पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में जनता ने जहां चार राज्यों में स्पष्ट जनादेश सुनाया वहीं दिल्ली विधानसभा में किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। यहां भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है तो आम आदमी पार्टी दूसरे स्थान पर है, जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि सरकार बनाने की प्रक्त्रिया क्या हो और उपराज्यपाल की भूमिका अथवा दायित्व क्या होने चाहिए? वर्तमान हालात में उपराज्यपाल के पास जो विकल्प हैं वे यही हैं कि वह सर्वप्रथम सबसे बड़े दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें और यदि वह इसके लिए अपनी असमर्थता व्यक्त करता है तो दूसरे सबसे बड़े दल के नेता को सरकार बनाने का निमंत्रण दिया जाना चाहिए और यदि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी यानी आम आदमी पार्टी भी अपनी असमर्थता व्यक्त करती है तो उपराज्यपाल के पास जो दो अन्य विकल्प शेष बचते हैं वे हैं राष्ट्रपति शासन की सिफारिश अथवा पुन: चुनाव, लेकिन यह प्रथम विकल्प नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 175 में कहा गया है कि ऐसी स्थिति में जबकि किसी भी दल के पास बहुमत न हो तो राष्ट्रपति शासन लगाने से पूर्व राच्यपाल को चाहिए कि वह सदन को यह संदेश भेजें कि वह अपने नेता का चुनाव करके उन्हें सूचित करे, यदि सदन ऐसा कर पाने में असमर्थ रहता है तो ही राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की जानी चाहिए।

इस संदर्भ में 1996 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी निर्णय सुनाया था कि किसी भी दल के पास बहुमत न होने की स्थिति में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने से पूर्व सदन को अपने नेता के चुनाव का विकल्प दिया जाना चाहिए। संविधान में बहुमत का निर्णय करने का अधिकार सदन को दिया गया है, न कि सदन से बाहर किसी अन्य को। दिल्ली विधानसभा चुनाव में दोनों ही बड़ी पार्टियां-भाजपा और आम आदमी पार्टी फिलहाल विपक्ष में बैठने की बात कह रही हैं, लेकिन संसदीय लोकतंत्र में शुरुआत में ही इस तरह की बात कहना जनता के साथ अन्याय है और जनादेश का असम्मान भी। दलगत चुनाव प्रणाली में जनता के जनादेश का सम्मान किया जाना चाहिए और यदि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलता है तो यह राजनीतिक दलों का नैतिक दायित्व है कि वे मुद्दों के आधार पर एक-दूसरे का समर्थन करें, गठबंधन बनाएं और सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त करें।

किसी भी स्थिति में फिर से चुनाव अंतिम विकल्प होना चाहिए, लेकिन ऐसा कोई भी फैसला लेने से पूर्व अन्य प्रक्त्रियाओं का पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि बार-बार के चुनावों से न केवल समय बर्बाद होता है, बल्कि जनता के धन की भी बर्बादी होती है। संविधान में सरकार बनाने के लिए राजनीतिक प्रबंधन के कई रास्ते बताए गए हैं, जिनका पालन किया जाना चाहिए। भाजपा और आम आदमी पार्टी को इसके लिए आपस में बात करनी चाहिए और मुद्दों के आधार पर सरकार के गठन की संभावनाओं पर विचार करना चाहिए। हालांकि, आम आदमी पार्टी पहले ही कह चुकी है कि वह न तो किसी से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी। इस संदर्भ में यह भी विचार योग्य है कि आम आदमी पार्टी शुरू से ही कहती आ रही है कि वह सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रही है, बल्कि जनहित के लिए राजनीति में उतरी है। ऐसे में यदि भाजपा कहती है कि वह उनकी मांगों को मानने के लिए तैयार है और जनलोकायुक्त, महंगाई घटाने और भ्रष्टाचार खत्म करने के साथ-साथ पारदर्शी प्रशासन के लिए प्रतिबद्ध है तो आम आदमी पार्टी को उन्हें समर्थन न देने का आधार क्या बचता है। इसी तरह यदि आम आदमी पार्टी सरकार बनाए और भाजपा उसे मुद्दों के आधार पर बाहर से समर्थन दे तो इसमें गलत क्या है? ऐसी किसी भी स्थिति में समर्थन लेने या देने का सवाल कहां उठता है। संसदीय लोकतंत्र में जनता का हित और उसकी आकांक्षा सर्वोपरि है, न कि किसी का अपना स्वयं का एजेंडा।

यहां कुछ लोग सवाल उठा सकते हैं कि ऐसी स्थिति में सरकार के पास बहुमत नहीं होगा और वह कमजोर होगी। इस संदर्भ में हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे संविधान में यह कहीं नहीं कहा गया है कि सरकार के पास बहुमत होना अनिवार्य है, बल्कि बहुमत सरकार के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। भारत और ब्रिटेन में अल्पसंख्यक सरकारों का इतिहास रहा है। नरसिंह राव की सरकार अल्पमत सरकार थी, लेकिन वह पूरे पांच साल चली। इसी तरह 1969 में इंदिरा गांधी की सरकार भी कुछ समय के लिए अल्पमत सरकार थी। स्पष्ट है कि बहुमत न होने के आधार पर सरकार के गठन की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता।

इस क्त्रम में एक संभावना यह भी बनती है कि उपराच्यपाल सबसे बड़े दल को अपने बहुमत की सूची पेश करने को कहें, लेकिन यह एक गलत परंपरा होगी और यह संविधान की मूल भावना के भी खिलाफ होगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि राच्यपाल कोई भी फैसला सदन पर छोड़ दें और कोई भी अन्य विकल्प नहीं होने पर ही राष्ट्रपति शासन का विकल्प चुनें। हमारे देश में गठबंधन सरकारें कोई नई बात नहीं है, बल्कि वर्तमान दौर में यह प्रवृत्तिऔर तेज हुई है। यदि जनता किसी एक दल के पक्ष में स्पष्ट जनादेश नहीं देती है तो चुनाव के बाद राजनीतिक दल मुद्दों के आधार पर एक-दूसरे को समर्थन दे सकते हैं और सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना होगा कि विपक्षी दल अकारण ही सरकार को न गिराने का आश्वासन दें।

गठबंधन सरकारें सदैव कमजोर होती हों, ऐसा नहीं है। यदि सिद्धांतों और मुद्दों के आधार पर गठबंधन किया जाता है अथवा किसी दल को समर्थन दिया जाता है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। कुछ लोगों के मुताबिक यह जनादेश के साथ एक तरह का छलावा है, लेकिन जनादेश का असम्मान करना भी किसी तरह सही नहीं कहा जा सकता है। यदि सरकार बनाने के लिए ये पार्टियां कोई प्रयास नहीं करती हैं और सभी विपक्ष में बैठने की बात कहती रहती हैं तो इसे जनभावनाओं का सम्मान कैसे कहा जा सकता है। सरकार के गठन में राजनीतिक दलों के साथ-साथ उपराच्यपाल की भी महती भूमिका है और वर्तमान हालात में उनकी भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। ऐसा कोई भी काम नहीं किया जाना चाहिए जिससे जनता खुद को ठगा महसूस करे। अभी सबसे उपयुक्त विकल्प यही है कि उपराच्यपाल सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें और प्रतिपक्ष मुद्दों के आधार पर इस सरकार का समर्थन करे। यदि ऐसा होता है तो यह जनादेश का भी सम्मान होगा और संविधान का भी। भाजपा और आम आदमी पार्टी को अपने इस दायित्व के प्रति सचेत रहना होगा।

[लेखक सुभाष कश्यप, संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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