एक सच पर गैरजरूरी पर्दा
जाति भारतीय समाज की सच्चाई है। यह भारतीय राजनीति की भी सच्चाई है। बिना जातियों के समीकरणों की चिंता किए कोई भी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार नहीं उतारता। फिर भी केंद्र सरकार एक बार फिर जातिगत आंकड़े जारी करने से हिचक गई। ऐसा लगता है कि जातिगत आंकड़े जारी करने
जाति भारतीय समाज की सच्चाई है। यह भारतीय राजनीति की भी सच्चाई है। बिना जातियों के समीकरणों की चिंता किए कोई भी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार नहीं उतारता। फिर भी केंद्र सरकार एक बार फिर जातिगत आंकड़े जारी करने से हिचक गई। ऐसा लगता है कि जातिगत आंकड़े जारी करने पर आपत्ति केवल उसी दल को होती है जिसके पास केंद्र की सत्ता होती है। पिछड़े वर्गों की राजनीति करने वाले दलों के साथ-साथ कांग्रेस ने जातिगत आंकड़े जारी करने की मांग की है। उसकी मांग इसलिए जायज है, क्योंकि उसी ने सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना की पहल भी की थी, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि पांच दशक से अधिक समय तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस ने दर्जनों-सैकड़ों सामाजिक योजनाओं के लिए इसके पहले कभी जातिगत आंकड़ों की चिंता नहीं की। कांग्रेस को पिछड़े और दलित समुदाय की बदहाली का दोष भी अपने ऊपर लेना होगा। हो सकता है कि जातियों के आंकड़े सार्वजनिक हो जाने के बाद राजनीतिक दलों का भी कुछ भ्रम टूटे और वे व्यर्थ ही जातियों के मामले में संभल-संभल कर चलना छोड़ दें। तब शायद उन्हें सभी जातियों के अलग-अलग सम्मेलन करने की भी जरूरत न महसूस हो। यह कितना विचित्र है कि हम अपने देश के बारे में सब कुछ जान सकते हैं, सिवाय इसके कि कौन सी जाति में कितने लोग हैं। क्या एक सच को सामने लाने से बचा जाना चाहिए? जातियों का मामला जटिल जरूर है, लेकिन यह कोई जिन्न नहीं है जिसे छेड़ते ही जलजला आ जाएगा।
जातियों का सच केवल नीतियां बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि समाज की बेहतरी के लिए भी सामने आना चाहिए। उत्तर प्रदेश सरीखे राज्यों के लिए यह और अधिक जरूरी है। यह राज्य राजनीतिक रूप से केवल इसलिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं है कि यहां लोकसभा की सबसे अधिक सीटें हैं, बल्कि इसलिए भी है कि इसमें जातियों के समीकरण इतने अधिक उलझे हैं कि राजनीतिक दलों को अपनी जड़ें जमाने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। वे जनता के मुद्दों से जुड़ें या न जुड़ें, लेकिन जातियों से जुड़ने में तनिक भी देरी नहीं करते। जातियों को भी राजनीतिक दल पसंद आने लगे हैं। उनका भविष्य राजनीतिक दलों की मजबूती अथवा कमजोरी से तय होता है और जब सत्ताएं ही जातियों पर टिक जाती हैं तो वही होता है जो आज उत्तर प्रदेश में हो रहा है। प्रशासनिक अधिकारियों के 86 पदों पर एक जाति के 54 चयन यह स्वाभाविक सवाल पैदा करते हैं कि क्या उस जाति का वाकई सामाजिक उत्थान हो गया है या भाई-भतीजावाद ने नया आकाश छू लिया? यह सफलता किसी जाति के पिछड़े होने की निशानी नहीं हो सकती।
यह सभी समाजशास्त्रियों के लिए गहरे शोध का विषय होगा कि महज तीन साल में एक जाति का ऐसा कायाकल्प कैसे हो सकता है? अगर यह बेईमानी है तो इससे बड़े अंधेर की कल्पना करना मुश्किल है और यदि एक हकीकत है तो फिर पिछड़े वर्ग के पुनर्गठन का वक्त आ गया है। वैसे एक जाति पर मेहरबानी से कोई समाज मजबूत नहीं हो सकता। इसके विपरीत पक्षपात हमेशा समाज को कमजोर करता है। इसीलिए हमारा समाज मजबूती की मांगों के बीच कमजोर ही होता जा रहा है। जिस आरक्षण को सामाजिक सशक्तीकरण का जरिया माना गया था उसने और अधिक विघटन पैदा किया है। विघटन अब तीन-चार वर्गों में ही नहीं, बल्कि अलग-अलग समूहों के बीच भी है और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि आरक्षण में संतुलन का अभाव है। फिलहाल कोई इस पर विचार करने के लिए तैयार नहीं कि अगर आरक्षण के दायरे में जातियां जुड़ सकती हैं तो फिर उससे हट क्यों नहीं सकतीं? यह ठीक है कि किसी से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह गैस सब्सिडी की तरह आरक्षण की सुविधा त्याग देगा, लेकिन किसी आयोग के जरिये आरक्षण की पात्रता का फिर से निर्धारण तो किया ही जा सकता है। सुविधा और अधिकार में कुछ न कुछ अंतर तो होना ही चाहिए। इतना ही जरूरी यह भी है कि आरक्षण सरीखे महत्वपूर्ण उपाय के सामाजिक प्रभाव का एक तर्कसंगत विश्लेषण हो।
सामाजिक सशक्तीकरण का यह कोई तरीका नहीं हो सकता कि किसी राजनीतिक दल के शासन में किसी जाति विशेष को ही बढ़ावा मिले। यह अनैतिक भी है, शासन के बुनियादी आधार के खिलाफ भी और संविधान की अवमानना भी। अगर पक्षपात को इस आधार पर सही ठहराया जाएगा कि अतीत में तमाम जातियां इसी तरह लाभान्वित हुई थीं और इस आधार पर उन्होंने समाज में अपना वर्चस्व बनाया था तो यह पहले की गलतियों को सही ठहराना ही होगा।
जब जातिगत गणना कराई ही जा चुकी है तब फिर इसके तथ्य सामने लाने में संकोच क्यों किया जा रहा है? जातियों के सच को इस तरह छिपाने का कोई मतलब नहीं मानो उनसे भारत के परमाणु ठिकानों की जानकारी सार्वजनिक हो जाने का खतरा हो। अक्सर समस्याएं तब सहज-सरल नजर आने लगती हैं जब उनकी पूरी हकीकत सामने आ जाती है। जातियों का मामला भी ऐसा ही हो सकता है। उनकी सही-सही संख्या, स्वरूप और संरचना एक नई तस्वीर का निर्माण कर सकती है। विभाजन को गहराने वाली चीजों पर पर्दा उठने से मेल-मिलाप का एक नया युग भी आरंभ हो सकता है। 21वीं सदी में भारत इसी का इंतजार कर रहा है। संसद के मानसून सत्र में भूमि अधिग्रहण और जीएसटी पर चर्चा हो न हो, लेकिन जातिगत जनगणना के मसले पर गंभीर विचार-विमर्श जरूर होना चाहिए। आखिर यह भारतीय समाज की बुनियादी तस्वीर का सवाल है। यह तस्वीर ही बता सकती है कि भारत का रूप-स्वरूप कैसा है और इससे भी अधिक यह कि हमारे देश को किस तरह आगे बढ़ना चाहिए। विकास की बात तो इसके बाद ही आएगी। जो लोग जातियों का सच सामने न लाने की वकालत कर रहे हैं उनकी ईमानदारी पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं।
[मनीष तिवारी: लेखक दैनिक जागरण में डीएनई हैं]