अवधेश कुमार। वर्तमान लोकसभा चुनाव इस मायने में भी चिंता पैदा कर रहा है कि इसमें एक समुदाय के दीन और ईमान को मतदान से जोड़ने की कोशिश हो रही है। इसी चुनाव में हमने ‘वोट जिहाद’ जैसे शब्द सुने और यह भी कि हमारा ईमान अमुक दल यानी भाजपा को वोट देने की इजाजत नहीं देता। लव जिहाद के मामले सामने आते रहे हैं, किंतु वोट भी जिहाद की परिधि में आ सकता है, इसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। वोट जिहाद शब्द का सार्वजनिक प्रयोग कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की भतीजी मारिया आलम खान ने सपा के प्रत्याशी के समर्थन में फर्रूखाबाद की एक जनसभा में किया।

उन्होंने कहा, ‘बहुत अक्लमंदी के साथ, बहुत जज्बाती न होकर, खामोशी के साथ, एक साथ होकर वोटों का जिहाद करो। हम सिर्फ वोटों का जिहाद ही कर सकते हैं और संघी सरकार को भगाने का काम कर सकते हैं।’ उस मंच पर अनेक मुस्लिम नेता बैठे थे, जिनमें सलमान खुर्शीद भी शामिल थे। मारिया ने यह भी कहा कि मैंने सुना कि कुछ मुस्लिमों ने भाजपा प्रत्याशी मुकेश राजपूत के साथ मीटिंग की। उनका समाज से हुक्का-पानी बंद कर देना चाहिए। यह कथन यही बताता है कि वर्तमान राजनीति, भाजपा और चुनाव को लेकर मुसलमानों के अंदर किस तरह का सोच पैदा करने की कोशिश हो रही है।

झूठ फैलाकर एक समुदाय के अंदर मजहबी गुस्सा पैदा करने का अभियान लगातार चल रहा है। मारिया ने चुनावी मंच से भाषण नहीं दिया होता तो यह वीडियो के रूप में उपलब्ध नहीं होता। अंतर्धारा में चलता रहता। कई जगहों पर मुसलमानों से कहा जा रहा है कि यह चुनाव नहीं, तुम्हारे लिए इस्लाम को बचाने का प्रश्न है। एक वीडियो में मौलाना कह रहे हैं कि वोट को दीन से अलग मत मानना।

एक अन्य वीडियो में कहा जा रहा है कि आपको फलां-फलां से बचना है तो भाजपा के विरुद्ध वोट करो। ऐसे-ऐसे विचार प्रकट किए जा रहे हैं मानों चुनाव कोई धार्मिक-मजहबी गतिविधि है। यह ऐसी खतरनाक कोशिश है जिस पर रोक नहीं लगी तो आगे देश के लिए अनेक समस्याएं पैदा होंगी। पता नहीं आगे किस-किस सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया, कानून या प्रशासनिक विषय को दीन का प्रश्न बना दिया जाए।

चुनाव प्रचार अभियान के दौरान कांग्रेस सहित आइएनडीआइए के कई घटक दल अपने वक्तव्यों से ऐसा वातावरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि मुसलमानों का एक भी वोट उनके खाते से बाहर न जाए और भाजपा को किसी कीमत पर न मिले। इसके लिए हर तरह के दांव आजमाए जा रहे हैं। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुसलमान शब्द प्रयोग नहीं किया है।

बावजूद इसके अल्पसंख्यकों के लिए अलग से अध्याय दिया। इसमें अत्यंत चतुराई से उसने सार्वजनिक नौकरियों से लेकर खेल और कला जगत में उनको प्रतिनिधित्व देने, आर्थिक-सामाजिक विकास करने, समाज की मुख्यधारा में लाने, उनकी सहमति से पर्सनल ला में सुधार को प्रोत्साहित करने आदि की बातें लिखी हैं। पर्सनल ला का अर्थ ही शरीयत कानून होता है। इस प्रकार मुस्लिम वोट के लिए विपक्षी दल मुसलमानों को आम समाज से अलग बांटने का ज्यादा प्रयास कर रहे हैं।

उन्हीं के वक्तव्यों और अतिवादी आरोपों के कारण मुस्लिम समाज के अंदर ऐसे तत्वों को मतदान तक को जिहाद, ईमान और दीन का विषय बनाने का प्रोत्साहन मिला है। पूरे देश में अनेक मुस्लिम संस्थाएं और उनसे जुड़े चेहरे तथा कथित एक्टिविस्ट मुसलमान घूम-घूमकर अलग-अलग तरीकों से अपने समुदाय के लोगों को समझा रहे हैं कि वे कांग्रेस या उनके साथी दलों के पक्ष में ही वोट करें एवं हर हाल में भाजपा को हराएं। यह अभियान इतने व्यापक स्तर पर चल रहा है, जिसकी शायद जमीन पर काम न करने वाले को कल्पना नहीं होगी। इन सबकी कोशिशों से पूरा माहौल ऐसा बन गया है, मानों यह चुनाव मुसलमानों एवं भाजपा के बीच है।

जबकि यह सच नहीं है। मुसलमानों के आर्थिक विकास, सरकारी नौकरियों में उनकी भागीदारी, सरकारों के कल्याण कार्यक्रमों के आंकड़े आदि इस बात की पुष्टि करते हैं कि मोदी सरकार के कार्यकाल में उन्हें कहीं ज्यादा लाभ पहुंचा है। सरकारी नौकरियों में पिछले नौ वर्षों में मुसलमान कर्मचारियों की संख्या दोगुनी हुई है। सिविल सेवाओं में रिकार्ड संख्या में मुसलमान आ रहे हैं।

भाजपा सरकारों के कल्याण कार्यक्रमों एवं सामाजिक विकास संबंधी योजनाओं का लाभ जनसंख्या के अनुपात में मुसलमानों को ज्यादा मिला है। मजहब के आधार पर सरकारी भेदभाव का एक भी पुष्ट प्रमाण नहीं है। एक साथ तीन तलाक इस्लाम का भाग नहीं है। अनेक इस्लामी देशों ने इसे समाप्त कर दिया, फिर भी भारत में इसके विरुद्ध कानून को इस्लाम विरोधी करार दिया गया। सीएए पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए गैर-मुसलमानों को नागरिकता देने का विषय है, जिसका मुसलमान और इस्लाम से लेना-देना नहीं।

समान नागरिक संहिता, गोरक्षा या अन्य विधान किसी कोने से इस्लाम या मुसलमान विरोधी नहीं हैं, किंतु मुस्लिम वोट बैंक को बनाए रखने के लिए कांग्रेस सहित अन्य दलों ने ऐसा माहौल बनाया है, जिसमें इस तरह के स्वाभाविक प्रगतिशील विधान भी मजहब विरोधी साबित किए जाने लगे हैं। यह खतरनाक स्थिति है। किसी समुदाय के अंदर इस तरह का भाव पैदा करना देश की आंतरिक शांति के लिए शुभ संकेत नहीं। ऐसे विचारों और अभियानों का परास्त होना देश और एक-एक व्यक्ति के हित में है। किसी व्यक्ति या समुदाय का अधिकार है कि वह जिसे चाहे वोट दे, जिसका चाहे विरोध करे, किंतु इस तरह चुनाव को मजहब का विषय बनाना अस्वीकार्य है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)