हाल में जब डाक्युमेंट्री फिल्ममेकर दीपिका भारद्वाज ने दहेज निरोधक धारा 498 ए के दुरुपयोग के शिकार पुरुषों के मसले को उठाया तो उन्हें देश भर से तमाम लोगों ने संपर्क किया और अपनी पीड़ा बयान की। दीपिका का कहना है कि आजकल पुरुषों के अधिकारों की बात तक करने को मजाक का विषय समझा जाता है, जबकि उन्होंने धारा 498 ए के कारण न जाने कितने लोगों को परेशान होते और अन्याय सहते देखा है। अन्याय जिसके भी खिलाफ हो रहा है उसका जेंडर देखकर आवाज नहीं उठानी चाहिए कि वह स्त्री है या पुरुष। उसके समर्थन में आवाज उठनी चाहिए। 498 ए को अदालतें तक लीगल टेररिज्म बता चुकी हैं। दीपिका का कहना है कि उन्होंने अपने आसपास ही ऐसे न जाने कितने लोगों को देखा है जिन्हें दहेज विरोधी कानून की इस धारा के तहत झूठा फंसाया गया। इसके कारण हजारों लाखों परिवारों के न केवल पुरुष, बल्कि स्त्रियां तक प्रताडि़त हुईं। बड़ी संख्या में महिलाओं को बिना किसी प्रमाण के सिर्फ बहुओं और उनके घर वालों के कहने पर जेलों में ठूंस दिया गया। ऐसा लगता है कि यह मान लिया गया है कि पुरुष या पति और उसके परिवार के लोग हमेशा झूठ ही बोलते हैं और लड़की एवं उसके परिवार वाले केवल सच ही बयान करते हैं। जब दीपिका ने दहेज अधिनियम और खास तौर से इसकी सबसे बुरी धारा 498 ए के बारे में एक डाक्यूमेंट्री बनाने का निर्णय किया तो उनके पास प्रताडि़त पुरुषों की माताओं और बहनों के भी फोन आने लगे। उनके पास सुनाने को एक से एक खौफनाक कहानियां थीं। वे जानना चाहती थीं कि किस तरह वे झूठे आरोपों से बचें, क्योंकि उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही। एक समय था जब किसी महिला पर कोई उंगली उठा दे तो न केवल उसे सच मान लिया जाता था, बल्कि पूरा का पूरा समाज उससे बदला लेने पर उतारू हो जाता था और उस लड़की के परिवार वालों का जीवन दुरूह हो जाता था। उनकी सुनवाई कहीं नहीं होती थी। लगभग यही उंगली उठाऊ अभियान अब तमाम पुरुषों और खास तौर से पति और उसके परिवार वालों को झेलना पड़ रहा है।

सेव इंडियन फैमिली नामक संगठन के हिसाब से 498 ए के कारण हर 21वें मिनट में एक निरपराध महिला पकड़ी जाती है यानी जो कानून महिलाओं की मदद के लिए बनाया गया वह एक महिला के कहने भर से दूसरे परिवार की महिलाओं को सिर्फ इसलिए सताने लगा कि वे पति के परिवार से ताल्लुक रखती थीं। जिसका भी नाम बहू और उसके परिवार के लोग ले देते थे उन्हें पुलिस पकड़ लेती थी। प्रमाण सिर्फ आरोप लगाना भर होता था। ऐसे केसेज भी देखने में आए जहां रिश्तेदार विदेश में रहते थे और फिर भी उनका नाम ले दिया गया। कानून का इस तरह का अपराधीकरण इसलिए भी होता है, क्योंकि हमारे यहां कानून एकपक्षीय हैं। वे बहुत से अन्य देशों जैसे जेंडर न्यूट्रल नहीं हैं। जब भी कानून एकपक्षीय होगा तब वह दूसरे के साथ अन्याय का कारण बनेगा। 498 ए जैसी धारा ने यही किया है।

देखा यह गया है कि एक तरफ दहेज और शादी में दिखावा बढ़ा तो दूसरी तरफ दहेज रोकने के लिए जो कानून बनाया गया वह पति और उसके परिवार से किसी और बात के लिए बदला लेने का बड़ा कारण बन गया। ये कारण दहेज के अलावा ससुराल वालों के साथ न रहना, पति की कम आय, पत्नी के परिवार वालों द्वारा पति से रकम की मांग आदि हैं। इस धारा का दुरुपयोग इतना बढ़ा कि महिला बाल विकास मंत्री मेनका गांधी तक को यह कहना पड़ा कि हमें सिर्फ बहुओं के बारे में ही नहीं, सासों के बारे में भी सोचने की जरूरत है। वे भी महिलाएं हैं। मेनका गांधी की बात सौ फीसदी सच है। महिला की परिभाषा आखिर किस तरह से तय की गई कि उसमें सिर्फ और सिर्फ बहुएं ही आती हैं। परिवार की बाकी औरतों को औरत न मानकर अन्याय करने वाली कैसे मान लिया गया?

बुजुर्गों के लिए काम करने वाली संस्था हैल्पेज की रिपोर्ट देखें तो पाएंगे कि बुजुर्गों के साथ अन्याय के तमाम मामलों में बहुओं का ही नाम आता है और यदि सिर्फ बहू के खिलाफ कोई शिकायत करनी हो तो वह दर्ज नहीं की जाती। उसमें चाहे बेटे ने माता-पिता के साथ कोई बुरा व्यवहार न किया हो, रिपोर्ट लिखवाते वक्त अकेली बहू नहीं बेटे का नाम लिखवाना जरूरी होता है। यह सच है कि दहेज ने न जाने कितनी लड़कियों और परिवारों को सताया है, लेकिन किसी कठोर कानून से दहेज नहीं रुकता, इसका सबसे अच्छा उदाहरण धारा 498 ए है। कोई भी कठोर कानून ऐसे लोगों का हथियार जरूर बनता है जो उसका सहारा लेकर दूसरों को सताने की कोशिश करते हैं। कहा जाता है कि जब इतिहास का पहिया उलटा घूमता है तो कुछ अन्याय तो होता ही है, लेकिन वह अन्याय जिसके प्रति हो, उसकी कोई शिनाख्त भी न हो तो यह किसी भी समाज और खास तौर से लोकतंत्र के लिए बेहद नुकसानदायक बात है। यह सबकी प्रतिज्ञा हो सकती है कि किसी स्त्री को न सताया जाए, मगर किसी स्त्री का ही बहाना लेकर दूसरी स्त्रियों के साथ अन्याय करना किस न्याय की कोटि में आता है?

हाल में दिल्ली की एक अदालत ने एक पुरुष को झूठे यौन अपराध के आरोप से बरी करते हुए कहा था कि ऐसा लगता है कि अब पुरुषों के संरक्षण और उनके सम्मान को बचाने की जरूरत है। खास बात यह है कि यह टिप्पणी एक महिला न्यायाधीश ने की थी। कुल मिलाकर इस पर जरूर सोचा जाना चाहिए कि महिलाओं की मदद करने के लिए जो कानून बने हैं वे उनकी मदद करें, लेकिन वे निरपराधों को फंसाने के मजबूत हथियार न बन जाएं।

[लेखिका क्षमा शर्मा, जानी-मानी साहित्यकार और स्तंभकार हैं]