जगमोहन सिंह राजपूत। सौ वर्ष पहले महात्मा गांधी ने कहा था कि भारतीयों की खुशी के लिए आशा की एकमात्र किरण है शिक्षा के प्रकाश का सभी तक पहुंचना। उनकी प्राथमिकता में ‘पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति’ ही था, जो आज भी देश में है। इसकी खबरें हर दिन पढ़ने को मिलती हैं। हाल में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली के सरकारी स्कूलों की स्थिति के संबंध में सब कुछ वही कहा है, जो शिक्षा से जुड़े लोग लगभग हर अवसर पर अपनी चिंता के रूप में व्यक्त करते रहे हैं।

टूटी मेज-कुर्सियां, अनुपस्थित अध्यापक, अनेक विषय पढ़ाने को मजबूर शिक्षक जैसी कमियों पर अनेक दशकों से चर्चा होती रही है। दिल्ली सरकार ने स्कूल सुधारों के संबंध में बड़ी घोषणाएं की थीं। उनकी प्रशंसा भी होती रही, लेकिन न्यायालय की टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है कि संभवतः प्रयास पर कम, लेकिन प्रचार-प्रसार पर अधिक जोर था। न्यायालय ने शिक्षा सचिव से कहा कि एक क्लासरूम में 146 बच्चे नामांकित थे, क्या इतने बच्चों के साथ न्याय संभव है? जब दिल्ली में यह स्थिति है तो देश के दूसरों हिस्सों के स्कूलों का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।

भारत में सरकारी स्कूल व्यवस्था में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जहां एक अध्यापक सालों-साल एकमात्र शिक्षक रहा होगा। यह निर्णय तो सरकारें ही लेंगी कि शिक्षा के अवसर भारत में अधिक उपलब्ध हैं या फिनलैंड में, जहां के माडल का अनुसरण करने का दिल्ली सरकार का दावा है। पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली में फिनलैंड की शिक्षा व्यवस्था की खूब चर्चा हुई। वहां दिल्ली के कुछ अध्यापकों का प्रशिक्षण भी हुआ। उससे बड़ी उम्मीदें जुड़ीं।

दिल्ली उच्च न्यायालय के आकलन के पश्चात भी आशा बनाए रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं। हालांकि उम्मीदें अक्सर टूटती हैं, लेकिन हम विचलित नहीं होते हैं। देश के अनेक शहरों में सरकारी स्कूलों में बच्चों के आने-जाने के लिए कोई सरकारी बस सेवा तक नहीं है। आखिर गरीब कामगारों के जो बच्चे केवल इस कारण स्कूल नहीं जा पा रहे हैं, उनके आवागमन की चिंता कौन करेगा? वादा तो निश्शुल्क वाहन व्यवस्था का था।

कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालयों और कंपोजिट स्कूलों की स्थापना से भी बड़ी आशाएं थीं, लेकिन इन स्कूलों और अन्य सरकारी स्कूलों के निरीक्षण में पाया गया कि कई जगह नामांकन अपेक्षा से अत्यंत कम हैं। एक कंपोजिट स्कूल में कक्षा एक में केवल छह छात्र नामांकित थे, उपस्थित कोई नहीं मिला। इस स्थिति में मध्याह्न भोजन इत्यादि की क्या व्यवस्था रहती होगी? वरिष्ठ अधिकारी ऐसे अवसरों पर अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं, चेतावनी देते हैं और सारा दोष प्राचार्य या अंतरिम प्रभारी पर थोप देते हैं। इस दयनीय स्थिति को परिवहन व्यवस्था से जोड़कर ओझल कर दिया जाता है।

दशकों से देश में एक-वर्षीय बीएड पाठ्यक्रम उत्तीर्ण कर स्कूल अध्यापक बन जाना एक बड़े वर्ग के युवाओं के लिए लक्ष्य प्राप्त कर संतोषपूर्ण जीवन बिताने का रास्ता खोल देता था। वे प्राथमिक कक्षाओं से लेकर माध्यमिक तक पढ़ाते थे, जबकि उनका प्रशिक्षण केवल माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाने के लिए होता था। प्राइमरी अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए भी अलग व्यवस्थाएं थीं। इनमें सुधार और परिवर्तन भी होते रहे। 1986/92 की शिक्षा नीति में हर जिले में केंद्र द्वारा बड़ी सहायता देकर डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन एंड ट्रेनिंग की स्थापना इस दिशा में बड़ी पहल थी।

अब यह निर्णय लिया जा चुका है कि आगे से एक-वर्षीय पाठ्यक्रम समाप्त कर दिए जाएंगे। उच्चतम न्यायालय ने असमंजस की उस स्थिति का निराकरण कर दिया है, जिसमें पहले से प्राथमिक पाठशालाओं में नियुक्त हजारों बीएड उपाधिधारी सेवा से हटाए जाने वाले थे। व्यावसायिक उपाधियों के संबंध में निर्णय भविष्य को ही नहीं, बल्कि अनेक अन्य सामाजिक और आर्थिक पक्षों को ध्यान में रखकर लिए जाने से उनकी स्वीकार्यता और उपयोगिता दोनों ही साथ-साथ संभाले जा सकते हैं।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेएस वर्मा ने 2012 में अपनी रिपोर्ट में यह तथ्य रखा था कि देश के 10,000 बीएड कालेजों में प्रशिक्षण की गुणवत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा। वे वास्तव में डिग्री बेच रहे हैं। इसे 2020 की नई शिक्षा नीति में भी दोहराया गया। उसमें समाधान भी सुझाए गए। वे कितनी गहनता से लागू किए जा सकेंगे, इस पर यही कहा जा सकता है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षकों के लिए जो चार-वर्षीय प्रशिक्षण प्रारंभ करने की शुरुआत हुई है, वह शिक्षा की गुणवत्ता में अप्रत्याशित वृद्धि कर सकती है। एनसीईआरटी ने अपने चार क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में यह कार्यक्रम प्रायोगिक तौर पर 1964-65 में प्रारंभ किया था। इसमें उत्तीर्ण छात्र-अध्यापक हर जगह सराहे गए। आशा करनी चाहिए कि सभी राज्य सरकारें बिना लाग-लपेट इसे लागू करेंगी और संस्थानों को सभी संसाधन उपलब्ध कराएंगी।

नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन से अनेक आशाजनक संभावनाएं उभरी हैं। इनमें अध्यापक प्रशिक्षण में सुधार अत्यंत महत्वपूर्ण तथा भविष्योन्मुखी है। शिक्षा जगत में ऐसा भी बहुत कुछ है, जिससे छुटकारा पाना आवश्यक है। इसमें सबसे पहले आती है व्यवस्थागत शिथिलता। इसके कारण अधिकांश सुधार केवल कागजों तक रह जाते हैं। यदि शिक्षक प्रशिक्षण पूरी तरह व्यापारियों से मुक्त कराया जा सके, अध्यापकों की नियुक्ति नियमित और समय पर होने लगे तो देश की सकारात्मक ऊर्जा और बौद्धिक संपदा में भारी वृद्धि होगी। ऐसा कर सकने की पूरी क्षमता देश के पास है, बस उसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।

(लेखक शिक्षा, सामाजिक सद्भाव और पंथक समरसता के क्षेत्र में कार्यरत हैं)