चीन की बढ़ती दबंगई
कुछ लोगों को यह रिपोर्ट अथवा जानकारी आश्चर्यचकित कर सकती है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग के अगले माह भारत की यात्रा पर आने से पूर्व पीपल्स लिबरेशन आर्मी के गश्ती दल ने लद्दाख क्षेत्र में 25 किलोमीटर से अधिक भीतर तक घुसपैठ की है। वर्ष 2006 से ही हर बार किसी उच्चस्तरीय चीनी व्यक्ति अथवा पदाधिकारी की भारत यात्रा से पूर्व चीन की आक्रामक मुखरता देखने-सुनने को मिलती है। 2006 में ही तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिनताओ की यात्रा से पूर्व ऑस्ट्रिया के आकार वाले भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश पर चीन ने अपना दावा पुन: पेश करके पहले से चले आ रहे विवाद को और बढ़ा दिया था। इसी तरह जब तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ 2010 में भारत आए थे, तब बीजिंग ने नत्थी वीजा नीति के माध्यम से जम्मू-कश्मीर पर भारत की संप्रभुता को लेकर सवाल खड़े किए थे।
वास्तव में, वेन जियाबाओ की यात्रा से पूर्व पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में भारत की क्षेत्रीय संप्रभुता को लेकर सवाल खड़े किए गए। इसी तरह प्रधानमंत्री ली कछ्यांग की मई 2013 में भारत यात्रा से पूर्व लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना के काफी अंदर तक चले आने की घटना हुई थी। संभवत: यह भारत द्वारा अपनी सीमा सुरक्षा को अधिक मजबूत किए जाने के संदर्भ में चीनी प्रतिक्रिया अथवा उसके गुस्से को दर्शाता है। अब चीनी राष्ट्रपति शी जिनफिंग की आगामी यात्रा के मद्देनजर लद्दाख क्षेत्र में चीनी सेना के गश्ती दल द्वारा अतिक्रमण और भड़काने वाले बैनर लगाने की घटना सामने आई है। इस बैनर पर लिखा गया कि यह चीनी क्षेत्र है, यहां से चले जाओ। लद्दाख में यह अतिक्त्रमण वहां किया गया जहां चीन-भारत और पाकिस्तान, तीनों देशों की सीमा मिलती है। पिछले वर्ष चीनी सेना के अतिक्त्रमण का मसला हल होने में तीन सप्ताह से अधिक का समय लगा था। अतिक्त्रमण की ये घटनाएं एक खास पैटर्न को दर्शाती है कि चीनी नेताओं की भारत यात्रा नरमी लाने वाली पहल के तौर पर नहीं होती और न ही इससे चीन अपने भूभाग संबंधी दावों को हल्का करता है। वास्तविकता यही है कि इन यात्राओं से चीन अपने दावों को और पुष्ट करता है। हालांकि कुछ भारतीय ही इस दृष्टि को समझ पाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब तक भारतीय नेताओं ने चीन की यात्रा के दौरान भारतीय सद्भाव को ही दर्शाने की कोशिश की है और चीन को रणनीतिक मौके उपहार में दिए हैं।
2003 में अटल बिहारी वाजपेयी ने अद्भुत उदाहरण पेश किया जब उन्होंने भारत के पास मौजूद तिब्बत कार्ड को छोड़ दिया। इस मामले के बाद बीजिंग को एक और मौका मिला और उसने पहली बार अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत का हिस्सा बताकर अपना दावा जताया। बीजिंग में वाजपेयी चीन के समान एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के नेता के तौर पर नजर नहीं आए। वहां वह किसी मध्य एशिया के राष्ट्र के नेता की तरह दिखे। वाजपेयी को मुफ्त में चीन को छूट देने के लिए धन्यवाद देना चाहिए। भारत ने मान्यता की वैधानिक शब्दावली का उपयोग किया जिस पर दोनों देशों के प्रमुखों ने संयुक्त रूप से हस्ताक्षर किए। इसमें चीन द्वारा कहे जाने वाले तिब्बत स्वायत्ता क्षेत्र को चीन के भूभाग के तौर पर स्वीकार किया गया। इस पक्ष पर सफलता हासिल करने के बाद भारतीय भूभाग के संदर्भ में चीन ने पहले से किए जा रहे अपने दावे पर रुख कमजोर नहीं किया। इससे चीन के साथ दीर्घकालिक समझौते की संभावनाएं क्षीण हुईं। कब्जा किए गए चीनी क्षेत्र और जिस भूभाग पर वह दावा करता है, उन दोनों पर ही लेन-देन के आधार पर मसले को समझौते की मेज पर हल किया जाना चाहिए। इस बात को तार्किक आधार पर रखा जाना चाहिए जो पारस्परिक सामंजस्य और समझ पर आधारित हो। इससे पता चलता है कि बीजिंग ने तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार करवाने के लिए भारत के ऊपर काफी राजनीतिक पूंजी का निवेश किया। 1954 में पंचशील समझौते के माध्यम से जो गलती नेहरू ने की थी वाजपेयी ने भी कुछ वैसा ही गलत कदम उठाया। उन्होंने अप्रत्यक्ष तौर पर तिब्बत से चीन के जुड़ाव को स्वीकार किया या कहें उस समय वाजपेयी ने भारत-तिब्बत सीमा की चीनी स्वीकृति की इच्छा पूरी कर दी।
पंचशील समझौते के तहत भारतीय संबंधों को चीन के तिब्बत क्षेत्र के तौर पर उल्लिखित किया गया है। इस तरह भारत ने ब्रिटिश काल में उत्ताराधिकार के तौर पर मिले तिब्बत के सभी अतिरिक्त भूभागीय अधिकारों और विशेषाधिकारों को खो दिया, जब उसने तिब्बत से अपनी सैनिक उपस्थिति को खत्म करने और इसे चीन के हवाले करने का निर्णय लिया। वास्तव में बीजिंग के साथ 1960 से पूर्व भारत सीमा समझौते को लेकर आक्त्रामक के बजाय रक्षात्मक मुद्रा में रहा है। इस क्रम में 1954 में चीन के तिब्बत क्षेत्र शब्द को औपचारिक स्वीकृति देकर भारत ने अपनी मजबूत स्थिति गंवा दी थी। चीनी भूभाग के रूप में तिब्बत को भारतीय मान्यता मिलने के बाद बीजिंग को अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत का हिस्सा होने का दावा करने का मौका मिला। यह शब्दावली 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिनताओ की यात्रा से पूर्व नहीं थी और इसे पहली बार चीनी सरकार ने प्रयोग किया।
यह विडंबना ही है कि मोदी सरकार ने उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को पंचशील समझौते की 50वीं वर्षगांठ में हिस्सा लेने के लिए बीजिंग भेजा। आखिर भारत को एक ऐसे समझौते का उत्सव क्यों मनाना चाहिए, जिसका इस्तेमाल चीन चकमा देने और हमें दबाने के लिए करता है? अंसारी के साथ वाणिच्य मंत्री निर्मला सीतारमन भी गई थीं, जिन्होंने चीन द्वारा भारत में औद्योगिक पार्क बनाने के समझौते पर हस्ताक्षर किए। चीन के साथ असमान व्यापारिक रिश्ता भारत पर उसके बड़े रणनीतिक दबाव को दर्शाता है। बीजिंग की रणनीति यही है कि भारत को चीन के प्रतिस्पर्धी के तौर पर उभरने न दिया जाए। औद्योगिक पार्क समझौते के माध्यम से चीन व्यापार क्षेत्र में अधिक लाभ अर्जित करना चाहता है और साथ ही भारत पर सैन्य दबाव बनाए रखना चाहता है।
शी जिनफिंग के नेतृत्व में चीन यही दिखा रहा है कि वह पड़ोसी देशों के साथ सीमा संबंधी दावों को हल करने के पक्ष में है, लेकिन सही या गलत तरीकों से चीनी राष्ट्रपति चीन के दावों को दोहराते रहेंगे और यह उनके लिए फायदेमंद है। इस संदर्भ में भारत को गैरसैनिक कूटनीतिक विकल्प तिब्बत को चीनी हिस्से के तौर पर मानने पर पुनर्विचार से लेकर आर्थिक उपायों तक पर जोर देना चाहिए। भारत को चाहिए कि वह चीनी बाजार पर पहुंच कायम करने के साथ ही राजनीतिक, क्षेत्रीय और जलविवाद जैसे मसलों पर आगे बढ़े। हमें चीन द्वारा किए जा रहे अतिक्रमण के मुद्दे को भी उठाना चाहिए। भारत को चाहिए कि वह अपनी सैन्य टुकड़ियों को चीन द्वारा कब्जाए गए भूभाग में भेजने की इच्छाशक्ति दिखाए, जिसे चीन अत्यधिक रणनीतिक महत्व देता है।
[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]