मालदा में हुई हिंसा ने असहिष्णुता बनाम सहिष्णुता को लेकर बहस चलाने वालों के चेहरों से छद्म पंथनिरपेक्षता के नकाब को उतार दिया है। दादरी की घटना के बाद पूरे देश में असहिष्णुता को लेकर जो लहर चलाई गई थी वह मालदा की घटना से पूरी तरह अप्रभावित दिख रही है। एक हिंदू संगठन के कथित सदस्य के महज एक आपत्तिजनक बयान के विरोध में जिस तरह लाखों लोगों ने इकट्ठा होकर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया उसे किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। मालदा के कलियाचक में इकट्ठा हुई उग्र भीड़ ने न केवल एक पुलिस थाने को तहस-नहस कर दिया, बल्कि सरकारी संपत्ति समेत कई निजी वाहनों और उस क्षेत्र में अल्पसंख्यक की हैसियत वाले हिंदुओं के घरों और दुकानों में भी लूटपाट की। इस हिंसा ने ममता सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। पश्चिम बंगाल में लंबे समय तक चले वामपंथी शासन के वक्त से ही तुष्टीकरण को लेकर वहां सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि तृणमूल सरकार इस मामले में अपनी पूर्ववर्ती सरकार को भी पीछे छोड़ रही है। अपने वोट बैंक की खातिर ममता सरकार मुस्लिम तुष्टीकरण के किसी भी अवसर को मानों छोडऩा नहीं चाहती। फिर वह चाहे मालदा में महिला फुटबाल मैच को महज एक फतवे के चलते रद कराना हो या फिर ईद की वजह से दुर्गा पूजा के विसर्जन को एक दिन आगे के लिए टाल देना।

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने जिस कांग्रेस की कोख से जन्म लिया है वह देश में वर्षों से वोट बैंक के लिए तुष्टीकरण की राजनीति करती रही है। पश्चिम बंगाल भी इस देश में नकली पंथनिरपेक्ष राजनीति का केंद्र बना हुआ है। मालदा की घटना पर देश भर में छाई चुप्पी कई अहम सवाल खड़े कर रही है। पहली बात, मीडिया कवरेज में इस पूरे घटनाक्रम का गायब रहना। दूसरा, राजनीतिक दलों की चुप्पी और तीसरा, देश के बुद्धिजीवी वर्ग का इस पूरे मसले पर मौन। दादरी की जिस घटना के बाद मीडिया के एक बड़े हिस्से, विपक्ष और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने जिस तरह भाजपा और केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया था, आज वही लोग मालदा की घटना को लेकर आंखें बंद किए हुए हैं। यहां तात्पर्य दादरी की घटना को सही ठहराना नहीं है, लेकिन मालदा में जिस तरह उग्र भीड़ ने एक बेजा बयान पर हिंसक तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त की उस पर उपरोक्त तीनों वर्गों का चुप्पी साध जाना स्पष्ट करता है कि वास्तव में असहिष्णुता कहां है? एक बयान के बाद लाखों की भीड़ का जुटना और बाद में उसका हिंसा पर आमादा हो जाना यह बताता है कि किस तरह तुष्टीकरण की राजनीति देश को एकजुट रखने की कोशिशों को विफल कर रही है।

मालदा की घटना को मीडिया में जिस तरह लुका-छिपाकर कवर किया गया उस पर कहीं गंभीर सवाल खड़े होते हैंं। देश के एक बड़े हिस्से को इस घटना के बारे में सही जानकारी तो क्या सूचना तक नहीं मिल पाई। राष्ट्रीय मीडिया के एक बड़े हिस्से ही नहीं पश्चिम बंगाल के कई स्थानीय चैनलों ने भी इस घटना से दूरी बनाए रखी। कहा जा रहा है कि राज्य में शांति और सद्भाव बनाए रखने के नाम पर मीडिया ने पश्चिम बंगाल में इस घटना से दूरी बरती। क्या मीडिया पर ममता सरकार की तरफ से कोई दबाव था, जबकि इसी मीडिया ने दादरी को अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुद्दे में परिवर्तित कर दिया था। पीडि़त वर्ग की आवाज को जगह न मिलना और पूरे देश के सामने मालदा हिंसा का सच सामने न आने देने की कोशिश आखिर क्या इशारा करती है। कुछ दिनों पहले मालदा में ही महिलाओं के एक फुटबाल मैच को पश्चिम बंगाल की सरकार ने केवल इसलिए रद करा दिया था, क्योंकि वहां के एक मौलवी ने महिलाओं के फुटबाल खेलने को मजहब के खिलाफ बताया था और फतवा जारी किया था। इसी तरह एक दुर्गा पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन और ईद का त्योहार एक ही दिन होने के कारण हिंदुओं की भावनाओं को दरकिनार करते हुए केवल इसलिए एक दिन आगे खिसका दिया गया, क्योंकि मुस्लिम संप्रदाय की तरफ से ऐसा करने को कहा गया था। अभी हाल में जब एक मदरसा अध्यापक ने राष्ट्रगान को मदरसों में अनिवार्य करने की पेशकश की तो उसे फजीहत का सामना करना पड़ा, परंतु अपने को सेक्युलर कहने वाली तृणमूल सरकार की मुखिया के कान में जूं तक नहीं रेंगी। मालदा की घटना उन बुद्धिजीवियों के मुंह पर भी तमाचा जिन्होंने दादरी की घटना को हिंदू अतिवाद की संज्ञा देते हुए देश में असहिष्णुता का विवाद खड़ा किया था। पुरस्कार वापस करने वाले तमाम बुद्धिजीवी मालदा की घटना पर पूरी तरह चुप्पी साधे हैं। इन बुद्धिजीवियों का यह व्यवहार इसकी पुष्टि करता है कि पुरस्कार वापसी केवल आत्मचिंतन से नहीं उपजी थी, बल्कि उसकी जड़ें बिहार चुनाव से जुड़ी थीं।

पश्चिम बंगाल में जिस तरह बीते 30-35 वर्षों में आबादी की स्थितियों में बदलाव आया है या आने दिया गया है वह इस राज्य में शासन कर रहे राजनीतिक दलों की वोट बैंक की राजनीति का ही परिणाम है। इसमें कांग्रेस से लेकर वामपंथी दलों तक की भूमिका अहम रही है। बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल और असम में आने वाले अवैध प्रवासियों पर इन दलों की चुप्पी ने देश के समक्ष गंभीर समस्या खड़ी कर दी है। इन दोनों राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों में जनसंख्या का समीकरण तेजी से बदला है। सत्ता पर काबिज रहने की इन दलों की लालसा, जिनमें अब तृणमूल भी जुड गई है, ने इन दोनों प्रांतों में भारी असंतोष पैदा किया है। दादरी की घटना की प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष समेत अन्य पार्टी नेताओं ने भी आलोचना की थी, लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला गया और असहिष्णुता के मुद्दे को बेवजह तूल देते हुए देश को बदनाम करने की कोशिश की गई। मालदा की घटना पर ममता बनर्जी को तो छोड़ दें तो किसी अन्य ने भी कोई सवाल उठाना उचित नहीं समझा है।

[लेखक डॉ. देवेंद्र कुमार, शोध संस्था आरडीआई के निदेशक हैं]