कश्मीर में अलगाव दूर करने के लिए अनुच्छेद 370 हटाना जरूरी बता रहे हैं हरबंश दीक्षित

मोदी सरकार के मंत्री जितेन्द्र सिंह ने अनुच्छेद 370 की प्रासंगिकता पर एक बार पुन: बहस की शुरुआत कर दी है। इस पर स्वस्थ बहस का स्वागत करने के बजाय उमर अब्दुल्ला ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। यह ठीक नहीं है। किसी विषय पर स्वस्थ बहस लोकशाही की सबसे बड़ी ताकत होती है और संविधान के अनुच्छेद 370 सहित ऐसा कोई भी विषय नहीं है, जिसको बहस की स्वस्थ परंपरा से वंचित रखा जाना चाहिए।

उमर अब्दुल्ला जैसे कुछ लोग अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर की ब्रह्मनाल के रूप में निरूपित करते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसे अलगाववाद का मुख्य कारक मानते हैं। कश्मीरी विस्थापितों की दुर्दशा के मूल में वे अनुच्छेद 370 को ही मानते रहे हैं और आतंकवाद को निर्मूल करने के लिए अनुच्छेद 370 को हटाना जरूरी मानते हैं। लोकतंत्र का तकाजा है कि इन दोनों विपरीत विचारधाराओं पर एक स्वस्थ बहस हो, ताकि इनके गुण-दोष पर चर्चा की जा सके। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 कश्मीर को विशेष दर्जा देता है। रक्षा और विदेश नीति जैसे कुछ महत्वपूर्ण मामलों को छोड़कर बाकी सभी मामलों से संबंधित कानून को लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति की जरूरत होती है। यह एकमात्र ऐसा राज्य है जिसका अलग संविधान है। कश्मीर के लोग भारत के किसी हिस्से में जमीन खरीद सकते हैं, लेकिन शेष भारत के लोगों को कश्मीर में यह अधिकार हासिल नहीं है।

जम्मू-कश्मीर के लोग भारत के नागरिक हैं, लेकिन शेष भारत के लोग जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं माने जाते। अनुच्छेद 370 को संविधान में विशेष परिस्थितियों से निबटने के लिए लिपिबद्ध किया गया था। पाकिस्तानी आक्रमण की पृष्ठभूमि में वहां के नेता शेख अब्दुल्ला की सलाह पर जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया था। शायद यह उम्मीद रही हो कि आने वाले समय में हम धीरे-धीरे उसे मुख्यधारा में मिला लेंगे और जम्मू-कश्मीर भी दूसरे राज्यों की तरह भारत संघ में रच बस जाएगा, किंतु ऐसा नहीं हो सका। अनुच्छेद 370 का उपयोग जम्मू-कश्मीर के विलय की मजबूती के लिए होना चाहिए था, किंतु शेख अब्दुल्ला ने अपने हित में इसका उपयोग करते हुए धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर को कानून और संविधान के लिहाज से एक अलग द्वीप बना दिया।

अनुच्छेद 370 में दूसरी बातों के अलावा यह भी कहा गया है कि राष्ट्रपति, जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से आदेश जारी करके भारत के संविधान के उपबंधों को जरूरी परिवर्तन के साथ जम्मू-कश्मीर के लिए भी लागू कर सकते हैं। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर पर भी देश के दूसरे हिस्से जैसी व्यवस्था की जाएगी, लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। राष्ट्रपति ने 1954 में कान्स्टीट्यूशन (अप्लीकेशन टु जम्मू-कश्मीर) ऑर्डर जारी करके भारी फेरबदल के साथ जम्मू-कश्मीर पर लागू कर दिया। यह आदेश जम्मू-कश्मीर को शेष हिस्से से जोड़ने के बजाय अलग करने के लिए ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है।

सन 1954 के राष्ट्रपति के आदेश में कई बातों के अलावा भारत के संविधान के अनुच्छेद 35 के बाद 35क जोड़ा गया है। यह केवल जम्मू-कश्मीर पर लागू होता है। इसमें कहा गया है कि भारत के संविधान में किसी प्रावधान के होते हुए भी जम्मू-कश्मीर राज्य की विधानसभा भारतीय संविधान के दायरे के बाहर जाकर भी कानून बना सकती है। वह राज्य के स्थायी निवासियों के संबंध में, जम्मू-कश्मीर में लोगों को रोजगार हासिल करने, वहां पर अचल संपत्ति खरीदने, राज्य में बसने, सरकार से छात्रवृत्ति या अन्य किसी मद में सहायता पाने के संबंध में अलग से कानून बना सकती है। इसमें यह भी कहा गया है कि राज्य सरकार के कानून के इस अधिकार पर भारत के संविधान में वर्णित मूल अधिकारों या दूसरे उपबंधों के उल्लंघन के बावजूद उन्हें वैध माना जाएगा और उस सीमा तक भारत का संविधान लागू नहीं होगा।

सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि जिस काम को संसद के पूर्ण बहुमत द्वारा नहीं किया जा सकता उसे एक आदेश जारी करके कर दिया गया है। संविधान में संशोधन के लिए हमारे संविधान के अनुच्छेद 368 में एक प्रक्रिया निर्धारित की गई है। केशवानंद भारती के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि संसद के संविधान संशोधन के अधिकार की अपनी सीमा है और इस तरह के संशोधनों द्वारा संविधान के मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। संविधान को बचाए रखने के लिए जिस संशोधन को करने के संसद के अधिकार पर प्रतिबंध लगाए गए हैं, उनमें राष्ट्रपति के एक आदेश द्वारा संशोधन कर दिया गया है।

जम्मू-कश्मीर के मामले में लागू होने वाले अनुच्छेद 35क का व्यावहारिक प्रभाव यह है कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा कानून बनाकर चाहे तो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों को वहां निवास करने सहित तमाम अधिकार दे सकती है, किंतु शेष भारत के लोगों को उनसे वंचित कर सकती है। शेष भारत के लोगों को वहां नौकरी करने या छात्रवृत्ति इत्यादि प्राप्त करने पर रोक लगा सकती है। इसी अधिकार का प्रयोग करते हुए वहां पर यह कानून बनाया गया है कि जम्मू-कश्मीर की लड़कियों का विवाह राज्य के बाहर होने पर वे अपने उत्तराधिकार सहित अन्य अधिकारों से वंचित हो जाएंगी। इसमें सबसे हैरान करने वाला पहलू यह है कि जम्मू-कश्मीर का लड़का यदि किसी विदेशी लड़की से विवाह करता है तो उस विदेशी को तो जम्मू-कश्मीर में तमाम विशेषाधिकार हासिल हो जाएंगे, लेकिन यदि वहां की बेटी किसी भारतीय नागरिक से विवाह कर लेती है तो वह तमाम अधिकारों से वंचित कर दी जाएगी।

अब जब केंद्र में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिल गया है, उसकी अनुच्छेद 370 से जुड़ा वायदा पूरा करने की जिम्मेदारी होगी। इसके दो पहलू हैं। पहला संविधान में संशोधन से संबंधित है जबकि दूसरे का ताल्लुक सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से है। बीते वषरें में अनुच्छेद 370 को सामाजिक और राजनीतिक रूप से संवेदनशील बना दिया गया है। कुछ तत्वों ने निहित स्वार्थवश इसे सांप्रदायिकता और धर्मविशेष से जोड़ दिया है। भाजपा को अपना वायदा पूरा करने के लिए केवल संविधान के शब्दों में परिवर्तन करने की ही जरूरत नहीं होगी, बल्कि उसे इन स्वार्थी तत्वों से भी निबटना होगा।

(लेखक विधि मामलों के जानकार हैं)