चीन-पाक का नापाक गठजोड़
चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत द्वारा जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर के खिलाफ पेश प्रस्ताव के पारित होने में अड़ंगा डाल कर एक बार फिर चौंका दिया।
चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत द्वारा जैश-ए-मुहम्मद के सरगना मौलाना मसूद अजहर के खिलाफ पेश प्रस्ताव के पारित होने में अड़ंगा डाल कर एक बार फिर चौंका दिया। एक अर्से पहले चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग की सफल भारत यात्र और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गर्मजोशी भरी चीन यात्र और बड़े निवेश समझौतों के मद्देनजर इसकी उम्मीद कम थी कि चीन पठानकोट हमले के लिए जिम्मेदार एक आतंकी के विरुद्ध कार्रवाई जैसे मुद्दे पर भारत के साथ ऐसा व्यवहार कर सकता है। 2008 में 26/11 आतंकी हमले के बाद सैन्य तनाव की स्थिति में चीन ने हाफिज सईद और जमात-उद-दावा पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा इसी प्रकार की कार्रवाई का विरोध नहीं किया था, लेकिन उसके बाद से वह लगातार लश्कर, जैश और हिजुबल के आतंकियों को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची में डालने के हर भारतीय प्रयास में रोड़े अटकाता रहा है।
चीन और पाकिस्तान का गठजोड़ कोई नई बात नहीं है और भारत दशकों से इस गठजोड़ से दो-चार होता रहा है। पाकिस्तान लंबे समय से भारत को उलझाए रखने की चीनी नीति का मुख्य हथियार रहा है, लेकिन पिछले दशक में पाकिस्तान की आंतरिक अस्थिरता ने बीजिंग को भी चिंता में डाला है। चीन किसी भी हाल में पाकिस्तान को पूर्णत: असफल देश में नहीं बदलने देना चाहता, क्योंकि ऐसा होने पर उसकी भारत को उलझाए रखने की क्षमता में गिरावट आएगी। चीन का अपना एक तरीका है जो अमेरिकी नीति से काफी अलग है। अमेरिका आर्थिक सहायता देकर पाकिस्तानी शासन तंत्र से अपने हित साधने की कोशिश करता रहता है, लेकिन उसकी यह नीति सीमित सफलता ही प्राप्त कर सकी है और पाकिस्तान की जमीन पर पनपने वाले आतंकी लगातार अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी सेना पर हमले करते रहते हैं। इसके विपरीत चीन समय-समय पर पाकिस्तान को मुफ्त की आर्थिक सहायता देने से साफ मना करता रहा है। 2008 में कम ब्याज दरों पर कर्ज पाने की आस में बीजिंग पहुंचे तत्कालीन पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को चीनी नेतृत्व ने खाली हाथ लौटा दिया था। जहां अमेरिका अरबों डॉलर की मदद देकर भी पाकिस्तान में स्थायी जमीनी मौजूदगी नहीं बना पाया वहीं चीन आर्थिक मदद के बजाय चीन-पाक आर्थिक कॉरिडोर के नाम पर करीब 46 अरब डॉलर के निवेश के जरिये पाकिस्तान पर लंबे समय तक बनी रह सकने वाली जमीनी पकड़ सुनिश्चित कर रहा है।
चीन-पाक आर्थिक कॉरिडोर के निर्माण में पाकिस्तान की राजनीति में सबसे अधिक ताकतवर पंजाबी सामंती लॉबी और पाक फौज के व्यापारिक स्वार्थो का पूरा ख्याल रखा जा रहा है। पहले इस कॉरिडोर का खैबर पख्तूनख्वा प्रांत से होकर गुजरना प्रस्तावित था, लेकिन बाद में चीन और नवाज शरीफ सरकार ने मिलकर इस कॉरिडोर का मार्ग बदल दिया। अब यह पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से होता हुआ पाकिस्तान के पंजाब और सिंध को बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से जोड़ेगा, जिसका निर्माण चीन और पाकिस्तान ने किया है। यह नया मार्ग पहले प्रस्तावित मार्ग की तुलना में भारत के कहीं अधिक करीब से गुजरेगा। पश्तून और बलूच नेता इस कॉरिडोर का कड़ा विरोध कर रहे हैं और इसे चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर के बजाय चीन-पंजाब आर्थिक कॉरिडोर बता रहे हैं। गिलगित-बालटिस्तान और पीओके में चीनी निवेश के विरुद्ध एक अर्से से विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं जिन्हें पाक फौज निर्ममतापूर्वक कुचलती रही है। जब इस कॉरिडोर योजना का ऐलान किया गया था तो समझा गया था कि चीन इसके जरिये मलक्का जलडमरूमध्य से होकर गुजरने वाले तेल और गैस आयात के लिए एक नया मार्ग खोज रहा है, क्योंकि मलक्का जलडमरूमध्य को भारत और अमेरिका की नौसेनाएं आसानी से बंद कर सकती हैं। जाहिर है अब यह इससे कहीं बड़ी सामरिक योजना प्रतीत होती है। इसका उद्देश्य आंतरिक असंतोष से उबल रहे पीओके, गिलगित-बालटिस्तान और बलूचिस्तान जैसे इलाकों पर इस्लामाबाद की पकड़ मजबूत करना और भारत पर मनोवैज्ञानिक सैन्य दबाव बढ़ाना है।
पिछले युद्धों के दौरान भारतीय नौसेना पाकिस्तान के कराची बंदरगाह की सफलतापूर्वक नाकेबंदी करती रही है। अब चीनी और पाकिस्तानी रणनीतिकारों को लगता है कि भविष्य में ऐसे किसी तनाव की स्थिति में चीन और पाकिस्तान द्वारा संयुक्त रूप से चलाए जा रहे ग्वादर बंदरगाह की नौसैनिक नाकाबंदी करने से शायद भारत हिचकिचाएगा। पाकिस्तान पीओके का एक भाग पहले ही चीन को सौंप चुका है और अब चीन-पाक आर्थिक कॉरिडोर के जरिये चीनी तकनीकी सैन्य ईकाइयां पीओके के बचे भाग में तैनात की जा रही हैं। हाल में जब-जब चीनी सैन्य टुकड़ियों की पीओके में मौजूदगी के बारे में चीनी सरकार के प्रवक्ताओं से पूछा गया तब-तब वे बड़ी चालाकी से इन सवालों को टाल गए।
पीओके में दखल बढ़ाकर चीन भारत पर सीमा विवाद के मामले में दबाव बना रहा है और साथ ही भारत को पीओके पर दावा करते रहने और वहां की असंतुष्ट जनता की मदद करने से हतोत्साहित करना चाहता है। चीन आजकल कई देशों केसाथ दक्षिण चीन सागर में जलीय विवाद में उलझा है। ऐसे में वह बड़ा थल सैनिक दबाव भारत की ओर लगा रहा है। फिर चाहे पीओके में बढ़ती चीनी सैन्य गतिविधियां हों या फिर तिब्बत में सैनिक ढांचे का तेजी से विकास। सामरिक दृष्टि से यह चीन के लिए हर तरह से व्यावहरिक है। चीन-पाक आर्थिक कॉरिडोर उसको दक्षिण चीन सागर में भी अधिक आक्रामक रुख अख्तियार करने की इजाजत देता है। चीन पाकिस्तान के जरिये इस्लामी जगत में चल रही उथल-पुथल का जहां तक संभव हो प्रबंधन करना चाहता है और इसलिए वह आजकल आइएसआइ समर्थित अफगान तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए प्रयासरत है। इस्लामी दुनिया के दूसरे छोर पर स्थित यूरोप अब आतंकवाद से जूझ रहा है वहीं चीन के ङिानजियांग प्रांत में भी आतंकवाद की समस्या गहरा रही है। ऐसे में चीन इस आग को भारत की ओर मोड़ना चाहेगा। इस रणनीति में चीन का परोक्ष हथियार है पाकिस्तान और पाकिस्तान के परोक्ष हथियार हैं लश्कर, जैश और अफगान तालिबान जैसे आतंकी संगठन। वैसे भी चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इन तत्वों को खुश रखना चीन के लिए आवश्यक है। यह महज संयोग नहीं है कि हाफिज सईद इस कॉरिडोर का बेहद मुखर समर्थन कर रहा है। भारत को इसके गहरे निहितार्थ समझने होंगे।
[लेखक दिव्य कुमार सोती, कॉउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं]