राजनीति नीतिविहीन हो रही है। विचारहीन और निर्वस्त्र। राज और 'नीति' का जोड़ ही राजनीति है। नीति यहां राष्ट्रनीति है। लोकमंगल अभीप्सु कर्मप्रेरणा है। नीति कर्म बनती है और राज उसका फल। चुनाव नीति आधारित जनशिक्षण का अवसर होते हैं। भारतीय मतदाता 15 लोकसभाएं चुन चुके हैं। मतदाता जागरूक हुए हैं, लेकिन दलतंत्र लगातार नीतिविहीन। यहां विचार आधारित अभियान हैं ही नहीं। चेहरे ही चेहरे हैं। इन चेहरों में ज्यादातर वर्तमान या निवर्तमान मुख्यमंत्री हैं। नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, जयललिता और ममता सम्प्रति मुख्यमंत्री हैं। मुलायम सिंह उत्तार प्रदेश के मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री रहे हैं। सपा के प्रमुख मुलायम सभी दावेदारों में वरिष्ठ हैं। राहुल गांधी कांग्रेस का चेहरा हैं। उन्हें सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं। बेशक सरकार हड़काने का अनुभव है, लेकिन मनमोहन सरकार की उपलब्धियां गिनाना या नाकामियों पर सफाई देना उनकी मजबूरी है। कथित विचार प्रतिबद्धता वाले वामदल भी इन्हीं चेहरों पर दांव लगाने के लिए विवश हैं। मतदाता संसदीय उम्मीदवारों के लिए ही नोटा का बटन दबा सकते हैं। प्रधानमंत्री तय कर लिए गए हैं। प्रधानमंत्री चुनने का परंपरागत अधिकार बहुमत प्राप्त संसदीय दल को भी नहीं है।

बड़ा अजब-गजब है यह चुनाव। भारत को स्वाधीन हुए 67 बरस हो गए। कोई भी दल टिकट वितरण की सुसंगत प्रणाली नहीं बना पाया। भाजपा कार्यकर्ता आधारित पार्टी है। कार्यकर्ता पूरे पांच बरस काम भी करते हैं। वे विचार आधारित कार्यकर्ता प्रत्याशी चाहते हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने उपयुक्त प्रत्याशी की परिभाषा की थी-'जो सदन में दल के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करे और जो निर्वाचन क्षेत्र के लोगों की भावनाओं को प्रकट करे।' उन्होंने धन प्रभाव पर भी लिखा था, 'अनेक को किसी अन्य योग्यता पर नहीं, बल्कि धन क्षमता के कारण टिकट दिए जाते हैं। वे जनता के पास मत याचना नहीं वोट खरीदने जाते हैं।' उन्होंने गलत प्रत्याशी को वोट न देने की अपील भी की थी। डॉ. संपूर्णानंद ने उनके इस विचार की प्रशंसा की थी। आज विचारनिष्ठ नहीं 'जिताऊ उम्मीदवार' की प्रतिष्ठा है। राहुल गांधी ने खुली बैठकों में प्रत्याशी चयन की कसरत की। निष्ठावान कांग्रेसजनों की हसरत तो भी पूरी नहीं हुई। प्रत्याशी चयन को लेकर समूचे दलतंत्र में बवाल हैं। जनतंत्र का आधार दलतंत्र है। मूलभूत प्रश्न यह है कि जिस दलतंत्र में आंतरिक जनतंत्री बहसें नहीं हैं, जिसके पास प्रत्याशी चयन की कोई नियमावली नहीं है उससे जनतंत्र को पालने पोसने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

भारतीय राजनीति ने अपना वैचारिक आधार नष्ट कर दिया है। मोटे तौर पर यहां दो विचार थे। वामपंथ एक मजबूत विदेशी विचार था और राष्ट्रवाद भारतीय अनुभूति। राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व जनसंघ करता था। यही बाद में भाजपा हुई। लोहिया, नरेंद्र देव, मधुलिमये, किशन पटनायक आदि ने दोनों को मिलाकर भारतीय समाजवादी विचार का तानाबाना बुना था। कांग्रेस का कोई विचार नहीं था। कम्युनिस्ट छोड़ सभी विचारधाराओं ने स्वाधीनता संग्राम लड़ा था। स्वाधीनता के बाद कांग्रेस सत्तावादी हो गई। उदारीकरण ने कांग्रेसीकरण को आधुनिक बनाया। पार्टियां कंपनियां बन गईं। औद्योगिक कंपनियां पार्टियों के कामकाज में हस्तक्षेप करने लगीं। हाईकमानों ने इसका स्वागत किया। कंपनी का मुख्य लक्ष्य मुनाफा होता है-विचार नहीं। राजनीति का मुख्य लक्ष्य राज हो गया। नीति आधारित राज समाज के परिवर्तनकामी स्वप्न भहरा गए। अब सब कुछ गड्डमगड्ड हैं। जैसे वे, वैसे ये। मतदाता असमंजस में हैं। विचार भिन्नता ही दल पहचान का प्रतीक थी। अब विचार की जगह चेहरे हैं। चेहरों पर दांव हैं।

चुनाव सरकार या जनप्रतिनिधि चुनने का ही मौका नहीं होते। वे विचार आधारित जनशिक्षण का महत्वपूर्ण अवसर होते हैं। डॉ. लोहिया नीतियों पर राष्ट्रीय बहस के लिए ही पं. नेहरू के सामने चुनाव लड़े थे। कम्युनिस्ट, जनसंघ और सोशलिस्ट विचार प्रचार के लिए ही कमजोर सीटों पर भी प्रभावी जनअभियान चलाते थे। समाज का राजनीतिकरण जरूरी है। वैचारिक राजनीतिकरण, जाति, पंथ, मजहब और क्षेत्र की सीमाएं नहीं मानता। विचारों की टक्कर मूल्यवान है। यही लोकतंत्र की शान है। उम्मीदवारों की टक्कर बेमतलब है। चुनाव में मतदाता ही सम्राट है। प्रत्याशी चयन में मतदाता की सामान्य इच्छा की भी झलक नहीं है। वे अपने बीच काम करने वाला स्वच्छ छवि का प्रत्याशी चाहते हैं, लेकिन दल मतदाताओं के विवेक पर भरोसा नहीं करते। वे दागी, बाहुबली, धनबली प्रत्याशियों को जिताऊ मानते हैं। धन साधन और प्रचार से मतदाता को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं।

प्रत्याशी दलीय विचार के प्रतिनिधि होने चाहिए, लेकिन चुनावी महाभारत में दलीय प्रतिबद्धता की पहचान बहुत मुश्किल है। राजनीति दल निरपेक्ष हो रही है। पाला बदल थोक के भाव हुआ है। झंडा, टोपी और चुनाव निशान बदल गए हैं। मतदाता कैसे पहचाने? भ्रष्टाचार का खात्मा भाजपा का मुद्दा है, कांग्रेस का भी है। निजी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था सबका एजेंडा है। अर्थनीति पर कोई असहमति नहीं। पंथनिरपेक्षता पर आम सहमति है ही। दागी और भ्रष्ट छवि वाले उम्मीदवारों से कोई परहेज नहीं। जातीय अंकगणित सबकी चिंता है। विचारधारा के लिए विपक्ष में बैठने की घोषणा कम्युनिस्ट भी नहीं कर रहे हैं। तीन चार जिलों में ही प्रभाव रखने वाले छोटे-छोटे दल भी सरकार में जाने के लिए ही चुनाव लड़ रहे हैं। केजरीवाल की पार्टी की कोई संभावना नहीं, बावजूद इसके वे सत्ता में आकर मीडिया को ठीक करने की धौंस दे चुके हैं। दिल्ली के चुनावों ने भी उन्हें बहुमत कहां दिया था? उनकी सरकार नीतिविहीन राजनीति का ही सड़ा फल थी। इसलिए अल्पमृत्यु का शिकार हुई। प्रत्याशिता पर सभी दलों में बवाल हैं। चुनाव जनतंत्री उत्सव नहीं निर्मम युद्ध हो गए हैं और युद्ध की कोई आचार संहिता नहीं होती।

भारत अपनी सर्वोच्च प्रतिनिधि सभा चुन रहा है। 15वीं लोकसभा ने निराश किया। हुल्लड़ च्यादा रहा, कामकाज कम। कामकाजी लोकसभा और कर्मठ सदस्य सबकी अभिलाषा हैं। शिक्षित और जागरूक मतदाता तत्पर भी हैं, लेकिन प्रत्याशी देने वाले दलतंत्र ने निराश किया है। जनअभियानों में भी सारी बहसें चेहरों तक ही सीमित हैं। विदेश नीति, अर्थनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और गरीबी, बेरोजगारी जैसे बुनियादी प्रश्नों पर नीतिगत बहसें नहीं। गोमांस निर्यात रोकने या पशुधन संव‌र्द्धन जैसे राच्य के नीति निदेशक तत्वों पर भी नहीं। खेती किसानी भी बहस में नहीं है। चेहरे ब्रांड हैं। ब्रांड का प्रचार है। ब्रांड को लेकर ही तू तू मैं मैं है। तुम्हारा ब्रांड बकवास। घिसा पिटा बेकार और जनविरोधी, लेकिन हमारा ब्रांड अच्छा, टिकाऊ और मजबूत है। पहले इस्तेमाल करें, तब विश्वास करें। सभी ब्रांड क्षणभंगुर हैं। नया मॉडल आया, पुराना गया। दिक्कत है कि ब्रांड और मॉडल पांच साल तक चलते ही नहीं। नीति और विचार की सत्ता अमर है। चेहरे और ब्रांड विचार का विकल्प नहीं हो सकते। नीतिविहीन राजनीति ने मतदाता के विकल्प सीमित किए हैं। विकल्प कम हैं। विवेकपूर्ण मतदान ही एकमेव रास्ता है।

[लेखक हृदयनारायण दीक्षित, उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं]