नए नजरिये की झलक
वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 45 दिन पुरानी मोदी सरकार का पहला बजट पेश कर केंद्रीय सत्ता के अगले पांच साल के नजरिये को भी स्पष्ट किया। जेटली ने बजट भाषण की शुरुआत यह बताते हुए की कि उन्हें विरासत में जो अर्थव्यवस्था मिली वह आर्थिक बदहाली की कहानी बयान कर रही है और इसका एक बड़ा कारण पिछले शासन में निर्णय लेने की रफ्तार पूरी तरह थम जाना था। उनसे असहमत नहीं हुआ जा सकता, लेकिन नई सरकार के लिए देश के गरीब और मध्य वर्ग के लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतरना एक चुनौती है। यही वर्ग भाजपा को सत्ता में लाने में खास तौर पर सहायक बना है। मुद्रास्फीति की दर को नीचे लाना, रोजगार के अवसर बढ़ाना, आधारभूत ढांचे को मजबूत करना और सरकारी कामकाज का स्तर सुधारना मोदी सरकार के एजेंडे पर शीर्ष पर है। जेटली ने यह सही कहा कि उनके पहले ही बजट से यह अपेक्षा करना सही नहीं कि उसके जरिये सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में किसी भी सरकार के लिए 45 दिन में पांच साल के विकास की रूपरेखा तैयार करना आसान काम नहीं, फिर भी जेटली ने यह चुनौतीपूर्ण कार्य करने की हर संभव कोशिश की। उनके बजट भाषण से यह आभास होता है कि विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज में गुणात्मक सुधार लाकर सरकारी योजनाओं पर बेहतर तरीके से अमल करना उनकी प्राथमिकता है। इसके लिए उन्हें जो तमाम सुझाव मिले उनमें से लगभग डेढ़ सौ को उन्होंने अपने बजट भाषण का भी हिस्सा बनाया। यही नहीं उन्होंने व्यवस्था सुधारने के लिए या तो धन का प्रावधान किया या फिर नई योजना की रूपरेखा सामने रखी।
आम बजट से यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार फिलहाल कोई बहुत बड़े बदलाव की तरफ बढ़ने नहीं जा रही है और उसकी मंशा व्यवस्था में सुधार लाना और प्रशासनिक क्षमता को दुरुस्त बनाना है। वह तमाम छोटे-बड़े कामों और योजनाओं को एक नए नजरिये के साथ पूरा करने के प्रति भी प्रतिबद्ध दिख रही है। बीमा और रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ की सीमा 49 प्रतिशत तक ले जाने और वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताकर सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर साहस दिखाने के साथ अपनी भावी दिशा भी स्पष्ट कर दी है। मोदी सरकार नौकरशाही के कामकाज, खासकर उसके निर्णय लेने की प्रक्त्रिया को दुरुस्त करने पर जिस तरह जोर दे रही है उसका कारण यही है कि पिछली सरकार में अनिर्णय की स्थिति थी और उसके चलते एक के बाद एक फैसले लंबित होते चले गए। इस हालात में यह स्वाभाविक है कि मोदी सरकार का सारा ध्यान नौकरशाही में विश्वास जगाने के साथ पुरानी योजनाओं को नई धार देकर अर्थव्यवस्था में जान फूंकने पर है। अपने बजट भाषण में वित्तामंत्री ने देश को इसके लिए आश्वस्त भी किया कि आने वाले समय में वह फिर से सात-आठ प्रतिशत की विकास दर लाने और मुद्रास्फीति पर लगाम लगाने में सफल होंगे।
देश को जिन क्षेत्रों में मोदी सरकार की नई रणनीतिक सोच का इंतजार है उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य प्रमुख हैं। देशवासी इन क्षेत्रों में बुनियादी बदलाव के साथ यह भी देखना चाहते हैं कि किस मद में कितना धन खर्च करने की तैयारी है? समस्या यह है कि ये दोनों ही विषय राज्यों के अधीन आते हैं। केंद्र सरकार धन आवंटित करने और नीतिगत दिशा तय करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकती। शिक्षा और स्वास्थ्य की ही तरह कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाना और सब्सिडी के बोझ को कम करना भी एक चुनौती है। आम बजट में सब्सिडी में कटौती को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। इस बार मानसून कमजोर रहने की आशंका ने कृषि की समस्याएं और बढ़ा दी हैं। बजट में जल संचयन के मामले को तो उठाया गया है, लेकिन देखना यह है कि सरकार जल की बर्बादी को रोकने और उसके संरक्षण के लिए क्या रणनीति बनाती है? नदियों को जोड़ने की वाजपेयी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना पर नए सिरे से जोर दिया गया है, लेकिन इस एक योजना मात्र से सिंचाई और पेयजल की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। नि:संदेह देश के सामने एक बड़ा मसला नदियों में बढ़ते प्रदूषण का भी है। गंगा की स्वच्छता के लिए सरकार प्रतिबद्ध है। उसने गंगा को निर्मल बनाने के लिए दो हजार करोड़ रुपये के एक नए कोष का एलान भी कर दिया है, लेकिन आखिर अन्य नदियों का क्या होगा? देश की लगभग सभी नदियां प्रदूषण से ग्रस्त हैं और उनकी साफ-सफाई के लिए बड़े पैमाने पर धन की आवश्यकता है। यह धन कहां से जुटेगा और नदी-नालों को साफ करने की जिम्मेदारी आखिर कौन उठाएगा? अभी इस सवाल का जवाब सामने आना शेष है।
किसी भी देश के आर्थिक ढांचे की मजबूती के लिए वित्ताीय ढांचे की मजबूती आवश्यक है। नई सरकार वित्ताीय क्षेत्र में सुधार के लिए प्रतिबद्ध दिख रही है। उसने बैंकों की स्थिति सुधारने के लिए उनमें पूंजी निवेश की राह खोलने का संकल्प लिया है। इसके साथ ही टैक्स के मामले में भी कुछ सुधार किए गए हैं। सरकार ने रोजगार सृजन के लिए सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों के महत्व पर बल दिया है। यह एक सही सोच है। इस श्रेणी के उद्योग कठिन चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं। इनमें से तमाम उद्योग प्रौद्योगिकी और पूंजी के अभाव के कारण बीमार पड़ रहे हैं। सरकार ने इन उद्योगों की चुनौतियों को पूरा करने के लिए एक कमेटी गठित की है। बेहतर होता कि श्रम सुधारों की दिशा में भी आगे बढ़ा जाता, क्योंकि अप्रसांगिक श्रम कानून हर प्रकार के उद्योगों के लिए एक बड़ी समस्या हैं। श्रम कानूनों में बदलाव लाए बगैर उद्योग जगत की समस्याएं दूर होने वाली नहीं हैं। ध्यान रहे कि यदि सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग पटरी पर आ सकें तो वे बेरोजगारी की समस्या को एक बड़ी हद तक दूर करने में सहायक हो सकते हैं।
अगर अरुण जेटली का बजट बहुत आगे की तस्वीर नहीं दिखा रहा तो इसका कारण सरकार की प्राथमिकता तात्कालिक तौर पर स्थिति में सुधार लाना ही है। अपने देश में सरकारी योजनाओं में अरबों रुपये व्यय हो जाते हैं, लेकिन आम जनता को उनका पूरा लाभ नहीं मिल पाता। अगर प्रशासनिक व्यवस्था सुधारने में सफलता मिल जाए तो कम खर्च में बेहतर नतीजे सामने लाए जा सकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के सामने ऐसा करके दिखाने की ही चुनौती है। वित्तामंत्री ने अपने बजट भाषण में लगभग हर क्षेत्र को स्पर्श किया है। विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं के निदान के लिए या तो किसी कमेटी-आयोग के गठन की बात की गई है या फिर नई नीतियां तैयार करने की। इससे यह भरोसा होता है कि समस्याओं के हल की रफ्तार तेज होगी, लेकिन बात तब बनेगी जब इस भरोसे पर खरा उतरा जाएगा। इसके लिए एक तरह से हर दिन ऐसा कुछ होना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलती दिखे। विपक्षी नेता और कुछ अर्थशास्त्री आम बजट को लोक-लुभावने सपनों का मसौदा करार दे रहे हैं, लेकिन ऐसा करते समय वे यह भूल रहे हैं कि इस सरकार का नेतृत्व उन नरेंद्र मोदी के हाथ में है जो अपनी प्रशासनिक दक्षता और नेतृत्व क्षमता का परिचय दे चुके हैं। उन्होंने भारत को बेहतर बनाने का जो संकल्प लिया उस पर जनता ने भरोसा भी किया। नई सरकार की सबसे बड़ी ताकत आम लोगों का मोदी पर किया गया भरोसा ही है और अभी यह अटूट नजर आता है।
[लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के संपादक हैं]