योगी आदित्यनाथ

धर्म सदाचार और नैतिक मूल्यों के प्रति हमें आग्रही बनाता है। धर्म पर व्यक्ति और समाज का जीवन टिका है। धर्म को उपासना पद्धति, मत-मजहब के साथ नहीं जोड़ सकते। धर्म एक ही है। आप उसे मानव धर्म कह सकते हैं या व्यापक रूप देना है तो वह सनातन धर्म है। बाकी धर्म नहीं, मत-मजहब या संप्रदाय हैं। वे धर्म की श्रेणी में नहीं आते। धर्म के साथ व्यापक धारणात्मक व्यवस्था जोड़िए। धर्मनिरपेक्ष शब्द ने इस देश को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। धर्मनिरपेक्षता शब्द आजादी के बाद का सबसे बड़ा झूठ है। व्यवस्था जब किसी मत, मजहब या संप्रदाय के प्रति आग्रही न होकर सर्वपंथ समभाव के साथ आगे बढ़ेगी तभी आदर्श होगी। धर्म कर्तव्य, सदाचार और नैतिक मूल्यों का पर्याय है। अगर किसी व्यवस्था को इस सबसे निरपेक्ष करेंगे तो फिर वह अकर्मण्य ही होगी। सदाचार से निरपेक्ष व्यवस्था क्या होगी, दुराचार की होगी। नैतिक मूल्यों से निरपेक्ष व्यवस्था क्या होगी, पापाचार होगी। ब्रह्मांड में चर और अचर जो भी है उसका अपना धर्म है। वायु अपने धर्म का निर्वाह नहीं करेगी और जल अपने धर्म का निर्वाह नहीं करेगा तो क्या व्यवस्था संचालित हो पाएगी? सबकी अपनी उपासना पद्धति है। हम किसी पर अपनी आस्था नहीं थोप सकते। मैं तिलक लगाता हूं, बहुत लोगों को यह अच्छा नहीं लगता होगा, बहुत लोगों को अच्छा भी लगता होगा, लेकिन मैं कहता हूं कि इस कर्मकांड का वैज्ञानिक आधार है और मैं इसीलिए तिलक धारण करता हूं। हमारे शरीर को संतुलित करने वाली तीन प्रमुख नाड़ियां इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना, इन तीनों के मिलन स्थल-कपाल पर तिलक लगता है। विपरीत तत्वों के मिलन का जो स्थल होता है वहां ऊर्जा उत्पन्न होती है। उस ऊर्जा का उपयोग सही कर सकें, अंत:करण की ओर प्रेरित कर उसका उपयोग लोककल्याण के लिए कर सकें, आध्यात्मिक ऊर्जा का उपयोग आध्यात्मिक उन्नयन के लिए कर सकें, इसलिए हम तिलक धारण करते हैं। वह सौंदर्य का प्रतीक न होकर हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा और कर्मकांड से जुड़ा है। इसे पोंगापंथ नहीं मान सकते। हां, उसके नाम पर चल रही जो रूढ़िवादिता है और कर्मकांड के नाम पर जो पाखंड है उसे रोका जाना चाहिए। हम घर में तुलसी का पौधा लगाते हैं। तुलसी का पौधा लगाना पाखंड नहीं। आजकल डेंगू का प्रकोप है पर जो तुलसी का काढ़ा रोज पिएगा, वह डेंगू से बचा रहेगा। बहुत सारे लोगों को तुलसी पर आपत्ति होगी। सिर पर चोटी रखते हैैं, उस पर भी आपत्ति होगी, लेकिन यह पाखंड नहीं। यह सनातन धर्म परंपरा का वैज्ञानिक आधार है। हम रक्षासूत्र क्यों बांधते हैं हाथ में? रक्षासूत्र पाखंड का प्रतीक नहीं। आयुर्वेद में वात, पित्त और कफ प्रमुख हैं। वैद्य सबसे पहले इन तीनों का संतुलन ही देखते हैैं। इन तीनों के संतुलन का आधार है रक्षा सूत्र। बहुत से लोग उसे दूसरे तरीके से बांधते हैं। यह तो बुद्धि का अंतर है।


हमारा धर्म सनातन है। यह आदि धर्म है। यह सृष्टि के साथ चला धर्म है। इसमें कट्टरता तो हो ही नहीं सकती, लेकिन यह तो अजीब बात है कि कोई मेरे गाल पर एक थप्पड़ मारे और फिर भी मैं कहूं कि लो दूसरा गाल भी आगे कर रहा हूं। यह तो कायरता है। कोई थप्पड़ मारे तो उसका जवाब तो उसी रूप में देना चाहिए। समाज को पुरुषार्थी बनाना चाहिए, कायर नहीं। भगवान राम नहीं चाहते थे कि युद्ध हो, पर उन्हें शस्त्र उठाना पड़ा। भगवान कृष्ण भी नहीं चाहते थे कि महाभारत हो। दुर्योधन द्वारा बंधक बनाने के प्रयास के बावजूद उन्होंने समझौते के रास्ते बंद नहीं किए, लेकिन महाभारत हुई और न चाहते हुए भी उन्हें अस्त्र उठाना पड़ा।
हम कितना भी चाहें कि आतंकवाद का समाधान शांति से हो, लेकिन अंतत: हमें सुरक्षा बलों को शस्त्र उठाने के लिए प्रेरित करना पड़ता है। इसको सनातन धर्म की उदारता के साथ जोड़कर नहीं देख सकते। उदारता, सहिष्णुता सज्जनों के साथ होती है, दुर्जनों के साथ नहीं। जो दुर्जन हैं, लोक कल्याण के मार्ग में बाधक हैं, राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात करते हैं, एकता और अखंडता को चुनौती देते हैं वे शांति से नहीं मानेंगे। वे जिस रास्ते से-जिस तरीके से समझेंगे उसी से समझाना पड़ेगा।
धर्म और राजनीति, दोनों के उद्देश्य समान हैं। जब उद्देश्य में विरोधाभास हो, एक उत्तरी ध्रुव हो और एक दक्षिणी तो कठिनाई होती है। यहां दोनों का उद्देश्य लोक कल्याण के पथ पर आगे बढ़ना है। सत्ता उपभोग की वस्तु नहीं। सत्ता लोक कल्याण का माध्यम है। एक पीठ के आचार्य के रूप में भी हम उसी कल्याणकारी अभियान से जुड़े हैं। वहां पर धर्म एक माध्यम है और यहां राजनीति एक माध्यम है। धर्म और राजनीति परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। यह समझने की आवश्यकता है कि धर्म एक दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालीन धर्म है। दोनों को अलग नहीं कर सकते। भारत पर असहिष्णुता का आरोप वे लगाते हैं जो अपनी बुद्धि बेचकर उसका बाजारीकरण करते हैं। कोई ऐसी जाति नहीं, कोई ऐसा मत-मजहब नहीं जिसको भारत ने अपने यहां शरण न दी हो। पैगंबर मुहम्मद कभी भारत नहीं आए, लेकिन उनके समय में पहली मस्जिद भारत में बनी। यहां पहला चर्च भी हिंदू राजाओं ने बनवाया। पारसी समुदाय भारत आकर बचा। इजराइल भारत के प्रति भावनात्मक लगाव रखता है। केरल के एक पूर्व साम्यवादी मुख्यमंत्री ने एक मलयालम पत्रिका में लिखा था कि जब भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत हुई तो कहा गया कि भारत एक राष्ट्र नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीयों का समुदाय है। 1946-47 में जब स्वतंत्रता की बात हो रही थी तो इस समय भी साम्यवादियों ने कहा कि एक भारत को स्वतंत्रता कैसे मिल सकती है? भारतीयों की तो अलग-अलग राष्ट्रीयता है, लेकिन उन्हीं ने बाद में स्वीकार किया कि जब वह पूरे भारत के हिंदू धर्म स्थलों और पीठों में गए तो सोचा कि मैं तो उसी केरल से हूं जिस केरल से एक ऐसा संन्यासी निकला था जिसने भारत के चार कोनों में चार पीठों की स्थापना की। आखिरकार उन्होंने माना कि कम्युनिस्ट आंदोलन की सबसे बड़ी विफलता यह थी कि कम्युनिस्टों ने भारत को एक राष्ट्र नहीं माना।
जिन्होंने भारतीय परंपरा को जाना नहीं, जो विदेशी जूठन खाकर अपनी आजीविका चलाते हैं उन्होंने असहिष्णुता की बात की, लेकिन यह फेल हो चुका है। आज केरल में हिंदू आतंकित हैं। वहां साम्यवादियों की गुंडागर्दी है और उनकी बर्बरता के दृश्य रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। वहां पदयात्रा यात्रा के दौरान मुझे डेढ़ दर्जन ऐसे लोग मिले जिनमें किसी का एक पैर और किसी का एक हाथ नहीं था। आखिर असहिष्णुता की बात ये लोग कैसे कर सकते हैैं? इन दिनों मुख्यमंत्री कार्यालय की सफाई हो रही है तो लोगों को आपत्ति है। उनको हर जगह भगवा दिखाई देता है। भगवान सूर्य की जो किरणें निकलती हैैं वे भी तो भगवा हैैं। जिस अग्नि में उनका भोजन बनता होगा उसका रंग भी बदलेंगे क्या?
[ लखनऊ में दैनिक जागरण के साहित्य उत्सव संवादी में मुख्यमंत्री की ओर से दिए गए वक्तव्य का संपादित अंश ]