पुलिस और सरकार
यह देश का बड़ा दुर्भाग्य है कि उसे जब भी कोई युवा नेतृत्व प्राप्त होता है, अंततोगत्वा उससे निराशा ही होती है। 1985 में असम गण परिषद ने जब राज्य में चुनाव जीता था तो प्रदेश में खुशी की लहर दौड़ गई। लोगों ने सोचा कि युवा नेतृत्व उन्हें स्वच्छ प्रशासन देगा और असम में घुसपैठ की समस्या का स्थायी निदान होगा, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। युवा नेतृत्व सत्ता के नशे में भटक गया। 2012 में जब अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में चुनाव जीता तब भी लोगों को लगा कि देश के सबसे अधिक जनसंख्या वाले प्रदेश में प्रगति होगी और विभिन्न संप्रदायों में भाईचारा बढ़ेगा। यहां भी निराशा ही हाथ लगी। दुर्भाग्य से संप्रदायों में कटुता बढ़ी, मुजफ्फरनगर में भीषण दंगे हुए और प्रदेश की शांति व्यवस्था चरमरा गई। अब ऐसा लगता है कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को जो ऐतिहासिक मौका मिला है उसे वह भी गंवा देंगे। आप के नेतृत्व के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वह अपने आगे किसी और को कुछ नहीं समझते। जब ईमानदार आदमी बाकी सभी को बेईमान समझने लगता है तो वह एक भयंकर भूल करता है। सुधार चाहने वाला व्यक्ति जब यह सोचने लगता है कि उसका मार्ग ही एकमात्र सही रास्ता है, तब वह भी गलती करता है। केजरीवाल और उनके साथी भी कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। उनके बयानों में अहंकार की बू आती है। केजरीवाल का यह कहना कि वह अराजकतावादी हैं, दुर्भाग्यपूर्ण था। गणतंत्र दिवस के औचित्य पर सवाल उठाना भी दूरदर्शिता नहीं थी। सोमनाथ भारती जिस असभ्यता का परिचय देते हैं उससे स्वयं आप का कितना नुकसान हो रहा है, पार्टी को समझना पड़ेगा।
केजरीवाल को यह समझना होगा कि दिल्ली की जनता को न तो उनके बड़े बंगले में रहने से कोई ऐतराज होगा और न ही उनके गाड़ी पर लाल बत्ती लगाने से। जनता को ऐतराज होता है इन सुविधाओं के अनधिकृत प्रयोग या उनके दुरुपयोग से। केजरीवाल का सुरक्षा न लेना भी बचकाना है। सुरक्षा किसी व्यक्ति से नहीं, बल्कि उसके पद से जुड़ी होती है। अच्छा होगा यदि केजरीवाल दिल्ली की जनता को एक स्वच्छ एवं पारदर्शी प्रशासन दें। क्या दिल्ली से झुग्गी-झोपड़ियां नहीं हट सकतीं और उनमें रहने वाले अन्यत्र नहीं बसाए जा सकते, दिल्ली से कचरा नहीं साफ हो सकता, यमुना का प्रदूषण नहीं कम हो सकता, सड़कों के आसपास बत्तियां नहीं लग सकतीं? जहां तक पुलिस का सवाल है, आप की यह मांग औचित्यपूर्ण है कि पुलिस पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण होना चाहिए। सभी राच्यों में ऐसी ही व्यवस्था है। संविधान के आठवें भाग के अनुच्छेद 239 ए में दिल्ली के लिए विशेष प्रावधान है। इसके अनुसार प्रदेश की विधानसभा को संविधान के अंतर्गत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है जो राच्यसूची या समवर्ती सूची में उल्लिखित है, सिवाय ऐसे मामलों के जो राच्यसूची के क्रमसंख्या एक , दो एवं 18 (भूमि) से संबंधित हैं। अर्थात, विधानसभा का पुलिस और पब्लिक आर्डर संबंधी विषयों पर कोई अधिकार नहीं है। दिल्ली पुलिस एक्ट की धारा 4 के अंतर्गत यह विषय एडमिनिस्ट्रेटर यानी लेफ्टिनेंट गवर्नर की जिम्मेदारी है, जो गृह मंत्रालय के पर्यवेक्षण में काम करेंगे।
इस विषय पर कोई निर्णय लेने के पहले हमें तीन बातों पर ध्यान रखना पड़ेगा। पहला तो यह कि पुलिस को सिद्धांतत: प्रदेश सरकार के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए। ऐसे भी पहाड़गंज में किसी दुष्कर्म या चांदनी चौक में किसी की हत्या से गृह मंत्रालय को क्या सरोकार हो सकता है? जनता अपनी तकलीफ जनप्रतिनिधियों से ही कह सकती है। दूसरी बात यह कि दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर के आयोजन होते हैं, जैसे गणतंत्र दिवस, जिसमें भारत सरकार के लगभग सभी विभाग भाग लेते हैं। इसके अलावा दिल्ली में सभी दूतावास हैं और जब तब विदेशों से विशिष्ट महानुभाव आते रहते हैं। इन सबकी सुरक्षा का दायित्व केंद्र सरकार पर ही होना चाहिए। तीसरी बात यह कि बदलते हुए राजनीतिक समीकरण को देखते हुए व्यवस्था ऐसी नहीं होनी चाहिए कि केंद्र और राच्य सरकार में मतैक्य न होने पर असमंजस की स्थिति हो और महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा में चूक हो। उचित यही होगा कि मोटे तौर से लुटियंस जोन और चाणक्यपुरी का क्षेत्र, जहां दूतावास हैं, इनका अलग क्षेत्र बनाया जाए और इसके लिए एक और पुलिस कमिश्नर हो जो सीधे गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करे। पुरानी दिल्ली का संपूर्ण क्षेत्र और नई दिल्ली के कुछ मुहल्ले वर्तमान कमिश्नर के ही नियंत्रण में रहें और उन्हें दिल्ली सरकार के अधीन रखा जाए। पारस्परिक सामंजस्य के लिए यह भी हो सकता है कि नई दिल्ली का पुलिस कमिश्नर वृहत दिल्ली के पुलिस कमिश्नर से जूनियर हो और उनके अधीन काम करे। इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत होगी, जिसके लिए आम सहमति बनानी पड़ेगी। इस संदर्भ में दिल्ली में पुलिस सुधार लागू हुए या नहीं, इस पर विचार करना भी आवश्यक है। 2006 में इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह आशा थी कि सबसे पहले केंद्र सरकार आदेशों का अनुपालन करते हुए एक नया पुलिस अधिनियम पारित करेगी। सोली सोराब ने अधिनियम का ड्राफ्ट भी बना दिया था, परंतु केंद्र सरकार उसको लेकर बैठी रही। नौकरशाही कोई ऐसा बिल चाहती ही नहीं जिससे पुलिस को स्वायत्तता मिले। संबंधित फाइल पिछले सात साल से दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच में चल रही है।
आप नेतृत्व को भी अपनी सोच को इस विषय में शुद्ध करना होगा। पार्टी का यह कहना कि वह पुलिस को फिक्स करेंगे या गणतंत्र दिवस के दिन पुलिस की सलामी लेकर उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाना, अपरिपक्वता दर्शाता है। आप नेतृत्व दिल्ली को और सुरक्षित बनाने के लक्ष्य में तभी सफल होगा जब वह पुलिस को लताड़ने के बजाय उसका सहयोग ले, उसकी दिक्कतों को समझे, उसको आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराए और उसके कामों में अन्य पार्टियों की तरह दखल न दे। इसका यह मतलब भी नहीं कि आप नेतृत्व पुलिस में भ्रष्टाचार से समझौता करे। गलत तत्वों से, चाहे वह किसी विभाग के हो, सख्ती से निपटना ही होगा।
[लेखक प्रकाश सिंह, सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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