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देशघाती मानसिकता

By Edited By: Updated: Tue, 08 May 2012 10:15 AM (IST)
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आंध्र प्रदेश की पुलिस द्वारा 1 जुलाई, 2010 को एक मुठभेड़ में मारे गए शीर्ष नक्सली नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की मौत पर स्वयंभू मानवाधिकारियों के आंसू थमे नहीं हैं। पहले मुठभेड़ की सीबीआइ जांच की मांग की गई और जब सीबीआइ ने मानवाधिकारियों के प्रतिकूल मुठभेड़ को वास्तविक बताया तो सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल कर विशेष जांच समिति गठित करने की गुहार लगाई गई। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी। नक्सली नेता चेरूकुरी पर 12 लाख का इनाम था। राज्य व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति छेड़ने वाले नक्सलियों के प्रति मानवाधिकारियों के मोह का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पश्चिम बंगाल में मारे गए शीर्ष नक्सली कमांडर कोटेश्वर राव उर्फ किशन की मौत पर भी स्वयंभू मानवाधिकारियों की टोली ने खूब हंगामा खड़ा किया था। इससे पूर्व नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले विनायक सेन और नक्सली विचारक कोबाद घंडी की गिरफ्तारी पर भी मानवाधिकारियों का कुनबा बिफर उठा था। यह कैसी मानसिकता है? देशघाती व्यक्तियों का मानवाधिकार क्या राष्ट्रहित से ऊपर है? अभी हाल ही में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पाल मेनन को दिनदहाड़े अगवा कर लिया था। उनके दो सुरक्षाकर्मी मारे गए। इससे पूर्व उड़ीसा में बीजद के विधायक को नक्सलियों ने एक महीने तक अपनी कैद में रखा। इटली के दो पर्यटकों का अपहरण कर कई दिनों तक कैद में रखा गया। उससे पूर्व मलकानगिरी के जिलाधिकारी आर विरील कृष्णा का अपहरण किया गया था। इन सब की रिहाई के लिए सरकार को नामी और इनामी नक्सली कामरेडों को रिहा करना पड़ा, जिन पर राज्य के खिलाफ विद्रोह करने और जानमाल को नुकसान पहुंचाने का आरोप था। नक्सलियों की इस नई बंधक नीति के आगे घुटने टेकने से नि:संदेह उनका मनोबल बढ़ेगा और आगे इस तरह की और भी घटनाएं बढ़ेंगी ही। बंदूक के बल पर जनतंत्र को उखाड़ फेंकना नक्सलियों का घोषित एजेंडा है, यह उनका खुला चेहरा है, किंतु नक्सलियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी नकाबपोश हैं, जो मानवाधिकार के नाम पर हिंसा और रक्तपात को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। एक ओर नक्सलियों को स्वयंभू मानवाधिकारियों व बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त है तो दूसरी ओर केंद्र में एक ऐसी सरकार है, जो नक्सलवाद को महज सामाजिक-आर्थिक समस्या मानती है, जबकि नक्सली चीन प्रेरित हैं और बंदूक के बल पर राजसत्ता को पलटने का लक्ष्य रखते हैं। उनकी प्रेरणा चीनी साम्यवादी नेता माओ त्से तुंग हैं, जिसने हिंसा के बल पर चीन की सत्ता हथिया ली थी। नक्सलियों का न तो प्रजातंत्र पर विश्वास है और न ही वे भारत के प्रति आस्था का भाव रखते हैं। कथित तौर पर वे शोषित और वंचितों के हक के लिए हथियार उठाए घूम रहे हैं, किंतु हकीकत यह है कि उनकी हिंसा से गरीब आदिवासी ही सर्वाधिक आहत हैं। नक्सली हिंसा के कारण दूरस्थ प्रदेशों में विकास कार्य संभव नहीं हो रहे, इसलिए सामाजिक असमानता कायम है। प्रारंभिक नीति दूरस्थ आदिवासी इलाकों में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम रखने की थी, ताकि उनकी संस्कृति और परंपराओं को अक्षुण्ण रखा जा सके, किंतु इसके दुष्परिणामस्वरूप जो शून्य उत्पन्न हुआ उस निर्वात को अलगाववादी ताकतों ने पूरा किया। इसमें चर्च की भूमिका बहुत घातक रही है, किंतु सेक्युलर दल और कथित मानवाधिकारी चर्च केइस राष्ट्रविरोधी चेहरे को भी बचाते आए हैं। पूर्वोत्तर के राज्य अलगाववाद की चपेट में हैं और इस अलगाववादी भावना के दोहन में चर्च का भारी योगदान है। खुफिया जानकारी के अनुसार माओवादी अब असम के उग्रवादी संगठन उल्फा के परेश बरूआ गुट के साथ मिलकर अपहरण और उगाही का काम कर रहे हैं। माओवादी उल्फा के साथ मिलकर अरुणाचल के रास्ते चीन तक सीधी पहुंच बनाने की कोशिश में हैं, ताकि अत्याधुनिक हथियार और गोलाबारूद की आपूर्ति सुगम हो सके। नागालैंड के उग्रवादी संगठन नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के साथ भी माओवादियों के घनिष्ठ संपर्क कायम होने की खुफिया जानकारी सरकार को है। नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या मानने वाली केंद्र सरकार इन खतरों की अनदेखी कर वस्तुत: देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रही है। उत्तर में नेपाल स्थित पशुपति से लेकर दक्षिण के तिरुपति तक फैले माओवादियों को अपने प्रभाव क्षेत्र की तराइयों, निष्ठावान कैडर और आधुनिक अस्त्रों के कारण बढ़त हासिल है। खुफिया विभाग के पास इस बात की पुख्ता जानकारी है कि माओवादी जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के अलगाववादी आतंकी संगठनों के साथ घनिष्ठ संपर्क में है। स्वयं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि की है। सशस्त्र माओवादी कैडरों की संख्या 15000 से ऊपर पहुंच चुकी है। 2008 में ऐसे कैडरों की संख्या महज चार हजार ही थी। इसकी तुलना में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, जिस पर माओवादियों के सफाए की जिम्मेदारी है, के पास न तो पर्याप्त आधुनिक असलहे हैं और न ही उन्हें समुचित प्रषिक्षण दिया गया है। पिछले तीन सालों में सुरक्षा जवानों और नक्सलियों के बीच होने वाली मुठभेड़ में सुरक्षाकर्मी ही बड़ी संख्या में मारे गए हैं। ऑपरेशन ग्रीनहंट की विफलता और सुरक्षा बलों की भारी क्षति के बाद केंद्रीय पुलिस संगठन और सीमा सुरक्षा बल के वर्तमान स्वरूप और उसकी क्षमता का आकलन करने से यह कटु सत्य सामने आया कि मौजूदा संसाधनों के साथ नक्सलियों से लोहा लेने में केंद्रीय रिजर्व बल समेत केंद्रीय पुलिस बल को अगले बीस सालों तक नक्सलियों के खिलाफ कोई बड़ी सफलता हाथ लगने वाली नहीं है। कहने को नक्सली आंदोलन भूमिगत है, किंतु आजाद, किशन, विनायक सेन और कोबाड घंडी जैसे लोगों के समर्थन में कुतर्क की भाषा बोलने वाले बुद्धिजीवी वस्तुत: भारतीय जनतंत्र और प्रजातांत्रिक मूल्यों के घोर विरोधी हैं। अन्यथा क्या कारण है कि सभ्य समाज को लहूलुहान करने वाले इस्लामी आतंकियों से लेकर माओवादियों के पक्ष में स्वयंभू मानवाधिकारी ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं? इस्लामी आतंक और नक्सली हिंसा को संरक्षण देने वाला चेहरा धरातल पर दिखने वाला हो या भूमिगत, उनका उद्देश्य भारत की बहुलतावादी संस्कृति और विशिष्ट पहचान को नष्ट करना है। यह भारत के खिलाफ एक अघोषित युद्ध है और इस युद्ध में भारत के खिलाफ भारतीयों का ही सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। जब तक नई दिल्ली में बैठा सत्ता अधिष्ठान इस सच्चाई को नहीं समझता तब तक नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती।

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