भारत के लिए निर्यात का परिदृश्य लगातार निराशाजनक होता जा रहा है। निर्यात में गिरावट ने कई सवाल खड़े किए हैं। मार्च 2015 में वर्ष 2014 के इसी माह की तुलना में निर्यात में 21.1 फीसद की गिरावट दर्ज की गई। फरवरी माह में भी इसमें 15 फीसद की गिरावट रही और इस प्रकार लगातार चौथे माह निर्यात में गिरावट आई। लगातार आठ माह के क्रम में फरवरी माह में तेल निर्यात में गिरावट दर्ज की गई। गैर-तेल निर्यात में भी गिरावट का सिलसिला कायम है। पूरे वर्ष के आधार पर देखें तो जहां 2015 में निर्यात में अभी तक 1.2 फीसद की गिरावट रही वहीं 2014 में इसमें 4.6 फीसद का इजाफा हुआ था।

इस गिरावट का प्रतिकूल असर औद्योगिक और विनिर्माण क्षेत्र में अधिक हुआ है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया अभियान के उद्देश्यों के विपरीत है। इस संदर्भ में 2015 से 2020 के लिए इसी माह केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा विदेश व्यापार नीति (एफटीपी) की घोषणा चौंकाने वाली रही, जिसमें निर्यात को गति देने और उसमें विस्तार के लिए न तो आक्रामकता और न ही बेहतर रणनीति नजर आई। विदेश व्यापार नीति 66 पन्नों का दस्तावेज है, जिसमें वास्तविक नीतियों के लिए अलग से 159 पन्ने और हैं। इन तमाम प्रयासों के बावजूद यह वाणिज्य मंत्री के उस उद्देश्य को पूरा नहीं करती जिसके मुताबिक बाहरी व्यापार माहौल के साथ-साथ भारत को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के अगले चरण में ले जाने और चुनौतियों का सामना करने में समर्थ बनाने का सपना देखा गया है।

विदेश व्यापार नीति सही दिशा में होने के बावजूद साहसिक नए कदमों की शुरुआत के बजाय क्रमिक और सामान्य बदलावों की बात करती है। विश्व व्यापार में महज 2 फीसद की भागीदारी के साथ भारत वैश्विक नेता नहीं बन सकता। यह भागीदारी 3.5 फीसद हो सकती है यदि विदेश व्यापार नीति के तहत व्यापार और सेवा क्षेत्र के कुल निर्यात को वर्ष 2013-14 में 465.9 अरब डॉलर के मुकाबले कुल निर्यात को 2020-2021 तक 900 अरब डॉलर पहुंचा दिया जाए। हालांकि निर्यात के क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति बनने के लिए यह भी पर्याप्त नहीं होगा। हमें अधिक बेहतर करना होगा और 15 फीसद की वार्षिक निर्यात वृद्धि दर हासिल करनी होगी, लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह सुनिश्चित करना है कि निर्यात में वर्तमान गिरावट की स्थिति को बदला जाए।

2005-06 और 2010-11 में भारतीय निर्यातकों ने 21 प्रतिशत निर्यात वृद्धि दर हासिल की थी, लेकिन अब 15 प्रतिशत विकास दर की ही बात की जा रही है। यह उस मानक से काफी कम है। 2003 से 2010 की अवधि में चीन का निर्यात 438 अरब डॉलर से बढ़कर 1578 अरब डॉलर हो गया, जो वार्षिक वृद्धि दर के हिसाब से 30 फीसद से भी अधिक बैठता है। इसके परिणामस्वरूप चीन का निर्यात 2013 में 2.2 ट्रिलियन डॉलर पहुंच गया जो वैश्विक व्यापार का 11.7 फीसद बैठता है। इस स्तर पर देखें तो चीन भारत के कुल निर्यात से पांच गुना अधिक का निर्यात करता है। स्पष्ट है कि विदेश व्यापार नीति में सतर्क रहते हुए लक्ष्य को निर्धारित किया गया है जो रोजगार सृजन की जरूरतों को देखते हुए भारत की पूर्ण क्षमता पर ध्यान नहीं देता और न ही इसमें घरेलू विनिर्माण क्षमता विस्तार पर पर्याप्त ध्यान दिया गया है।

विदेश व्यापार नीति में निर्यातकों को पुरस्कृत करने अथवा लाभ पहुंचाने के लिए कुछ ऐसे कदमों को शामिल किया गया है जो तंत्र को सरल-सहज बनाते हैं। पहली बात, इसमें भारत से वस्तु व्यापार और सेवा निर्यात पर ध्यान दिया गया है। इसके लिए तमाम योजनाओं को एक व्यवस्था के तहत साथ लाया गया है। दूसरी बात, इस प्रकार के लाभ विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) की इकाइयों को भी हासिल होंगे। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विनिर्माण क्षेत्र के निर्यातक भी भारत केअपने सामानों का स्व प्रमाणन कर सकेंगे। चौथी बात यह है कि चार निर्यात संवद्र्धन योजनाओं के तहत काम करने वाली निर्यात इकाइयां फास्ट टै्रक सुविधा का लाभ उठा सकेंगी। उन्हें बुनियादी ढांचे संबंधी सुविधाएं मिलेंगी और अपने निकटस्थ क्षेत्र में चुने हुए बंदरगाह पर गोदाम बनाने की अनुमति होगी। इसी प्रकार अन्य अनेक तमाम अप्रत्यक्ष सुविधाएं दी गई हैं।

विदेश व्यापार नीति को बनाने में नौ महीने का समय लगने के बाद भी ऐसी कई जानी-पहचानी बाधाएं-समस्याएं हैं, जिनका समाधान किया जाना अभी शेष है। विशेष आर्थिक क्षेत्र को लगातार मैट यानी न्यूनतम वैकल्पिक कर की समस्या से जूझना पड़ रहा है। लघु, सूक्ष्म और मध्यम उद्योगों (एमएसएमई) के निर्यातकों को न तो अभी तक इंस्पेक्टरराज से मुक्ति मिल पाई है और न ही बैंकों से मिलने वाले अधिक कर्ज के लिए कोई विशेष आश्वासन दिया गया है। अभी तक निर्यात उन्मुख एफडीआइ लाने और बुनियादी ढांचे की कमजोरियों को दूर करने की दिशा में कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया है। विदेश व्यापार नीति व्यापार की समस्याओं के समाधान के लिए महानिदेशालय को गठित करने के लिए कोई तिथि नहीं बता सकी है।

इसी प्रकार यह प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय व्यापार शोध केंद्र के बारे में कुछ विशेष ब्यौरा देने में असफल है। इसके अतिरिक्त विदेश व्यापार नीति में तीन बातें अनुपस्थित हैं। प्रथम, भारत में विदेशी पर्यटन को बढ़ावा देने के संदर्भ में कोई नीति नहीं दिखती। भारत में प्रतिवर्ष महज 75 लाख विदेशी पर्यटक आते हैं। रोजगार विस्तार संभावनाओं की दृष्टि से इस क्षेत्र में भारत पिछड़ रहा है। दूसरी बात, विनिर्माण उत्पादन में एमएसएमई क्षेत्र की भागीदारी 45 फीसद है और कुल निर्यात में यह 40 फीसद योगदान देता है, लेकिन इसके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। तीसरी बात, एफटीपी निर्यात संवद्र्धन और संस्थाओं में सुविधाओं की बात से दूर नजर आती है। पर्यटन, विनिर्माण अथवा लघु, सूक्ष्म और मध्यम उद्योगों (एमएसएमई) अलग-अलग मंत्रालयों में आते हैं।

यह विदेश व्यापार नीति के अपने खुद के बयानों और लक्ष्यों से मेल नहीं खाता है। विदेश व्यापार नीति के मुताबिक पूरी सरकार की कोशिश विशेष तौर पर निर्यात गतिविधियों पर केंद्रित होगी। यह अधिक अच्छा होता यदि विदेश व्यापार नीति के अपने घोषित लक्ष्यों के मुताबिक निर्यात विस्तार के लिए अन्य मंत्रालयों को भी साथ लाया जाता हैै, जिसमें पर्यटन, दस्तकारी, टेक्सटाइल, आइटी सेवा और सूक्ष्म एवं लघु उद्योग मंत्रालय शामिल हैं।

जो भी हो, व्यापार नीति ने एक बार फिर यह साबित किया है कि सरकार नए साहसिक दृष्टिकोण की ओर बढ़ने के बजाय छोटे-छोटे सुधारों से काम चलाना चाहती है। सरकार का यह तौर-तरीका निर्यातकों का मोह भंग कर सकता है। वे भारत की गंभीर होती रोजगार चुनौतियों के संदर्भ में मोदी सरकार से बिना किसी देरी के नई नीतियों की अपेक्षा कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया अभियान के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए विदेश व्यापार नीति की तत्काल समीक्षा की जरूरत है और इसमें देरी उचित नहीं।

राजीव कुमार

(लेखक सेंटर फार पालिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं)