उर्जित पटेल यानी यूपी चार सितंबर को रिजर्व बैंक के गवर्नर बन गए। वह मंगलवार से औपचारिक रूप से अपने कामकाज की शुरुआत करेंगे। रघुराम राजन की जगह रिजर्व बैंक की कमान संभालने वाले उर्जित पटेल के सामने पहले दिन से ही विभिन्न चुनौतियां भी खड़ी हो गई हैं। इसमें से सबसे प्रमुख चुनौती है-रोजगार सृजन और मुद्रास्फीति के नियंत्रण के मोर्चे पर प्रभावशाली तरीके से और सफलतापूर्वक खरा उतरना। दरअसल मुद्रास्फीति के लक्ष्य को पहले से निर्धारित मुद्रास्फीति की दर से बांध दिया जाता रहा है और उसी पर बरकरार रखने की कोशिशें होती रही हैं। हालांकि अब यह पूरी प्रक्रिया एक विधिवत व्यवस्था यानी कानून के तहत पूरी होगी। उर्जित पटेल को न सिर्फ उस कानून को लागू करना होगा, बल्कि यह सारा काम हाल ही में गठित मौद्रिक नीति कमेटी (एमपीसी) के सहयोग से करना होगा। यहां एक बात साफ है कि महंगाई को नियंत्रण में करने को लेकर वह और एमपीसी, दोनों रोजगार सृजन के उद्देश्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते। लिहाजा उन्हें मौद्रिक नीति से संबंधित प्रणाली में सुधार और सिस्टम में पर्याप्त तरलता सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित कर निवेश के वातावरण को बेहतर करना होगा। ये दोनों काम ऋण की दर को नीचे लाने में मददगार होंगे, भले ही एमपीसी द्वारा रेपो रेट को अपरिवर्तित छोड़ दिया जाए।

यह भी स्पष्ट है कि खाद्य मुद्रास्फीति पर लगाम कसना उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) को नियंत्रित करने की कुंजी है। ध्यान रहे कि खाद्य मुद्रास्फीति के अनियंत्रित होने की वजह से ही संप्रग के दोनों कार्यकाल और एक हद तक वर्तमान समय में भी महंगाई की उच्च दर लगातार बनी हुई है। खाद्य पदार्थों की कीमतें, जो कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 46 फीसद का योगदान करती हैं, मौद्रिक नीति के जरिये नियंत्रित नहीं की जा सकती हैं। इसीलिए खाद्य मुद्रास्फीति का समाधान करने के लिए जरूरी है कि खाद्य वस्तुओं की आपूर्ति बढ़ाई जाए। इसके बावजूद उर्जित पटेल इस समस्या को लेकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते और इसका ठीकरा सरकार के माथे नहीं फोड़ सकते। उर्जित पटेल को अपने स्तर पर सरकार को यह बात समझानी होगी कि वे खाद्य पदार्थों को व्यापार योग्य उत्पादों के रूप में देखें, जिनकी आपूर्ति को प्रभावी विदेशी व्यापार के तहत आसानी से बढ़ाया या घटाया जा सकता है। वर्तमान में विभिन्न देशों और यहां तक कि भारत के विभिन्न राज्यों में खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करने वाले निजी कारोबारियों के समक्ष इस संबंध में मौजूदा बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए। इससे कृषि उत्पादों में मुद्रास्फीति और अनचाही आकस्मिक कीमत वृद्धि से छुटकारा मिल जाएगा।

उर्जित पटेल के समक्ष दूसरी चुनौती है-वाणिज्यिक बैंकों की बैलेंस शीट को दुरुस्त करना, उनके संदेहास्पद खातों और नॉन परफॉर्मिंग एसेट यानी फंसे कर्ज से छुटकारा दिलाना। भारत के एक प्रमुख बैंक के बोर्ड में उनके साथ काम करते हुए मैंने उधार और एनपीए के सही आंकड़ों के प्रति ईमानदारी बरतने की उनकी व्यग्रता देखी है। उम्मीद है कि किसी प्रकार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर वह बैंकों के प्रति कोई प्रतिकूल कदम नहीं उठाएंगे। इससे कॉरपोरेट सेक्टर और साथ ही स्वयं बैंकों के सामने भी अनपेक्षित हानिकारक परिणाम आ सकते हैं। यदि वह अर्थव्यवस्था में आने वाले उछाल से बैंकों को लाभ उठाने की अनुमति देने जैसे दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाते हैं तो अच्छा होगा। बैंकों को भी उन ईमानदार उद्यमियों को मदद के लिए आगे आना चाहिए जो चक्रीय उतार-चढ़ाव के कारण वर्तमान में समस्याग्रस्त हैं। इस स्तर पर एक सर्जन के बजाय एक फिजिशियन का दृष्टिकोण अपनाना कहीं ज्यादा उचित होगा।

पटेल बैंकिंग सेक्टर में फिनटेक (जिसका अभिप्राय तकनीक से है) पर अपना ध्यान केंद्रित कर उल्लेखनीय योगदान कर सकते हैं। हालांकि बीते दस वर्षों में भारी प्रगति दर्ज कराने के बावजूद भारत के बैंक आइटी और डिजिटल प्लेटफॉर्म से खुद को जोडऩे में कुछ हद तक पीछे रहे हैं। प्रधानमंत्री का डिजिटल इंडिया का सपना साकार करने के लिए यह जरूरी है कि डिजिटल फाइनेंस भी इसका एक प्रमुख घटक हो। 21 करोड़ नए खुले जनधन खाते फाइनेंसियल इनक्लूजन यानी वित्तीय समावेशन को बढ़ाने में कोई योगदान नहीं देंगे यदि वे भुगतान व ऋण प्रवाह के लिए डिजिटल रूप से जुड़े हुए न हों। एक बड़ा सवाल यह है कि क्या पटेल के तहत कम से कम आरबीआइ ही अपनी प्रक्रियागत लागत को घटाने के लिए फिनटेक के प्रयोग को बढ़ावा देने की शुरुआत कर सकता है। एक सवाल यह है भी है कि क्या पटेल अपने नेतृत्व में रिजर्व बैंक को एक बड़े बदलाव का वाहक बनने वाली डिजिटल मनी की तरफ भारत को आगे बढ़ाने की बहस को गति देने में कामयाब साबित होंगे?

पटेल के सामने कुछ अन्य चुनौतियां भी मौजूद हैं। वैधानिक तरलता अनुपात (एसएलआर) जो कि बैंकिंग सेक्टर की सुस्ती की एक प्रमुख वजह है, को खत्म करना ऐसी ही एक बड़ी चुनौती है। क्या यह हो सकेगा? अब जब मध्यम एवं लघु उद्योग (एमएसएमइ) को ऋण देने के लिए विभिन्न एजेंसियां गठित की जा चुकी हैं और आइटी आधारित विभिन्न स्नोतों तक उनकी आसान पहुंच हो गई है तो ऐसे में उर्जित पटेल को प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को उधार देने से सरकार को दूर रहने के लिए प्रेरित करना चाहिए। पटेल को नॉर्थ ब्लॉक में स्वतंत्र ऋण प्रबंधन कार्यालय खोलने संबंधी वित्तमंत्री द्वारा अपने बजट भाषण में की गई घोषणा पर भी फैसला लेना है। और अंत में, आरबीआइ को यह सुनिश्चित करना होगा कि विदेशी मुद्रा की विनिमय की दर ऐसी हो जो श्रम आधारित वस्तुओं के निर्यात को प्रोत्साहित करे। उपरोक्त सभी चुनौतियों (खासकर खाद्य मुद्रास्फीति का नियंत्रण) का सामना करने के लिए पटेल को मैक्रोइकोनॉमिक मैनेजमेंट टीम के एक अभिन्न सदस्य के रूप में भारत सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा। उनका काम महंगाई को स्थिर रखने के साथ-साथ रोजगार सृजन की दर को भी तेज करना है। अब अगले करीब एक हजार दिनों तक वह आरबीआइ के गवर्नर के पद पर रहेंगे। एक टीम के कप्तान होने के नाते उन पर आरबीआइ बनाम सरकार की एक जो धारणा बन गई है उसे तोडऩे का भी जिम्मा होगा।

[ लेखक राजीव कुमार, सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च के सीनियर फेलो और गोखले इंस्टीट्यूट ऑफ पॉलिटिक्स एंड इकोनॉमिक्स के चांसलर हैं ]