ईरान में भारत के हित
पंद्रह साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहरी वाजपेयी ने ईरान का सफल द्विपक्षीय दौरा किया था। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान भारत-ईरान के संबंधों और भारत की संस्कृति पर ईरान की संसद में प्रभावशाली भाषण दिया था।
पंद्रह साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहरी वाजपेयी ने ईरान का सफल द्विपक्षीय दौरा किया था। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान भारत-ईरान के संबंधों और भारत की संस्कृति पर ईरान की संसद में प्रभावशाली भाषण दिया था। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22-23 मई को ईरान के द्विपक्षीय दौरे पर जाने वाले हैं। इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2012 में तेहरान में आयोजित गुट निरपेक्ष देशों के सम्मेलन में शिरकत की थी। उन्होंने इस सम्मेलन से इतर ईरानी नेताओं से वार्ता भी की थी, लेकिन ऐसी वार्ता द्विपक्षीय दौरे का स्थान कभी नहीं ले सकती। जाहिर है कि भारत और ईरान के संबंधों में शीर्ष स्तर पर पैदा हुई संवादहीनता को दूर करने में मोदी की यह यात्रा सहायक बनेगी। उम्मीद है कि तेहरान में उनका स्वागत-सत्कार वाजपेयी की तरह ही होगा। इस यात्रा की पूरी तैयारी हो चुकी है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी द्विपक्षीय संबंधों में खासा मायने रखने वाले दो क्षेत्रों-कनेक्टिविटी और ऊर्जा के मुद्दे पर चर्चा के लिए हाल के महीने में ईरान हो आए हैं। सुषमा स्वराज ने अफगानिस्तान से लेकर इराक, सीरिया और उत्तरी अफ्रीकी देशों तक फैले इस क्षेत्र की स्थिति पर व्यापक विचार विमर्श किया था। इस क्षेत्र के हालात पर चर्चा के पहले दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों की मौजूदा स्थिति पर विचार करना जरूरी है।
वर्तमान में दोनों देशों को कनेक्टिविटी, ऊर्जा और व्यापार पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। भारत के सहयोग से मुक्त व्यापार और निवेश जोन सहित दक्षिण-पूर्व ईरान में चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए दोनों देश दो दशक से वार्ता करते आ रहे हैं, लेकिन अभी भी इसे वास्तविक रूप नहीं दिया जा सका है। भारत ने संकेत दिया है कि वह इस उद्देश्य के लिए करीब 20 अरब अमेरिकी डॉलर निवेश करने का इच्छुक है। चाबहार बंदरगाह सहित अफगान की सीमा तक सड़क और रेलवे का विकास होने से अफगानिस्तान और पूरे मध्य एशिया में भारत की पहुंच सुनिश्चित होगी। भारत पहले ही ईरान-अफगान सीमा पर जरांग से दिलराम तक रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण 200 किमी से ज्यादा लंबी सड़क बना चुका है। भारत, अफगानिस्तान और ईरान के बीच एक त्रिपक्षीय समझौते को भी अंतिम रूप दिया जाना है और मोदी के उच्च स्तरीय दौरे के दौरान इस पर हस्ताक्षर होने की संभावना है। इसके लिए अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी भी तेहरान का दौरा कर सकते हैं। यह भारतीय कूटनीति की उपलब्धि मानी जाएगी। ऊर्जा के क्षेत्र में कुछ प्रगति होने की उम्मीद है। हाल के वर्षों में ईरान तेल और गैस का भारत का प्रमुख आपूर्तिकर्ता रहा है।
हालांकि अतीत में ईरान के खिलाफ अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों के कारण आपूर्ति में थोड़ी गिरावट आई, लेकिन अब सारे प्रतिबंध हटा लिए गए हैं, लिहाजा ईरान के पेट्रो केमिकल सेक्टर में भारत की भागीदारी के अवसर बढ़ गए हैं। उम्मीद है कि कुछ पुरानी समस्याएं खासकर फरजाद ऑयलफील्ड पर भारत के नियंत्रण संबंधी दिक्कतें दूर कर ली जाएंगी। प्रतिबंधों के हटने के बाद ईरान की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे मजबूत होगी। ईरान में बदले माहौल ने भारतीय निर्यात के लिए बड़े अवसर खोले हैं। भारतीय कंपनियों को ईरान के बाजार में प्रभावी रूप से कदम बढ़ाने की जरूरत है। भारतीय कारोबारियों के प्रयासों का मोदी ने हमेशा ही समर्थन किया है। अब भारत की आर्थिक कूटनीति का परिणाम निर्यात में बढ़ोतरी के रूप में दिखना चाहिए। भारत और ईरान, दोनों क्षेत्र में स्थिरता वापस लाना और आइएस जैसे आतंकी समूह का खात्मा करना चाहेंगे। ईरान परमाणु समझौते के बाद इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है, लेकिन सऊदी अरब के नेतृत्व वाले अरब देश तुर्की की तरह ही उसका विरोध कर रहे हैं। मोदी संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब का दौरा कर चुके हैं। खाड़ी के दूसरे देशों के साथ-साथ इन दोनों देशों में भी भारत के हित निहित हैं। उन दौरों के वक्त दोनों देशों ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई और इस क्षेत्र में शांति एवं स्थिरता बहाली की दिशा में सहयोग देने सहित सभी क्षेत्रों में भारत से मजबूत संबंध विकसित करने के साफ संकेत दिए थे।
पाकिस्तान से करीबी संबंध होने के बावजूद सऊदी अरब और यूएइ भारत से अपने संबंधों को मजबूत करना चाहते हैं। अपनी तरफ से मोदी ने इस क्षेत्र की राजनीति में फंसने के बजाय उससे दूरी बनाकर अच्छा किया। उन्होंने इन देशों से द्विपक्षीय स्तर पर ही संबंधों को आगे बढ़ाया। भारत के हितों को साधने का यही सर्वोत्तम तरीका है। इस क्षेत्र में राजनीतिक गतिविधियां ईरान द्वारा अमेरिका की अगुआई वाले एक समूह के समक्ष अपने परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लिखित में हामी भरने के बाद तेज हुई हैं। इसी के बाद ईरान पर लगे तमाम प्रतिबंध खत्म हुए और दूसरे देशों से उसके व्यापार आरंभ हुए। अब यूरोप और ईरान के दूसरे सहयोगियों में काफी उत्साह है, खासकर ऊर्जा क्षेत्र में सहयोग को लेकर। इससे ईरान के आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है। उसे लगता है कि इस तरह वह इस क्षेत्र में स्वयं को न सिर्फ खड़ा करने, बल्कि शिया मुस्लिमों के हितैषी के रूप में पेश करने में सफल होगा। सबसे ज्यादा शिया मुस्लिम आबादी वाला देश ईरान स्वयं को विश्व भर में फैले शिया मुस्लिमों का अभिभावक मानता है। इसी कारण उसने शिया बहुल इराक, लेबनान और शिया असद परिवार के शासन वाले सीरिया में हस्तक्षेप किया है। यमन में ईरान का प्रभाव बढऩे के भय ने सऊदी अरब को वहां सशस्त्र हस्तक्षेप करने का अवसर दिया और अब वह हिंसा से ग्रस्त है। यह सब इजरायल सहित दूसरे सुन्नी अरब देशों और सऊदी अरब के साथ ईरान के सीधे टकराव का कारण बना है। इन सभी देशों द्वारा भारत को प्रभावित करने के लिए सधे कदमों से चतुराई भरा कूटनीतिक खेल खेला जा रहा है। ईरान भी ऐसा करने का प्रयास करेगा। इसमें संदेह नहीं कि मोदी यही संदेश देंगे कि भारत शांति का पक्षधर है।
हाल में ईरान के राष्ट्रपति हसन रुहानी ने पाकिस्तान का दौरा किया था। उसी दौरान पाकिस्तान यह दुष्प्रचार कर रहा था कि उसने चाबहार में सक्रिय जिस रिटायर्ड भारतीय नौसेना अधिकारी कुलभूषण जाधव को गिरफ्तार किया है वह भारत का जासूस है जो बलूचिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था। रुहानी के दौरे के वक्त ही उनसे पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ ने कथित रूप से यह शिकायत की कि भारत पाकिस्तान में अवैध गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए ईरान की जमीन का इस्तेमाल कर रहा है। रुहानी ने न सिर्फ इसे नजरअंदाज किया, बल्कि पाकिस्तान के रवैये पर नाराज भी हुए। जाहिर है कि ईरान भारत-पाकिस्तान के झगड़े में नहीं पडऩा चाहता है। यही भारत भी चाहेगा।
[ लेखक विवेक काटजू, विदेश सेवा के पूर्व अधिकारी और एशियाई मामलों के विशेषज्ञ हैं ]