शनि शिंगणापुर मंदिर या हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा इन दिनों गरमा-गरम बहस का विषय बना हुआ है। इन दोनों मामलों के संदर्भ में पूजा या धार्मिक स्थलों में महिलाओं के प्रवेश के अधिकार को तार्किक आयाम देना बहुत ही आसान है। इस बहस का अंत जाने-अनजाने देश में पहचान की राजनीति पर ही खत्म होगा, जो कि हमारे सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में है। धु्रवीकरण के दौर में इसे एक धर्म बनाम अन्य धर्म, बहुसंख्यकवाद बनाम तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाता है।

हम चाहते हैं कि धर्म और आस्था के मुद्दे से राज्य यानी शासन तंत्र दूर ही रहे, लेकिन वोट बैंक और जोड़तोड़ की राजनीति ऐसा होने नहीं देती। परिणामस्वरूप इसने सेक्युलर भारत के विचार को जितनी हानि पहुंचाई है उतनी अन्य दूसरी चीज ने नहीं पहुंचाई है। राजनीतिक पार्टियां अपने को सेक्युलर बताती हैं, लेकिन उनका मकसद अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना पैदा करना होता है। वे स्वयं को उनके हितों की रक्षक के रूप में पेश करती हैं। यह सेक्युलर शब्द का दुरुपयोग है। हमारी राजनीति पारंपरिक रूप से ऐसे छल-कपट से भरी पड़ी है, जो अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने के बजाय उन्हें हाशिए पर रखना चाहता है। भाजपा हिंदू राष्ट्रवाद की बात करती है। वह बहुसंख्यकों और कथित रूप से कुछ पात्र समूहों को इसके केंद्र में रखती है। हिंदू राष्ट्रवाद का ऐसा वर्णन अनुचित है। देश में मौजूदा राजनीतिक माहौल में लोगों के बीच धर्म की गलत परिभाषा का संचार होने लगा है, जबकि एक सेक्युलर राष्ट्र में सरकार और जनता के बीच धर्म रूपी कोई दीवार नहीं होती। इस हालात के लिए राजनेता दोषी हैं। वे लोगों को इस कदर व्याकुल कर देते हैं कि उन्हें अपनी आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन जरूरी लगने लगता है।

ऐसे में महिलाओं के धार्मिक स्थलों में प्रवेश संबंधी बहस क्या महत्व रखती है? देखा जाए तो इसका महत्व है, क्योंकि यह एक दरगाह या मंदिर से ही जुड़ा हुआ विषय नहीं है, बल्कि यह एक लोकतंत्र में नागरिकों की समानता के अधिकार से जुड़ा मामला है। यह अधिकार संविधान ने हर भारतीय को दिया है। भारत के गणतंत्र बनने के साथ ही महिलाओं को पुरुषों के ही समान मत देने का अधिकार मिल गया था। देश को चलाने और भविष्य की रूपरेखा बनाने में जो भूमिका पुरुषों की है वही महिलाओं की है। यहां तक कि दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में भी महिलाओं को मत देने का अधिकार मिलने में 144 साल लग गए। मत देने का अधिकार उग्र विरोध प्रदर्शनों, ह्वाइट हाउस पर धरना, ढेरों गिरफ्तारियों और आमरण अनशन के बाद मिला था। यह सब सिर्फ मताधिकार हासिल करने के लिए हुआ, जबकि यह अधिकार आजाद भारत की नींव रखने के साथ ही बहुत ही सहजता से भारतीय महिलाओं को प्राप्त हो गया था।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 25 में किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता को नागरिकों का मौलिक अधिकार माना गया है। इसमें लिंग के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव का विरोध किया गया है। यहां परंपराओं और प्रथाओं के विरोध में भी तर्क मौजूद हैं। कोई कह सकता है कि कुछ परंपराएं और प्रथाएं परिवार के बड़ों का मान रखने के लिए मैं स्वच्छा से पालन करता हूं, तब इसमें हस्तक्षेप करना मैं जरूरी नहीं समझता था। यह अपनी मर्जी का मामला है, न कि किसी के फरमान को मानने की मजबूरी। बहरहाल जब कोई इस तरह का फरमान जारी करता है तब वह महिलाओं को समानता के अधिकार से वंचित करता है। परेशानी यहीं से शुरू होती है। मुंबई में सिद्धि विनायक मंदिर है, जहां स्त्री-पुरुष सभी के भगवान गणेश की मूर्ति को छूने पर रोक है। वहां हर किसी को दूर से ही दर्शन करना होता है। मंदिर प्रशासन ने यह व्यवस्था भीड़ को नियंत्रित करने के लिए की है, जिसका सभी पालन करते हैं। वहीं यदि जाति और लिंग के आधार पर एक समूह को मूर्ति छूने की अनुमति दे दी जाए तो देश के धर्म, कानून या संविधान की किताब में एक भी ऐसा तर्क नहीं है जो इस भेदभाव को वाजिब ठहरा सके।

हाल के दौरान इस तरह की प्रवृत्ति देखी गई कि जब महिलाओं के एक समूह ने मंदिर और दरगाह में प्रवेश करना चाहा तो उन्हें दूसरी नजरों से देखा गया। उनकी आस्था और विश्वास पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया। यहां तक कि उन्हें नास्तिक की संज्ञा दी गई। उनकी मांगों को अनुचित और अपारंपरिक बताना उनकी समानता के अधिकार को नकारने का अघोषित प्रयास था। आखिर प्रार्थना करना अनुचित कैसे हो सकता है? अनुचित कदम तो वह था जब एक साहसी लड़की द्वारा नवंबर 2015 में बैरिकेड पारकर शनि की पूजा अर्चना के बाद मंदिर प्रशासन ने शनि की मूर्ति का शुद्धिकरण किया था। मंदिर के लोगों की ओर से कहा गया कि लड़की के प्रवेश से मूर्ति दूषित हो गई है, लिहाजा उसे शुद्ध करना जरूरी है। महिलाओं के बारे में इस तरह की बातें कष्ट देने वाली हैं। खासकर उस हिंदुत्व के लिए जो समय के साथ पुरातन और भेदभावपूर्ण प्रथाओं को खत्म करने और नई प्रथाओं को अपनाने के लिए जाना जाता है। उदाहरण स्वरूप सती प्रथा का आज कोई नामोनिशान नहीं है, जबकि एक जमाने में भारतीय समाज में इसको स्वीकृति मिली हुई थी, बल्कि इसे पवित्र ठहराया जाता था।

शनि शिंगणापुर मामले में प्राय: एक तर्क को नजरअंदाज किया गया। यहां मंदिर प्रशासन की ओर से कहा जाता है कि यह प्रथा सैकड़ों साल से चली आ रही है, लेकिन हमारी सभ्यता तो हजारों साल पुरानी है। ऐसे में कुछ सौ सालों में स्थापित परंपरा का क्या महत्व है। किसी ने इस तर्क को आगे नहीं बढ़ाया। इससे पता चलता है कि शनि मंदिर हजारों साल पहले स्थापित हो गया था। यहां तक कि मंदिर की देखरेख करने वाला ट्रस्ट, प्रबंधन और उनके द्वारा बनाए गए कायदे-कानून से बहुत पहले उस मंदिर का अस्तित्व था। इस मंदिर में शनि महाराज खुले आसमान के नीचे स्थापित हैं, जिसका अर्थ है कि वहां हर कोई प्रवेश कर सकता है। यहां उभरे विवाद के संदर्भ में एक भी मजबूत तर्क पेश नहीं किया गया। सिर्फ परंपरा की बात की गई। प्रथा की ही बात करें तो भगवान स्त्री-पुरुष में भेदभाव नहीं करते। उसके सामने सभी बराबर हैं। कोई भी इंसान नहीं चाहता है कि स्त्री या पुरुष होने के कारण ही भगवान प्रार्थना को स्वीकारें। यह अच्छी बात है कि प्रार्थना करने वाली महिलाएं हैं और भगवान उनके साथ बराबरी की भावना रखते हैं।

[ लेखिका अद्वैता काला, जानी-मानी स्क्रिप्ट राइटर और ब्लॉगर हैं ]