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धारा 26 पर पक्षपाती नजरिया

By Edited By: Updated: Fri, 16 Mar 2012 08:50 PM (IST)
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[शिरडी साई मंदिर के न्यास के संबंध में औरंगाबाद हाईकोर्ट के फैसले से असहमति जता रहे हैं एस शंकर]

औरंगाबाद हाईकोर्ट ने विश्व प्रसिद्ध शिरडी साईं मंदिर के वर्तमान न्यास को भंग कर राजकीय जिलाधिकारी को नए न्यास का निर्माण करने कहा है। आशा करें कि नए न्यास के बहाने उस पर राजकीय नियंत्रण न हो जाए, जो अनेक हिंदू मंदिरों, स्थानों के साथ हो चुका है। शिरडी साईं संस्थान एक धार्मिक संस्था है जो संविधान की धारा 26 में दिए गए मौलिक अधिकार के अनुरूप परोपकारी कार्यो के लिए विविध प्रकार की संस्थाओं की स्थापना और संचालन करती है। इस प्रक्रिया में उसके पास विशाल चल-अचल संपत्तिजमा हो गई है। इसी कारण उस पर शासकीय कब्जे की आशंका हो सकती है। विवाद या गड़बड़ी के आरोपों पर राज्य किसी भी धार्मिक संस्थान की संपत्तिका अधिग्रहण तक कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे उचित ठहराया है। संविधान की धारा 31[ए] के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं, न्यासों की संपत्तिका अधिग्रहण हो सकता है। काशी विश्वनाथ मंदिर के श्री आदिविश्वेश्वर बनाम उत्तार प्रदेश सरकार [1997] के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, किसी मंदिर के प्रबंध का अधिकार किसी रिलीजन का अभिन्न अंग नहीं है। तदनुरूप हमारे देश में राच्य ने अनेकानेक मंदिरों का अधिग्रहण कर उनका संचालन अपने हाथ में ले लिया गया। इस प्रसंग में गंभीर आपत्तियह है कि संविधान की धारा 31[ए] का प्रयोग केवल हिंदू मंदिरों, न्यासों पर होता रहा है। किसी चर्च, मस्जिद या दरगाह की संपत्तिायां कितने भी घोटाले, विवाद या गड़बड़ी की शिकार हों, उन पर राच्याधिकारी हाथ नहीं डालते। जबकि संविधान की धारा 26 से लेकर 31 तक, कहीं किसी विशेष रिलीजन या मजहब को छूट या विशेषाधिकार नहीं दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी किसी धार्मिक संस्था या ए रिलीजन की बात की गई है। मगर व्यवहरात: केवल हिंदू मंदिरों, न्यासों पर ही राच्य की वक्र-दृष्टि उठती रही है। भारत में केवल हिंदू समुदाय है जिसे अपने धार्मिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह निष्कंटक अधिकार नहीं, जो अन्य धर्मावलंबियों को है। यह बहुत बड़ा अन्याय है, जो सामान्य न्याय-बुद्धि ही नहीं, स्वयं संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। वस्तुत: संविधान की धारा 26 से लेकर 30 तक एक ऐसी विकृति की शिकार है, जिसकी हमारे संविधान निर्माताओं ने कल्पना तक नहीं की थी। संविधान निर्माताओं ने संविधान में समुदाय के रूप में अल्पसंख्यक शब्द का अलग से कई बार प्रयोग किया, जबकि बहुसंख्यक का एक बार भी नहीं। इसका अर्थ यह नहीं था कि वे कथित अल्पसंख्यक समुदायों को ऐसे अधिकार देना चाहते थे, जो बहुसंख्यकों को न मिले। बल्कि वे सहज मानकर चल रहे थे कि बहुसंख्यकों को तो वे सभी अधिकार प्राप्त होंगे ही। अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के बराबर सभी अधिकार मिला रहे, इस नाम पर धारा 30 जैसे उपाय किए गए। धारा 30[2] को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान निर्माताओं का यही भाव था। किंतु स्वतंत्र भारत में हिंदू-विरोधी नेताओं, बुद्धिजीवियों ने धीरे-धीरे, चतुराई से उन धाराओं का अर्थ यह कर दिया कि अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार हैं। यानी ऐसे अधिकार जो बहुसंख्यकों यानी हिंदुओं या हिंदी भाषियों को नहीं दिए जा सकते। उसी पक्षपात का व्यावहारिक रूप यह हो गया है कि धारा 25 से लेकर 30 तक की व्याख्या और उपयोग हिंदू समुदाय के धर्म और अधिकारों के प्रति निम्न भाव रखते किया जाता है। इसीलिए हिंदू मंदिरों, संस्थाओं और न्यासों को जब चाहे सरकारी कब्जे में ले लिया जाता है। इस पर कोई विचार नहीं होता कि हिंदुओं को अपने मंदिर, संस्थान और न्यास संचालित करने का वही मौलिक अधिकार क्यों नहीं है, जो दूसरों को है? यदि किसी मंदिर में विवाद या घोटाला हो, तो दोषी व्यक्तियों को न्यास के नियमों के अनुसार या कानूनी प्रक्रिया से कार्यमुक्त या दंडित किया जा सकता है। किंतु न्यास को भंग कर मंदिर या संस्थान पर राजकीय कब्जा करना हिंदुओं के विरुद्ध है। यह संविधान की धाराओं को हिंदू-विरोधी अर्थ दे देना है, जो न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता। यह तब और अन्यायपूर्ण प्रतीत होता है जब देखते हैं कि जहां-तहां अल्पसंख्यक संस्थानों, मस्जिदों, चर्चो के अवैध कार्यो में लिप्त होने की प्रमाणिक घटनाओं के बाद भी कभी राच्य द्वारा उन का अधिग्रहण नहीं किया जाता। केरल, गुजरात और पश्चिम बंगाल में मस्जिदों का आतंकवादियों द्वारा दुरुपयोग करने की प्रमाणिक घटनाएं हुई हैं। चर्च द्वारा माओवादियों और अलगाववादियों को सहयोग देने की खबरें भी कई स्थानों से आई हैं। क्या यह मस्जिद और चर्च प्रबंधन में गड़बड़ी नहीं? तब कभी उनका अधिग्रहण क्यों नहीं होता? केवल रामकृष्ण आश्रम, काशी विश्वनाथ या शिरडी साईं मंदिर जैसी हिंदू संस्थाओं पर ही राजकीय नियंत्रण की तलवार क्यों लटकाई गई? दुनिया के किसी देश में ऐसा नहीं, कि वहां अल्पसंख्यकों को वैसे अधिकार हों, जो बहुसंख्यकों को न हो। मगर भारत में यही चल रहा है। यह हिंदुओं की दुर्बलता, भीरुता और विखंडन का प्रमाण तो है ही, कथित हिंदूवादी संगठनों के निक्केमपन का भी चमकता इश्तिहार है। वे समान नागरिक संहिता पर शोर-शराबा करते रहे हैं, जो न उतना महत्वपूर्ण है, न आसान, क्योंकि उसमें मुस्लिम समुदाय का विशेषाधिकार छिनेगा। किंतु धारा 26 से 30 को हिंदुओं के लिए बराबर रूप से लागू करने में दूसरे किसी समुदाय का कुछ नहीं जाएगा, क्योंकि इससे हिंदुओं को भी वह मिलेगा जो दूसरों को मिला हुआ है। मगर भारत में हिंदू हितों की बात तक करना गलत समझा जाता है। यह यहां की अधिकांश राजनीतिक बीमारियों और सामाजिक विकृतियों की जड़ है। इसे समय रहते समझा जाना चाहिए।

[लेखक: वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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