पीएम मोदी ने की है जिस नए भारत की परिकल्पना उसमें पुलिस की छवि बदलना सबसे बड़ी चुनौती
देश में पुलिस की छवि को बदलना सबसे बड़ी चुनौती है। पुलिस की छवि ऐसी होनी चाहिए कि आम आदमी उस पर बेहिचक विश्वास कर सके।
बजेंद्र प्रताप सिंह। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस नए भारत की परिकल्पना की है, उसमें पुलिस का चेहरा बदलना बड़ी चुनौती है। समूचा देश इस वक्त महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की रोकथाम के लिए आंदोलित है। खासकर दुष्कर्म और हत्या के बढ़ते अपराध पुलिस के रवैये की व्यापक आलोचना का आधार बने हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में पुणे में आयोजित देश भर के पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के 55वें वार्षिक सम्मेलन में इस बात पर जोर दिया है कि महिलाओं के प्रति सुरक्षा का भाव जगाने वाली पुलिसिंग होनी चाहिए।
यह एक संयोग ही है कि जिस वक्त हैदराबाद से उन्नाव तक कि पुलिस कठघरे में खड़ी है, उसी वक्त पुणे में यह सम्मेलन आयोजित किया गया है। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों ने पुलिस सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया है। भारत की सिविल सोसाइटी अब अपराध के खिलाफ सामूहिक तौर पर सड़क पर उतरने लगी है। वह भयमुक्त माहौल और त्वरित न्याय की उम्मीद रखती है। उसे संविधान में यह सब गारंटियां दी गई हैं। ऐसे में न सिर्फ देश के राजनीतिक तंत्र को ही संवेदनशील होना पड़ेगा, वरन अदालतों के भी सचेत होने का यही सही वक्त है।
पीड़ित का पहला वास्ता पुलिस से है, और यदि पहले ही कदम पर उसे मदद की जगह दुत्कार और अपमान मिलेगा तो मुश्किलें बढ़ना तय है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पुलिस की छवि कैसी है? यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। जिस दिन प्रधानमंत्री ने पुणे में पुलिस में सुधार की नसीहत दी, ठीक उसी दिन भारत के गृह मंत्रालय की एक सर्वे रिपोर्ट ने पुलिस को आइना दिखाया है। यह सर्वे रिपोर्ट पुलिस को समग्रता के साथ सोचने के लिए अवश्य विवश करेगी। गृह मंत्रालय ने देश के 15,469 पुलिस थानों में से उन 79 पुलिस थानों के कामकाज पर जनता की राय जानी है जो देश के सर्वश्रेष्ठ थानों में शामिल हैं।
इन 79 सर्वश्रेष्ठ थानों के इलाके में रहने वाली महिलाओं, पुरुषों, बुजुर्गों और युवाओं से पुलिस के कामकाज के बारे में पूछा गया। इस दौरान 5,641 लोगों से बातचीत की गई। उसका निचोड़ सामने आया है कि आधे से अधिक नागरिक पुलिस के कामकाज से संतुष्ट नहीं हैं। न रिपोर्ट दर्ज करने में, न ईमानदारी में और न ही त्वरित कार्रवाई में। पुलिस का यह रवैया सामान्य थानों में कैसा होता है? क्या यह किसी से छिपा है। महिलाओं के मामलों की पड़ताल के लिए बने महिला थानों की भी ऐसी ही हालत है। यानी समग्र रूप से पुलिस के कामकाज सवालिया घेरे में हैं।
पीड़ितों के साथ पुलिस का बर्ताव कैसा है? इसे अधिकांश लोगों ने महसूस किया होगा। उत्तर प्रदेश के जिस उन्नाव जिले में एक दुष्कर्म पीड़िता को जिंदा जला दिया गया, उसे पुलिस ने थाने से भगा दिया था। उस पीड़िता की मौत और हैदराबाद के महिला पशु चिकित्सक से दुष्कर्म और हत्याकांड के बाद पैदा हुए हालात के बाद इन पुलिसकर्मियों पर क्या कार्रवाई हुई। मुख्यमंत्री के निर्देश पर थाने के प्रभारी और कुछ सिपाहियों को सस्पेंड किया गया। क्या एक लड़की को जिंदा जला दिए जाने के इस मामले में पुलिसकर्मियों को मिली यह सजा पर्याप्त है? इस पर भी विमर्श की जरूरत है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता वाजिब है कि पुलिस सुधार होना चाहिए। परंतु सिर्फ चिंता जाहिर करने भर से काम नहीं चलेगा। गृह मंत्रालय को पुलिस सुधार के लिए ठोस कदम भी उठाने होंगे। पुलिस की छवि इस सर्वे से पहले भी आम लोगों के मन में है और वह नकारात्मक ही है। गृह मंत्रालय को यह सर्वे करा लेना चाहिए कि थानों में कितने फीसद एफआइआर जिला अदालतों के आदेश के बाद दर्ज होती है। उत्तर प्रदेश की पुलिस तो इस मामले में दो कदम आगे है। दो माह पहले कानपुर के एक थाने में एक बुजुर्ग को पीटकर मार डाला गया।
उसका गुनाह यह था कि उसके बेटे के खिलाफ दहेज उत्पीड़न का केस दर्ज था और पुलिस उस बुजुर्ग से जानना चाहती थी कि उसका आरोपी बेटा कहां भागा हुआ है? थानों में मनमानी, बल प्रयोग और रिपोर्ट न दर्ज किए जाने की बढ़ती प्रवत्ति पर रोक नहीं लग पाई है। इस छवि के खिलाफ लोग सड़क पर उतरने लगे हैं। यह स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण नहीं है। भारत में जैसा मान-सम्मान और भरोसा देश की सेनाओं के प्रति है, वैसा ही रोजमर्रा की जिंदगी में साथ खड़े होने का दावा करने वाली पुलिस के लिए क्यों नहीं है? इसका जवाब पुलिसकर्मियों को भी खोजना चाहिए। किसी की छवि एक दिन में न गढ़ी जा सकती है और न बिगाड़ी। यह एक सतत प्रक्रिया है।
मोहल्ले में गश्त से लेकर थाने के अंदर किसी अपराध की रिपोर्ट लिखे जाने से लेकर अपराधियों पर कार्रवाई तक, पुलिस को मित्र की तरह नजर आना चाहिए। लेकिन एक सामान्य एफआइआर तक के लिए आम लोगों को किसी नेता, वकील या फिर जिला अदालत का सहारा लेना पड़ता है। गृह मंत्रालय को इस संबंध में एक सर्वे करा लेना चाहिए कि थानों में कितने फीसद एफआइआर जिला अदालतों के आदेश के बाद दर्ज होती है। हालिया बहुचर्चित मामलों की पृष्ठभूमि पर ही गौर करें तो पाएंगे कि एफआइआर दर्ज कराने में ही कितनी मुश्किल आई थी।
वैसे प्रयागराज में इसी वर्ष आयोजित कुंभ मेला में पुलिसिंग की एक बेहतर छवि दुनिया देख चुकी है। इन्हीं सीमित संसाधनों में उत्तर प्रदेश पुलिस के जवानों ने यह सब कर दिखाया था। मगर मुश्किल ये है कि पुलिस के चेहरे के अधिकांश हिस्से में दाग ही दाग हैं। पुलिस को आइना देखना चाहिए, यह उसके लिए रोजमर्रा की जिंदगी में अनिवार्य है। आम लोग उसकी छवि से रोज दोचार होते हैं। थाने से बाहर पुलिस की एक रोजमर्रा की छवि चौराहों पर लगे कैमरों में कैद है। किसी बड़ी वारदात के बाद अपनी सुविधानुसार ही पुलिस इन कैमरों को देखती है। कभी इस कैमरों में रिकॉर्ड गतिविधियां जनता के सामने दिखाई जाएं तो पुलिस अपने इस रूप को देखकर गर्व से सीना नहीं तान पाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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