तमाम अटकलों और बहस के बाद कांग्रेस ने जिस तरह राहुल गांधी को अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने के बजाय चुनाव अभियान की कमान सौंपने का फैसला किया उससे इस पर मुहर ही लग गई कि पार्टी अपने सबसे प्रमुख चेहरे को लेकर भी अंत तक दुविधा से मुक्त नहीं हो सकी। माना जा रहा था कि पार्टी कार्यकर्ताओं के दबाव में राहुल गांधी को पीएम पद का उम्मीदवार घोषित कर देगी और शुक्त्रवार को एआइसीसी की बैठक को इसके अवसर के रूप में देखा जा रहा था, लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस राहुल गांधी को चुनाव में अपना चेहरा बनाने तक सीमित रहना चाहती है। राहुल गांधी पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में भले ही न उतरें, लेकिन चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनने के साथ ही वह भाजपा के पीएम पद के उम्मीवाद नरेंद्र मोदी के सामने आ गए हैं। राहुल गांधी को बेहद कठिन हालात में यह जिम्मेदारी मिली है, क्योंकि कांग्रेस के लिए समय बहुत कम रह गया है। तीन माह में कांग्रेस के लिए कमाल कर पाना किसी चमत्कार की तरह होगा। उस पर भी पार्टी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ राहुल गांधी की सख्त छवि को अपने प्रचार का सबसे बड़ा हथियार बनाने का फैसला किया है। यह वह मुद्दा है, जिस पर कांग्रेस को ही सबसे अधिक घेरा जाएगा। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर कांग्रेस खुद ही फिसलन भरी जमीन पर खड़ी हो गई है। उसके लिए कल्याणकारी योजनाओं का सहारा लेना अपेक्षाकृत बेहतर साबित होता, जिनके जरिये पार्टी मतदाताओं को यह संदेश दे सकती थी कि हम अच्छे हों या बुरे, लेकिन हमें राज करना और जरूरतमंद लोगों का ख्याल रखना आता है।

राहुल गांधी की पीएम पद की उम्मीदवारी से फिलहाल कांग्रेस के पीछे हटने से यही पता चलता है कि इस मसले पर पार्टी के नेताओं में किस कदर तीखे मतभेद हैं। पार्टी के भीतर दो समूह हैं। एक समूह चाहता था कि राहुल गांधी के रूप में कांग्रेस को एक ऐसे समय अपना ब्रह्मास्त्र चला ही देना चाहिए जब पार्टी हालिया इतिहास में अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है, जबकि दूसरा समूह राहुल गांधी के नेतृत्व में हार का खतरा उठाने के पक्ष में नहीं है। जब पार्टी नेतृत्व ने पिछले दिनों यह कहा था कि पीएम पद का उम्मीदवार उपयुक्त समय में घोषित किया कर दिया तो इसे एक इशारा माना गया था कि अब मन बना लिया गया है। कांग्रेस पीएम पद की उम्मीदवारी को लेकर लगातार दबाव में घिरी रही-न केवल अपने भीतर से, बल्कि विरोधी दलों, विशेष रूप से भाजपा की ओर से भी। भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी न केवल स्पष्ट रूप से मैदान में हैं, बल्कि उनका चुनाव अभियान भी काफी आगे बढ़ चुका है। मोदी को आगे करने के साथ ही भाजपा इस रणनीति पर चल रही है कि जैसे ही कांग्रेस राहुल गांधी को आगे उतारे तो वह आम चुनाव को अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तर्ज पर दो नेताओं के बीच सीधी टक्कर में तब्दील कर दे।

भाजपा की इसी रणनीति ने कांग्रेस को राहुल गांधी के संदर्भ में बार-बार सोचने के लिए विवश किया। कांग्रेस के पुनर्विचार की झलक दिग्विजय सिंह के इस बयान से भी मिली कि भारतीय लोकतंत्र में पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने की परंपरा नहीं है और निर्वाचित प्रतिनिधि ही अपना नेता चुनेंगे। राहुल गांधी की दावेदारी को लेकर यह एक नया सुर था, जिससे लगा कि कांग्रेस बुरी तरह असमंजस में घिरी हुई है, क्योंकि इसके पहले ज्यादातर बड़े नेता एक सुर से राहुल गांधी को उम्मीदवार घोषित करने की वकालत करते रहे हैं। कांग्रेस के युवा नेता अभी भी यही चाहते हैं कि जब एक तरफ मोदी जैसी चुनौती है तो उनसे टक्कर लेने के लिए कांग्रेस को भी अपना चेहरा दिखाना होगा। इसलिए और भी, क्योंकि नई-नवेली आम आदमी पार्टी की ओर से भी यह संकेत दिया गया है कि लोकसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल उसका मुख्य चेहरा होंगे। केजरीवाल ने इस बारे में भले ही कुछ न कहा हो, लेकिन आप के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव इस तरह का संकेत दे चुके हैं। याद कीजिए एक समय वीपी सिंह भी इसी तरह प्रधानमंत्री बनने से मना कर रहे थे, लेकिन जनता दल के पक्ष में बने माहौल में उन्होंने जनभावनाओं के अनुरूप पीएम पद संभाला।

कांग्रेस के लिए यह वाकई बहुत मुश्किल घड़ी है। पार्टी राजनीतिक रूप से बुरी तरह घिरी हुई है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों तक कांग्रेस को दबाव का सामना करना पड़ रहा है। इसकी एक झलक खुद राहुल गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी में आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास की ओर से दी गई दस्तक से मिलती है। अमेठी में राहुल गांधी की जीत में शायद ही कोई संशय करे, लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर तो असर पड़ ही रहा है।

पार्टी के युवा वर्ग को लगता है कि राहुल गांधी को पूरी तरह सामने लाने के बाद भी अगर 2014 में नहीं जीतते हैं तो कार्यकर्ताओं का मनोबल अगली लड़ाई के लिए बना रहेगा, लेकिन इसके लिए पार्टी को कुछ विशेष रणनीति, नई सोच और नए चेहरे की आवश्यकता है। कांग्रेस ने संभवत: 2014 के आम चुनावों के नतीजों का अनुमान लगा लिया है। इसीलिए उसकी रणनीति सबसे पहले केंद्र में गैर-भाजपा सरकार के गठन की राह तैयार करना है। पार्टी इसी रणनीति के तहत आम आदमी पार्टी की ओर भी देख रही है। आप मोदी की संभावनाओं में खलल डाल सकती है, यह दिल्ली के चुनाव नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है। कांग्रेस की सोच यह भी है कि केंद्र में अगली जो भी गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा सरकार बनेगी वह अल्पजीवी होगी और इस तरह पार्टी को जल्द ही दूसरे राउंड का मुकाबला करने का अवसर मिलेगा।

पार्टी के एक वर्ग को लगता है कि आज के माहौल में इतनी देर हो चुकी है कि जादू की कोई छड़ी ही पार्टी का भला कर सकती है। एक तो संप्रग सरकार के खिलाफ जनता में आक्त्रोश है और दूसरे, कांग्रेस ने अपनी विश्वसनीयता गंवा दी है। इस वर्ग को यह डर सता रहा है कि अगर राहुल गांधी के नेतृत्व में उतरी कांग्रेस सौ से कम सीटों पर सिमट जाती है तो राहुल गांधी की क्षमता पर सवाल खड़े होंगे। फिलहाल यह खतरा उठाने की जरूरत नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल गांधी के संदर्भ में पार्टी का वह खेमा अपनी बात मनवाने में सफल रहा जो फिलहाल अपने सबसे बड़े हथियार को कसौटी पर रखने के लिए तैयार नहीं है। कांग्रेस अब इसी रणनीति पर चलना चाहेगी कि चुनाव तक कुछ न कुछ ऐसा हो जिससे पार्टी के लिए हालात अपेक्षाकृत बेहतर बनें। नि:संदेह यह आसान काम नहीं है, लेकिन पार्टी क्षति की अधिक से अधिक भरपाई के लिए कोई कसर नहीं रखेगी। कांग्रेस की संभावना इसी पर निर्भर करेगी कि वह क्षति की कितनी भरपाई कर पाती है। उसकी निगाह आम आदमी पार्टी पर होगी कि वह ढह जाए अथवा नरेंद्र मोदी कुछ ऐसे आत्मघाती गोल कर लें जो भाजपा के लिए भारी साबित हों।

[लेखिका नीरजा चौधरी, राजनीतिक विश्लेषक हैं]

मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर