पर्यावरण को लील रहा शहर का दायरा, नुकसान की मुख्य वजह अनियोजित शहरीकरण
शहरीकरण से पर्यावरण को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है।
Abhishek Pratap Singh Mon, 22 Jan 2018 10:05 AM (IST)
style="text-align: justify;">नई दिल्ली, [पंकज चतुर्वेदी]। संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि 2050 तक भारत की 60 फीसद आबादी शहरों में रहने लगेगी। वैसे भी 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल 31 फीसद आबादी अभी शहर में निवास कर रही है। साल दर साल बढ़ती गरमी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल, ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं कोई पेड़ लगा कर धरती को बचाने का संकल्प ले रहा है तो वहीं जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय के तौर लगभग उपेक्षित है।
असल में, संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का; सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता। अपने देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति का नतीजा है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है, जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गई है।
पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए।
शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए। इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्नोत, सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है, जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। दिल्ली, कोलकाता,पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है।
मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरु में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्नोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा।
ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण है। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्र, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का ही दुखद परिणाम है कि तकरीबन सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए।
गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख के केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है। शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होते हैं, यहां दूषित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है। देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
असल में, शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह परिपाटी पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम आपूर्ति।
(लेखक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)
यह भी पढ़ें: बेजोड़ कामयाबी: समाज की खींची लकीरों से आगे निकल आसमान छू रही बेटियां
असल में, संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का; सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता। अपने देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की ओर पलायन करने की प्रवृत्ति का नतीजा है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गई है, जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है। इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गई है।
पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है। विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए।
शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए। इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्नोत, सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है, जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु। शहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे। दिल्ली, कोलकाता,पटना जैसे महानगरों में जल निकासी की माकूल व्यवस्था न होना शहर में जल भराव का स्थाई कारण कहा जाता है।
मुंबई में मीठी नदी के उथले होने और 50 साल पुरानी सीवर व्यवस्था के जर्जर होने के कारण बाढ़ के हालात बनना सरकारें स्वीकार करती रही हैं। बेंगलुरु में पारंपरिक तालाबों के मूल स्वरूप में अवांछित छेड़छाड़ को बाढ़ का कारक माना जाता है। शहरों में बाढ़ रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारंपरिक जल स्नोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का करना होगा। यदि किसी पहाड़ी से पानी नीचे बह कर आ रहा है तो उसका संकलन किसी तालाब में ही होगा।
ऐसे जोहड़-तालाब कंक्रीट की नदियों में खो गए हैं। परिणामत: थोड़ी ही बारिश में पानी कहीं बहने को बहकने लगता है। महानगरों में भूमिगत सीवर जल भराव का सबसे बड़ा कारण है। जब हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं तो फिर खुले नालों से अपना काम क्यों नहीं चला पा रहे हैं? पोलीथीन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्र, कुछ ऐसे कारण हैं, जोकि गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। शहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का ही दुखद परिणाम है कि तकरीबन सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए, दैनिक कार्यो के लिए न कि उसमें गंदगी बहाने के लिए।
गांवों के कस्बे, कस्बों के शहर और शहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख के केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है। शहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का आसान जरिया होते हैं, यहां दूषित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है। देश के सभी बड़े शहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका शमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर शहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
असल में, शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह परिपाटी पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। न तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, न ही सुरक्षा, न ही बिजली-पानी की न्यूनतम आपूर्ति।
(लेखक पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)
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