एशिया में शक्ति का संतुलन मुख्य तौर पर पूर्वी एशिया और हिंद महासागर की घटनाओं से निर्धारित होगा। इस संदर्भ में भारत और जापान के नजदीक आने से न केवल एशिया का सामरिक भविष्य तय होगा, बल्कि इसकी मदद से चीन को भी घेरा जा सकेगा और यह साझेदारी अमेरिका की एशियाई धुरी भी बन सकती है। जापान और भारत एशिया के दो स्वाभाविक सहयोगी देश हैं और इस क्षेत्र की स्थिरता के लिए ये दोनों केंद्रीय भूमिका निभा सकते हैं। इन दोनों देशों के बीच सहयोग से विस्तृत हिंद-प्रशांत महासागर में समुद्री सुरक्षा को भी सुनिश्चित किया जा सकेगा। यह क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय व्यापार और ऊर्जा आपूर्ति के केंद्र के तौर पर काफी महत्वपूर्ण है। जापान के सम्राट अकिहितो और साम्राज्ञी मिशिको की शनिवार से शुरू हो रही भारत यात्रा दोनों देशों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। एशिया के इन दो बड़े लोकतांत्रिक देशों के बीच साझेदारी पर आधारित तमाम विकास योजनाएं तीव्र गति से चल रही हैं। दोनों ही देश सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस महाद्वीप के दो छोरों पर स्थित हैं। तकरीबन 2600 वर्षो से अधिक के इतिहास के साथ जापान विश्व का सबसे पुराना राजतंत्र है। भारत से किसी भी सम्राट का संबंध नहीं होने के बावजूद जापान में भारत को पारंपरिक तौर पर तेंजिकू की संज्ञा दी जाती रही है, जिसका अर्थ है स्वर्ग जैसा देश।

जापान के सम्राट की किसी भी देश की यात्रा काफी महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि जापान में इसे संबंधित देश से गहरे संबंध के रूप में देखा जाता है। जापान के सम्राट की यह राजकीय यात्रा बहुत महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गत अगस्त माह में कैबिनेट रैंक प्रदान कर अश्विनी कुमार को इस जिम्मेदारी के साथ जापान भेजा था कि वह शाही दंपती की भारत यात्रा का आधार तैयार करें। नए वर्ष की शुरुआत में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे भारत आएंगे। वास्तव में जापानी सम्राट की भारत यात्रा इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह स्वास्थ्य संबंधी तमाम समस्याओं के बावजूद नई दिल्ली आ रहे हैं। पिछले दशक में उनका प्रोस्टेट कैंसर के साथ-साथ दिल का आपरेशन भी किया गया था। जब वह चेन्नई से वापस अपने देश लौटेंगे तो कुछ सप्ताह बाद 80 साल के हो जाएंगे।

यह राजकीय यात्रा भारत के साथ और नजदीकी संबंध के लिए जापान की प्रतिबद्धता को दर्शाती है। भारत को किसी भी अन्य आर्थिक साझेदार से कहीं अधिक मदद जापान दे रहा है। भारत को अनुदान देने वालों में भी जापान सबसे बड़ा स्रोत है। वह भारत के आधारभूत ढांचे को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। जापान की वित्तीय मदद से ही पश्चिमी फ्रेट कॉरिडोर, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरिडोर और बेंगलूर मेट्रो रेल परियोजना जैसी विकास योजनाएं चल रही हैं। टोक्यो दोनों देशों के बीच सामरिक संबंधों को और मजबूत किए जाने का पक्षधर है। भारत और जापान के बीच संबंधों की जड़ छठी शताब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध धर्म के प्रसार से जुड़ी हुई है। जापान की प्राचीन राजधानी नारा में तोदैजी मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है और इसमें बुद्ध की सबसे बड़ी प्रतिमा है। इस प्रतिमा की 752 ईसवी में एक भारतीय पुजारी के हाथों प्राण प्रतिष्ठा कराई गई थी। उस समय सम्राट शोमू थे, जिन्होंने उस समय खुद को बुद्ध के नियमों और बौद्ध मठ के आदेशों को मानने वाला सेवक घोषित किया था। जापान की सांस्कृतिक परंपरा भारत से प्रभावित है। जापानी भाषा पर संस्कृत का काफी प्रभाव है।

जापान में आज भी किसी नवदंपती को यह शपथ दिलाई जाती है कि वह तीन राष्ट्रों कारा यानी चीन, तेंजिकू यानी भारत और हिनोमोटा यानी जापान के सबसे अच्छे दूल्हा और दूल्हन हैं। 1960 में राजकुमार बनने के बाद अकिहितो अपनी पत्नी के साथ हनीमून के लिए भारत आए थे। अपनी उस यात्रा के दौरान उन्होंने नई दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की नींव रखी थी और जापानी दूतावास में एक पौधा लगाया था, जो अब एक बड़े वृक्ष का रूप ले चुका है।

आज भारत युवा आबादी के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा देश है और जापान दूसरे अन्य विकसित देशों की बनिस्पत तेजी से बूढ़ा हो रहा है। जहां भारत सदैव सामरिक स्वायत्तता की नीति पर चला वहीं जापान अमेरिका का सबसे विश्वस्त सहयोगी रहा। जापान में न केवल बड़ी तादाद में अमेरिकी सैन्य टुकड़ियां मौजूद हैं, बल्कि जापान उन्हें आर्थिक भुगतान भी करता है। अभी भी दोनों देशों के बीच असमानता को देखते हुए मजबूत संबंधों के लिए काफी कुछ किए जाने की आवश्यकता है। जापान उत्पादन का बड़ा केंद्र है, जबकि भारत का विकास सेवा आधारित है। दोनों देशों की आबादी की उम्र संरचना एक-दूसरे के लिए आर्थिक पूरक का काम करती हैं। भारत की श्रम पूंजी और जापान की आर्थिक एवं तकनीकी शक्ति मिलकर भारत के आधारभूत ढांचे के विकास को गति दे सकते हैं और इससे जापान भी वैश्विक शक्ति के तौर पर अपना रुतबा बनाए रख सकता है। भारत के लिए जापान पूंजी और व्यावसायिक तकनीक का एक बड़ा स्रोत है। वास्तव में भारत के विकास के लिए जापान से बेहतर दूसरा कोई सहयोगी नहीं हो सकता। विश्व शक्ति के तौर पर जापान गैर पश्चिमी समाज में एशिया का एकमात्र आधुनिक देश है, जो 19वीं शताब्दी से ही औद्योगिक और तकनीकी विकास का नेतृत्व कर रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी सुरक्षा सहयोग की दृष्टि से जापान के महत्व को स्वीकार करते हुए कहा है कि विस्तृत हिंद-प्रशांत महासागर क्षेत्र की स्थिरता और सुरक्षा के लिए भारत जापान को एक स्वाभाविक और अनिवार्य सहयोगी मानता है। ऊर्जा की कमी से जूझ रहे भारत और जापान अस्थिर फारस की खाड़ी के देशों पर अत्यधिक निर्भर हैं। दोनों ही देशों की चिंता इस क्षेत्र के मार्गो पर नियंत्रण की प्रतिस्पर्धा को लेकर है। इस क्षेत्र में निर्बाध यातायात को बनाए रखने और शांति व सुरक्षा के लिए दोनों ही देशों के बीच संयुक्त नौसैनिक अभ्यास काफी महत्वपूर्ण है।

इन तथ्यों के आलोक में भारत और जापान के बीच तेजी से बढ़ रहे द्विपक्षीय संबंधों को समझा जा सकता है। वर्ष 2006 में सामरिक और वैश्विक साझेदारी का समझौता होने के बाद दोनों देशों के बीच राजनीतिक और आर्थिक संबंध और प्रगाढ़ हुए हैं। इस संदर्भ में 2011 में दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता हुआ था, जिसे व्यापक आर्थिक साझेदारी संधि के नाम से भी जाना जाता है। दुर्लभ खनिज संसाधनों के मामले में चीन पर निर्भरता घटाने के लिए दोनों देश परस्पर सहयोग कर रहे हैं। दोनों देशों के बीच आधिकारिक संबंध और प्रगाढ़ हुए हैं तथा प्रधानमंत्री स्तर पर नियमित संपर्क भी सुनिश्चित किया गया है। इसके अलावा दोनों देशों के विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री समेत कई अन्य मंत्रालयों के स्तर पर भी बातचीत की शुरुआत हुई है। शीर्ष स्तर पर अमेरिका के साथ त्रिस्तरीय बैठकों का भी आयोजन शुरू हुआ है। विश्व का सबसे बड़े हथियार आयातक होने के नाते भारत को स्वदेशी हथियार उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए रक्षा क्षेत्र में भी जापानी मदद की दरकार है। कुल मिलाकर जापान के सम्राट की भारत यात्रा एक ऐतिहासिक घटना है, जो भारत-जापान सामरिक साझेदारी की एक नई शुरुआत भी है।

[ब्रह्मा चेलानी: लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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