सीबीआइ और सरकार
अब तो यह एक तरह से स्पष्ट हो चुका है कि सीबीआइ पूरी निष्पक्षता और स्वतंत्रता से काम नहीं कर पा रही है। इसलिए लोकपाल के समय उभरी बहस का एक बिंदु सीबीआइ की स्वायत्ताता और स्वतंत्रता भी था। यह स्पष्ट है कि यह बहस यहां खत्म होती कतई नजर नहीं आती। एक ऐसे सिस्टम जहां पूर्व सीबीआइ निदेशक राच्यपाल बन जाते हैं, में यह सही ही है कि यह बहस रुके नहीं, बल्कि आगे बढ़े..
कोयला घोटाले पर हाल में हुआ बवाल संप्रग सरकार को और भी ज्यादा शर्मसार कर सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अभी इस मामले की जांच जारी है और कई सारे पहलूओं की पूरी कहानी आनी अभी बाकी है। कुछ दिनों पहले मैं कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के साथ एक इंटरव्यू कर रहा था। उसमें जायसवाल से पूछा गया कि कोयले के मसले पर इंटर मिनिस्ट्रियल ग्रुप यानी आइएमजी बना था और छह महीने के भीतर उसकी 20 मीटिंग हुई थी, लेकिन नवंबर से उसकी कोई भी मीटिंग नहीं हुई तो उन्होंने साफ शब्दों में जवाब दिया कि जिन कोल ब्लॉक के आवंटन की यह समूह समीक्षा कर रहा था उसे अपना काम करने के लिए और समय देने की आवश्यकता थी। वह समय दिया गया। अगर किसी के खिलाफ गड़बड़ियां पाईं गई तो न सिर्फ उसका आवंटन रद किया जाएगा, बल्कि उसकी बैंक गारंटी भी जब्त की जाएगी। ये बातें आपस में इसलिए जुड़ी हैं, क्योंकि एक तरफ सीबीआइ की जांच है और दूसरी तरफ आइएमजी जैसी कमेटी के जरिये भी आवंटित कोल ब्लाकों की समीक्षा चल रही है। आप खुद समझ सकते हैं कि यह मामला कितना गंभीर है और सियासी हलकों में इतनी च्यादा हलचल क्यों पैदा कर रहा है? अब जरा सोचिए कि इन सबके बीच सीबीआइ का वह हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दिया जाना है जिसमें इस एजेंसी के निदेशक मान रहे हैं कि घोटाले की जांच की ड्राफ्ट रिपोर्ट दो संयुक्त सचिवों और कानून मंत्री को दिखाई गई थी।
हम जरा इस मसले में पीछे की तरफ जाते हैं। 8 मार्च को सीबीआइ को अपनी स्टेटस रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपनी थी। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि तब सुप्रीम कोर्ट एक ऐसी पीआइएल की सुनवाई कर रहा था जिसमें साफ तौर पर यह मांग की गई थी कि इस मसले पर एक स्पेशल इंवेस्टीगेशन टीम यानी एसआइटी का गठन हो और उसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट करे। यानी कि यह सवाल तब ही उठ चुका था कि क्या सीबीआइ इस मामले की सही तरह जांच कर सकेगी। उसके बाद अखबार में खबरें आईं कि सीबीआइ की स्टेटस रिपोर्ट को कानून मंत्री और कुछ अधिकारियों को दिखाया गया। यह रपट सीबीआइ ने 8 मार्च को सुप्रीम कोर्ट को एक सील्ड कवर में दी थी। उसके बाद देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि 26 अप्रैल को सीबीआइ सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दे कि क्या यह रिपोर्ट सरकार से जुड़े लोगों के साथ साझा तो नहीं की गई। दूसरी बड़ी बात यहां पर यह है कि तब ही सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ से यह भी कहा आप सिर्फ कोर्ट को रिपोर्ट करेंगे और यही बात आगे आने वाली रपट के साथ भी लागू होगी। अगर शीर्ष अदालत ने इस तरह की बात कही तो आप खुद ही समझ सकते हैं कि वह इस मामले को लेकर कितनी सख्त है।
स्पष्ट है कि अदालत नहीं चाहती कि इस घोटाले की जांच में किसी तरह की लीपापोती होने पाए। अब जब सीबीआइ की ओर से हलफनामा के जरिये यह बताया गया कि उसने मसौदा रपट सरकार से जुड़े लोगों को दिखाई तो बवाल मच जाना बहुत स्वाभाविक है। इस बात ने तुरंत ही विपक्ष और जानकारों को यह सवाल उठाने का मौका दे दिया कि अगर यह रिपोर्ट दिखाई भी गई तो किन वजहों से। अब सवाल यह भी उठता है कि क्या कानून मंत्री अथवा अन्य किसी के कहने पर ड्राफ्ट रिपोर्ट में कुछ बदलाव भी किया गया?
यहीं पर सीबीआइ पर दबाव को देखते हुए सारे विपक्ष को सरकार पर हमले करने का मौका मिल गया। सरकार से यह भी पूछा जा रहा है कि जो बात सर्वोच्च अदालत सीधे और बहुत ही स्पष्ट तरीके से कह चुकी है, क्या उसे नजरअंदाज कर दिया गया? मैं कानून का विशेषज्ञ नहीं हूं, इसलिए यह नहीं कह सकता कि कानूनी तौर पर आगे का रास्ता क्या है, लेकिन सियासी तौर पर सीबीआइ पर लगने वाले आरोप पहले से और च्यादा तीखे हो जाएंगे। सीबीआइ अभी भी देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी है।
कई नेता पहले भी कह चुके है कि चाहे मौजूदा सरकार हो या पहले की भी सरकारें, सीबीआइ का सियासी इस्तेमाल होता रहा है। किसी को इस पर ध्यान देने की जरूरत है कि संस्थानों को प्रजातंत्र में ध्वस्त नहीं होने दिया जा सकता है। संस्थान किसी भी प्रजातंत्र के लिए बहुत जरूरी हैं। एक और बात जो अब लोग लगातार पूछते हैं कि अगर कोई मामला सियासी तौर पर किसी नेता के खिलाफ संवेदनशील नजर आता है तो इस तरह के मामले में क्यों सीबीआइ पर सवाल उठने लगते हैं? कुछ दिन पहले जब संप्रग सरकार द्रमुक से अपने रिश्तों को बचाने की कोशिश कर रही थी तब द्रमुक के नेता स्टालिन के यहां सीबीआइ पहुंच जाती है। यह द्रमुक के औपचारिक तौर पर संप्रग से समर्थन वापस लेने के ठीक एक दिन बाद होता है। स्वाभाविक है कि उस पर बवाल मच जाता है, लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि इस वित्तामंत्री पी. चिदंबरम का बयान आ जाता है कि वह इस तरह के एक्शन को सही नहीं मानते और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कहते हैं कि वह इसके बारे में पता कराएंगे।
मूल सवाल फिर वही है कि अगर सीबीआइ निष्पक्षता से काम करती है तो फिर कहीं भी अगर छापे मारे जा रहे हैं तो उस पर वित्तामंत्री या प्रधानमंत्री को सफाई देने की क्या जरूरत है? देश की सर्वोच्च अदालत ने कई मामलों में सीधे तौर पर सीबीआइ को फटकार लगाई है। इन मामलों में सीबीआइ के कामकाज में संदेह का खड़ा होना महज संयोग नहीं है। अब तो यह एक तरह से स्पष्ट हो चुका है कि सीबीआइ पूरी निष्पक्षता और स्वतंत्रता से काम नहीं कर पा रही है। इसलिए लोकपाल के समय उभरी बहस का एक बिंदु सीबीआइ की स्वायत्ताता और स्वतंत्रता भी था। यह स्पष्ट है कि यह बहस यहां खत्म होती कतई नजर नहीं आती। एक ऐसे सिस्टम जहां पूर्व सीबीआइ निदेशक राच्यपाल बन जाते हैं, में यह सही ही है कि यह बहस रुके नहीं, बल्कि आगे बढ़े। यह जरूरी है कि राजनीतिक लोग इस पर आम राय कायम करें। सीबीआइ को किस तरह सरकार के दखल से मुक्त किया जा सके ताकि देश की शीर्ष जांच एजेंसी घपले-घोटालों की निष्पक्ष तरीके से जांच कर सके और आम जनता का उस पर वह भरोसा फिर से कायम हो जो वर्तमान समय बुरी तरह टूट-फूट चुका है।
[लेखक अभिज्ञान प्रकाश, वरिष्ठ पत्रकार हैं]
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