नई आर्थिक दिशा में देश
इस साल के लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार का पहला बजट सामने आ गया है। वैसे तो बजट मूल रूप से सरकारी खर्चे और आमदनी का सालाना ब्यौरा है और पारंपरिक रूप से सरकार के कुछ नीतिगत वक्तव्य भी सदन के पटल पर इस ब्यौरे के साथ पेश किए जाते हैं, किंतु राजनीतिक या यह कहें कि चुनावी परिवेश के तीन मुख्य कारण थे जिनके चलते इस बार के बजट पर सबकी विशेष नजर थी। आम आदमी हो या पूंजीपति, अंतरराष्ट्रीय उद्योगों के नायक हों अथवा घरेलू उद्योगपति-सभी की ओर से आम और खास अपेक्षाओं का बाजार गर्म था। सबसे पहले तो मैं इस राजनीतिक परिवेश का संक्षेप में ब्यौरा दे दूं। प्रथम यह कि मोदी सरकार संपूर्ण बहुमत से जीतकर आई है, जबकि 1984 से कोई भी दल ऐसे स्पष्ट बहुमत को हासिल नहीं कर सका था। गठबंधन की सरकारों को नीतिगत लचीलेपन और कठिन निर्णय नहीं ले पाने की अक्षमता से सीधे-सीधे जोड़ा गया। इस बार ऐसी आशा रही कि अप्रत्याशित बहुमत के साथ मोदी जरूरत पड़ने पर मूलभूत संवैधानिक परिवर्तन करके भी अच्छी नीतियां ला सकते हैं। दूसरा महत्वपूर्ण राजनीतिक आयाम यह था कि पिछली सरकार पर पॉलिसी पैरालिसिस का आरोप लगाया गया, जिससे आर्थिक विकास की दर मंथर सी हो गई थी। यही नहीं विनिवेश की प्रक्रिया पर विशेष रूप से 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला खदान आवंटन प्रक्रिया के भ्रष्टाचार का असर पड़ा था।
इससे संबंधित और राजनीतिक परिवेश का तीसरा अहम बिंदु यह है कि चुनावों के दौरान नरेंद्र मोदी ने चार सौ अधिक जिन जनसभाओं को संबोधित किया उनमें उन्होंने लोगों की आस बढ़ाने का ही काम किया था। कुल मिलाकर बजट के दिन आम जनता यह जानने के लिए व्याकुल थी कि अच्छे दिन कैसे आएंगे और किन नीतियों के निष्पादन से कब तक आएंगे? राजनीति में पर्दे के पीछे रहने वाले किंतु अर्थव्यवस्था के नायक औद्योगिक घराने भी यह समझने लिए उत्सुक थे कि आर्थिक वृद्धि दर के इजाफे के लिए सही संकेत इस बजट में हैं या नहीं? उन्नत अपेक्षाओं के परिवेश में कैसा रहा यह बजट? विकास दर में इजाफे की उम्मीद, महंगाई, बेरोजगारी के बीच क्या कुछ निकलकर सामने आया? इसके साथ-साथ कैसे भिन्न होगी मोदी की सरकार? पिछली संप्रग सरकार द्वारा शुरू की गई मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल का क्या होगा? इस बजट के लिए सबसे पहली बात तो यही रही कि मोटे तौर पर वित्तामंत्री अरुण जेटली ने जो आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया और बाद में जो बजट पेश किया उनमें तालमेल था, विसंगति नहीं। आर्थिक सर्वेक्षण में जमीनी हालात का वास्तविक ब्योरा दिया गया, न कि मानव विकास के खयाली पैमानों का जिक्र किया गया।
यह बजट मोदी सरकार का है और इसे साफ रूप में सरकार के ही वित्तामंत्री ने लोकसभा में पेश किया। सबसे पहला संदेश तो यह दिया गया कि अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की जादुई आशा नहीं की जा सकती और 2014-15 में भी जीडीपी 5.5 प्रतिशत की दर से ही बढ़ेगी। यह एक व्यावहारिक घोषणा है। जेटली ने अपने भाषण के पूर्वार्द्ध में ही स्पष्ट किया कि कमजोर मानसून और इराक में खलबली के साथ-साथ मुद्रास्फीति तथा काले धन की समस्या बहुत कठिन और संस्थागत बंदिशें हैं, जिनके कारण अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक परिवर्तन संभव नहीं। इसके साथ-साथ उन्होंने यह विश्वास भी दिलाया कि राजकोषीय घाटे को सही स्तर पर लाने की हरसंभव कोशिश होगी। यानी सरकारी अपव्यय पर रोक लगेगी और सरकार भी घरेलू और औद्योगिक इकाइयों की भांति अपनी आमदनी बढ़ाएगी। यह आमदनी कैसे बढ़ेगी, इसका ब्यौरा फिलहाल सामने नहीं आया है। जेटली ने व्यय प्रबंधन आयोग की बात कही है, जो सरकार को सुझाव देगा कि सरकारी खर्च में कटौती कैसे की जाए? उन्होंने कर व्यवस्था में भी पारदिर्शता लाने की बात कही और भरोसा दिलाया कि पिछली तिथि से लागू किए जाने वाले टैक्स का कम से कम या नहीं इस्तेमाल किया जाएगा और टैक्स में हुए कानूनी विवादों को कम करने की कोशिश होगी।
जिन मुख्य प्रस्तावों की घोषणा जेटली ने की उनमें पहला है एफडीआइ। रक्षा संबधित उद्योगों में अब 49 प्रतिशत तक विदेशी पूंजी निवेश किया जा सकता है। बीमा और आवास क्षेत्र में भी विदेशी पूंजी निवेश को आमंत्रित किया जाएगा। इसके साथ ही राष्ट्रीयकृत बैंकों में भी निवेश की शुरुआत की जाएगी। बैंकों में विनिवेश की शुरुआत ऐतिहासिक कदम है। यह फैसला इंदिरा गांधी द्वारा 1967 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के कदम को एक भिन्न दिशा में ले जाता है। नई सरकार के फैसले से बैंकों के पास जो धनराशि जुटेगी उसका इस्तेमाल बुनियादी ढांचे के विकास से जुड़ी परियोजनाओं में किया जाएगा, जिसमें सबसे अधिक जोर सड़क निर्माण पर दिया जाएगा। यह समय की मांग भी है। इसके साथ ही जिस नए मिडिल क्लास की चर्चा चुनाव में भरपूर रही उसके लिए मोदीनॉमिक्स का एक नया प्रस्ताव भी रहा। सौ नए शहर जिन्हें स्मार्ट सिटी का नाम दिया गया है, अस्तित्व में आएंगे और छोटे शहरों को भी एयर नेटवर्क में शामिल किया जाएगा। इसके साथ ही जेटली ने संप्रग सरकार की फ्लैगशिप स्कीम मनरेगा में भी परिवर्तन की बात कही है। उन्होंने यह प्रस्तावित किया है कि इस योजना को कृषि से भी जोड़ा जाना चाहिए और बुनियादी ढांचे के विकास से भी। यानी अब ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार के कहीं ज्यादा अवसर उपलब्ध होंगे। स्पष्ट है कि नई सरकार लोक-लुभावन कार्यक्रमों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसका मकसद आर्थिक विकास को फिर से पटरी पर लाना है। यह एक सही चिंतन है कि आर्थिक विकास दर की रफ्तार बढ़ाकर ही सामाजिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है। कुल मिलाकर मोदी सरकार ने इंदिरा-सोनिया की कांग्रेस की अर्थनीति से अलग एक दिशा प्रदर्शित की है और इसका असर दिखना चाहिए।
[लेखिका मनीषा प्रियम, लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स से जुड़ी रही हैं]