Religion: दुखों का मूल केवल कर्मफल और अज्ञानता है
संयम, सदाचार और महापुरुषों के आचरण का पालन करके मनुष्य विकर्म से बचकर दुखों से भी बच सकता है।
मनुष्य दुख और सुख का अनुभव मन के माध्यम से करता है। मन का निर्माण भूतकाल की यादों और अनुभवों द्वारा होता है। अतीत की यादें कभी सुखद तो कभी आत्मग्लानि, अपराधबोध, हीनता, आक्रोश और कटुता जाग्रत करने वाली होती हैं। मनुष्य वर्तमान के मोह में असंतुष्टि, अज्ञान और अन्य कारणों के साथ अतीत की यादों द्वारा सबसे ज्यादा दुखी महसूस करता है। इन बुरी और हीन यादों का बोझ वह न चाहते हुए भी ढोता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संसार में अभी तक कोई ऐसी औषधि नहीं बनी, जिसके सेवन से इन यादों को मिटाया जा सके। पुरानी यादों के द्वारा अपराध बोध से ग्रसित होकर मनुष्य का स्वभाव नकारात्मक हो जाता है और इसकी अति होने पर मानसिक बीमारियां-जैसे अवसाद आदि से ग्रसित होकर स्थाई रूप से दुख अनुभव करने लगता है। पुरानी यादें मनुष्य के स्वयं के कर्मों की ही प्रतिक्रिया हैं और कर्मफल से संसार में कोई भी प्राणी यहां तक कि ईश्वर भी नहीं बच सके हैं। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि हर जीव को कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इस तथ्य की पुष्टि आज के समय में विज्ञान के तथ्यों द्वारा अमेरिका के एक मनोचिकित्सक ब्रायन ब्रास ने अपनी पुस्तक ‘मैनी लाइफ मैनी मास्टर्स’ में की है।
इससे स्पष्ट होता है कि दुखों का मूल केवल कर्मफल और अज्ञानता है। इससे बचने का उपाय भगवान ने गीता में बताया है कि मनुष्य को कर्म, अकर्म एवं विकर्म का भेद जानकर केवल वही कर्म करना चाहिए जो उसके स्वधर्म के अनुकूल हो और स्वधर्म के अनुसार किए कर्म का फल स्वत: भगवान को अर्पण हो जाता है। इस प्रकार कर्मफल से मुक्त होकर वह प्रतिक्रियास्वरूप सुख-दुख से भी मुक्त हो जाता है। विकर्म वह है, जो स्वधर्म एवं नैतिकता के विरुद्ध किया जाता है। इस कारण इसका कर्मफल मनुष्य को स्वयं भोगना पड़ता है। विकर्म के लिए उसे उसके मन और बुद्धि ही प्रेरित करते हैं। इसलिए संयम, सदाचार और महापुरुषों के आचरण का पालन करके मनुष्य विकर्म से बचकर दुखों से भी बच सकता है। आइए कर्मफल के सिद्धांत को समझकर विकर्म से बचकर सुख और आनंद की प्राप्ति करें। यही मर्म समझकर हम अपने जीवन को सही मायनों में सार्थक बना सकते हैं।
[ कर्नल (रिटायर्ड) शिवदान सिंह ]