संजय गुप्त। चुनाव लोकतंत्र की धुरी होते हैं, लेकिन यह धुरी तभी मजबूत होगी, जब चुनाव साफ-सुथरे होंगे और लोग बढ़-चढ़कर मतदान करेंगे। लोकसभा चुनाव के दो चरणों का मतदान होने के उपरांत यह और स्पष्ट है कि भाजपा के तमाम प्रत्‍याशी अपनी जीत के लिए प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और छवि पर अधिक आश्रित हैं। उनका अपना कामकाज संतोषजनक नहीं। इसके अलावा स्थानीय नेताओं एवं कार्यकर्ताओं पर उनकी ऐसी पकड़ भी नहीं, जिसके बलबूते वे भाजपा समर्थकों में उत्साह का संचार कर सकें। इस पर आश्चर्य नहीं कि इस बार चुनावों में वैसा उत्साह नहीं दिख रहा, जैसे पिछले आम चुनावों में दिखता था।

न तो भाजपा खेमे में उत्साह देखने को मिल रहा है और न ही विपक्षी खेमे में। मतदान के दोनों चरणों में पिछली बार के मुकाबले मतदान के कम प्रतिशत के लिए इस उत्साहहीनता को जिम्मेदार माना जा रहा है। इसके अलावा एक कारण यह भी माना जा रहा कि जहां भाजपा के नेतृत्व वाले राजग के समर्थक यह मानकर चल रहे हैं कि मोदी तो फिर से सत्ता में आ ही रहे हैं, वहीं कांग्रेस के नेतृत्व वाले आइएनडीआइए के समर्थक यह समझ रहे हैं कि इस गठबंधन के लिए सत्ता हासिल करना कठिन है।

इस बार पहले दो चरणों में मतदान का प्रतिशत पिछले लोकसभा चुनावों के मुकाबले कम रहा। मतदान प्रतिशत में कमी के मूल कारण जो भी हों, पिछले दो चरणों में कम मतदान के आधार पर सत्तापक्ष और विपक्ष को फायदा या नुकसान होने के जो निष्कर्ष निकाले जा रहे, उनका कोई ठोस आधार नहीं, क्योंकि कोई भी निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकता कि किस पक्ष के मतदाताओं ने मतदान के लिए कम उत्साह दिखाया। कम मतदान से चाहे जिसे लाभ या हानि हो, इससे इन्कार नहीं कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के तमाम प्रत्याशी अपने कामकाज के बजाय मोदी की साख के भरोसे अधिक हैं।

संभवतः मोदी भी यह जान रहे हैं और इसीलिए वे धुंआधार प्रचार कर रहे हैं। चूंकि दक्षिण भारत के एक बड़े हिस्से में मतदान हो चुका है, इसलिए उत्तर भारत पर निगाह अधिक है। पिछली बार भाजपा ने उत्तर भारत में ही शानदार सफलता पाई थी। इसी उत्तर भारत में एक बड़ी संख्या में भाजपा के सांसद फिर से चुनाव मैदान में हैं। इनमें से अनेक को सत्ता विरोधी रुझान का सामना करना पड़ रहा है। कई जगह उनके कामकाज से जनता संतुष्ट नहीं। लगता है ये सांसद यही मानकर चलते रहे कि इस बार भी मोदी नाम के सहारे उनकी नैया पार लग जाएगी।

आखिर ऐसा कब तक चलेगा? इस पर हर दल को विचार करना चाहिए कि कैसे वही जनप्रतिनिधि चुनाव मैदान में फिर से उतरें, जो अपने क्षेत्र की जनता की समस्याओं का समाधान करने के लिए तत्पर रहें। जिताऊ उम्मीदवार के नाम पर जनता की समस्याओं से बेपरवाह या दलबदलू नेताओं को चुनाव मैदान में नहीं उतारा जाना चाहिए। इसी के साथ जनता की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह जाति और मजहब के नाम अयोग्य, दागी और दलबदलू नेताओं को चुनाव जिताना बंद करे। यह एक तथ्य है कि अयोग्य जनप्रतिनिधियों के लिए दलों के नेतृत्व के साथ-साथ जनता भी एक हद तक जिम्मेदार है।

जैसे-जैसे मतदान का तीसरा चरण करीब आता जा रहा है, सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तेज होता जा रहा है। एससी-एसटी-ओबीसी आरक्षण में कटौती से लेकर मजहब आधारित मुस्लिम आरक्षण को लेकर तो आरोप- प्रत्यारोप लग ही रहे हैं। दोनों पक्ष यह भी प्रचारित कर रहे हैं कि उनसे संविधान और लोकतंत्र को खतरा है। जहां भाजपा कांग्रेस को घेरने के लिए संपत्ति के पुनर्वितरण का मुद्दा उठा रही है, वहीं कांग्रेस मोदी सरकार को चंद कारोबारियों के लिए काम करने का आरोप दोहरा रही है। दोनों ही पक्ष ध्रुवीकरण करने की भी कोशिश कर रहे हैं। इसका उदाहरण हैं मुस्लिम आरक्षण और वोट जिहाद की बातें। इस सबके बीच चुनावों को लेकर मतदाताओं की उदासीनता भी चर्चा में है।

मतदाताओं की उदासीनता इसलिए आश्‍चर्य का विषय है, क्योंकि युवा एवं शिक्षित मतदाताओं की संख्या बढ़ रही है। जो शहरी मतदाता सबसे अधिक मुखर रहता है, वही मतदान में कम हिस्सेदारी करता है। महानगरों और बड़े नगरों में मतदान का प्रतिशत ग्रामीण इलाकों से कम रहता है। इस बार भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है। चूंकि तमाम मतदाता प्रलोभन में आकर मतदान करने लगे हैं, इसलिए राजनीतिक दल और प्रत्याशी अनुचित तरीके से उन्हें लुभाने का काम भी करने लगे हैं। वे पैसा, शराब और अन्य वस्तुएं उनमें गुपचुप रूप से बांटते हैं। इसके लिए कुछ प्रत्याशी तो अनाप-शनाप खर्च करते हैं। इसका पता इससे चलता है कि इस बार मतदाताओं के बीच चोरी-छिपे बांटे जाने वाले नशीले पदार्थ, आभूषण, नकदी बड़ी मात्रा में पकड़ी गई।

यह मात्रा पिछले चुनाव से कहीं अधिक है, जबकि अभी मतदान के दो ही चरण हुए हैं। स्पष्ट है वोट खरीदे जा रहे हैं। ऐसा इसीलिए हो रहा है, क्योंकि लोग भी अपना वोट बेचने को तैयार हैं। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि प्रत्याशी वोट खरीद कर चुनाव जीतने में सफल रहें? यह चिंता की बात है कि यह समस्या बढ़ रही है। एक समस्या यह भी देखने को मिल रही है कि चुनावों में भावनात्मक और ध्रुवीकारण वाले मुद्दे अधिक उछलने लगे हैं। जब ऐसा होता है तो जनहित के वास्तविक मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।

चुनाव परिणाम तो चार जून को ही पता चलेंगे, लेकिन भावी सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि साफ-सुथरे चुनावों के लिए कानूनों में क्या सुधार किए जाएं? इस पर विचार करते समय एक साथ चुनाव भी प्राथमिकता में आने चाहिए, जिनकी चर्चा लंबे समय से हो रही है और जिनकी सिफारिश पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द वाली समिति ने हाल में की है। एक साथ चुनाव की दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही मतदान अनिवार्य करने को लेकर भी विचार-विमर्श होना चाहिए। चुनाव लोकतंत्र की धुरी होते हैं, लेकिन यह धुरी तभी मजबूत होगी, जब चुनाव साफ-सुथरे तरीके से होंगे और लोग बढ़-चढ़कर मतदान करेंगे। लोग वोट के जरिये केवल अगले पांच साल के लिए सरकार का ही चयन नहीं करते, बल्कि अपने भाग्य का भी निर्धारण करते हैं। मतदान में भाग न लेने वाले बाद में शिकायत करने के अधिकारी नहीं रह जाते।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)