जाएगा। चीन ने पहले ही समुद्री सिल्क रोड परियोजना का ऐलान कर दिया है। इसके तहत वह हिंद महासागर के देशों के साथ करीबी रिश्ते कायम करना चाहता है। भारत के दीर्घकालिक हितों के लिए यह जरूरी है कि राजनीतिक वर्ग विचारधारा और राजनीतिक मामलों को सामरिक नीति पर हावी न होने दे ताकि देश की समग्र ऊर्जा को अर्थव्यवस्था और शक्ति के विकास में लगाया जा सके। यदि ऐसा नहीं होता तो देश पीछे छूट जाएगा। देशों के बीच क्रूर खेल में उन लोगों के लिए कोई दया नहीं दिखाई जाती जो आगे खड़े होने का अवसर गंवा देते हैं।

[लेखक विवेक काटजू, विदेश मामलों के विशेषज्ञ हैं]