क्या अंतरराष्ट्रीय कानून केवल कमजोर देशों के लिए है? मोटे तौर पर 23 नवंबर को चीन द्वारा अपने वायु रक्षा क्षेत्र में विस्तार करने तथा अमेरिका द्वारा भारतीय महिला राजनयिक की हथकड़ी लगाकर गिरफ्तारी और उन्हें नंगा कर तलाशी लिए जाने की घटना के बीच कोई समानता नजर नहीं आती, किंतु असल में ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये घटनाएं अंतरराष्ट्रीय कानून के प्रति इन शक्तियों का रवैया रेखांकित करती हैं।

अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए शक्तिशाली देशों ने एक उचित, नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तैयार की थी। महाशक्तियों द्वारा अन्य देशों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय कानून लागू करने का एक लंबा इतिहास रहा है, किंतु बात जब महाशक्तियों पर नियम लागू करने की आती है तो वे खुद को इनसे ऊपर मानने लगती हैं। लीग ऑफ नेशंस के विफल होने का यही कारण रहा कि उसने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करने वाले देशों को दंडित नहीं किया। आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मनमानी चलाने वालों में अमेरिका और चीन प्रमुख हैं। जहां तक अमेरिका का सवाल है यह अनेक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधियों में शामिल होने से इन्कार कर चुका है। 1982 की यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ द सी और 1997 के यूएन कन्वेंशन लॉ ऑफ द नॉन नेवीगेशनल यूसेज ऑफ इंटरनेशनल वाटरकोर्सेज से लेकर 1998 के इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट स्टेच्यूट का निरादर कर अमेरिका ने एक घटिया उदाहरण पेश किया है। अमेरिका साइबर वारफेयर एंड सर्विलेंस, ड्रोन हमले और विभिन्न देशों में तख्तापलट में लिप्त रहा है। मनमानी अमेरिकी विदेश नीति की विशेषता रही है।

इस बीच उभरती हुई शक्ति चीन दबंगई पर उतर आया है और अंतरराष्ट्रीय कानूनों को धता बताते हुए एशिया में अपनी सीमाओं के विस्तार में जुटा है। चीन भी उन महत्वपूर्ण संधियों में शामिल होने से इन्कार कर चुका है जिनसे अमेरिका अलग है। इनमें इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट स्टेच्यूट और यूएन कन्वेंशन लॉ ऑफ द नॉन नेवीगेशनल यूसेज ऑफ इंटरनेशनल वाटरकोर्सेज शामिल हैं। 1984 में इंटरनेशल कोर्ट ऑफ जस्टिस को लेकर अमेरिका ने जो नजीर कायम की थी बीजिंग उसी पर चलता नजर आ रहा है। ये देश अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जिसकी लाठी उसी की भैंस के सिद्धांत पर चलते हैं। आइसीजे ने माना कि निकारगुआ में विद्रोहियों को समर्थन देने और वहां खनन के लिए अमेरिका दोषी है। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस फैसले के अमल पर रोक लगाते हुए निकारगुआ को हर्जाना देने से इन्कार कर दिया। चीन अभी भी माओ की इस नीति पर भरोसा करता है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। इसलिए चीन सीमा विवादों को हल करने में अंतरराष्ट्रीय कानूनों की रत्ताी भर भी परवाह नहीं करता है। इसका हालिया उदाहरण है दक्षिण चीन सागर में चीन ने अपने वायु रक्षा क्षेत्र में 80 प्रतिशत की वृद्धि कर दी है। चीन ने यूएनसीएलओएस को स्वीकृति इस सूरत में दी कि वह दक्षिण और पूर्वी चीन सागरों में मौजूदा प्रावधानों की मनमानी व्याख्या कर सके। इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल फॉर द लॉ ऑफ द सी में फिलीपींस ने चीन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। ट्रिब्यूनल का जो भी फैसला हो चीन पर कोई भी फर्क नहीं पड़ने वाला। केवल सुरक्षा परिषद ही अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के फैसले को मानने से इन्कार करने वाले देश को फैसला मानने के लिए मजबूर कर सकती है। किंतु संयुक्त राष्ट्र में चीन को वीटो पॉवर उपलब्ध है और वह अपने खिलाफ किसी भी फैसले को लागू होने से रोक सकता है।

नए वायु रक्षा क्षेत्र के माध्यम से बीजिंग जापान और दक्षिण कोरिया के कब्जे वाले इलाकों पर अपना दावा ठोक रहा है। यह एक भड़काऊ घटना है, क्योंकि चीन उन क्षेत्रों तक अपना अधिकार जता रहा है जो उसके नियंत्रण में नहीं हैं। जापान ने अपनी एयरलाइनों को चीन के नए वायु रक्षा क्षेत्र से गुजरने से पहले बीजिंग को पूर्व सूचना देने से इन्कार कर दिया है। इसके विपरीत वाशिंगटन में अमेरिकी हवाई कंपनियों को चीन के नए वायु रक्षा क्षेत्र में उड़ान भरने से पहले बीजिंग को पूर्व सूचना देने को कहा है। इसका भी कारण है। यद्यपि अमेरिकी नीति के अनुसार केवल अमेरिका पहुंचने वाले हवाई जहाजों को ही वाशिंगटन को पूर्व में सूचना देना जरूरी है, लेकिन असल में अमेरिका उन तमाम उड़ानों की पूर्व सूचना हासिल करता है जो उसके वायु रक्षा क्षेत्र से होकर गुजरते हैं। चीन और अमेरिका की तरह अगर अन्य देश भी अंतरराष्ट्रीय वायु क्षेत्रों पर मनमाने दावे करने लगें तो इससे खतरनाक स्थिति पैदा हो जाएगी। बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन तेजी से बढ़ रहे हवाई यातायात की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बेहद जरूरी है। किंतु इस विषय में अमेरिका और चीन पर नियंत्रण कैसे संभव है?

अब भारतीय राजनयिक के मामले पर गौर करें। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भारतीय राजनयिक के साथ हुए व्यवहार को घृणित व बर्बर बताया है। यह सही है कि वाणिच्यिक राजनयिकों को सीमित कूटनीतिक छूट ही हासिल है, किंतु वियना समझौते के अनुसार इन राजनयिकों को हिरासत में रखना वर्जित है, बशर्ते इन्होंने गंभीर अपराध न किया हो। क्या एक राजनयिक और उसकी घरेलू नौकरानी के बीच वेतन का विवाद इतने गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है कि उन्हें गिरफ्तार करने की जरूरत पड़े? क्या अमेरिका अपने किसी अधिकारी के साथ इस प्रकार का व्यवहार बर्दाश्त कर लेगा? अमेरिका कहीं भी चीनी राजनयिक के साथ इस तरह का व्यवहार करने की हिम्मत नहीं कर सकता जबकि चीन राजनयिक भी अपने देश से नौकर लाते हैं। भारत के विपरीत जिसने अमेरिकी राजनयिकों को अतिरिक्त छूटें प्रदान की हुई हैं और अमेरिकी दूतावास की सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस ने बैरिकेड लगाकर सड़क को ही बंद कर दिया है, चीन अब तक अमेरिका को ईंट का जवाब पत्थर से दे चुका होता और चीन में तैनात अमेरिकी राजनयिकों को हवालात भेज चुका होता।

कटु सत्य यह है कि अमेरिका अपने घर में तो वियना संधि की मनमाफिक व्याख्या करता है, किंतु विदेशों में राजनयिक तो दूर अपने जासूसों और ठेकेदारों की भी वियना संधि की आड़ में रक्षा करना चाहता है। 2011 में पाकिस्तान के लाहौर में सीआइए के ठेकेदार रेमंड डेविस ने खुलेआम दो लोगों को मौत का घाट उतार दिया था। अमेरिका ने दावा किया था कि डेविस को मुकदमे की सुनवाई से छूट हासिल है और पाकिस्तान ने उसे अवैध रूप से गिरफ्तार किया है। इस धारणा के बावजूद कि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था कायदे-कानूनों पर आधारित है, सच्चाई यह है कि प्रमुख शक्तियां नियम बनाती हैं और इन्हें लागू करती हैं, लेकिन इनका पालन नहीं करतीं। ये देश अपने हित में अंतरराष्ट्रीय कानूनों की मनमानी व्याख्या कर उनसे फायदा उठाते हैं। नियमों पर आधारित सार्वभौमिक समानता की व्यवस्था अभी भी दूर की कौड़ी नजर आती है।

[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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