किसी भी देश पर थोपी गई हिंसा की समस्या का समाधान हिंसा निरोधक तंत्र के विकास से ही संभव है। आज 21वीं शताब्दी का समाज अहिंसा और शांति का पक्षधर है, लेकिन युद्धप्रिय शक्तियों द्वारा हमारे राष्ट्र के समक्ष लगातार चुनौतियां प्रस्तुत की जा रही हैं। यहां यह समझना भी आवश्यक है कि सेना हिंसा का एक साधन है, न कि अहिंसा का। भारतीय थल सेना, नौसेना और वायुसेना के गठन का उद्देश्य शांतिप्रिय समाज पर दुश्मन के हमलों को रोकना अथवा उन्हें नियंत्रित करना है। इस प्रकार हमारी युद्ध क्षमताओं के विकास का मकसद अपने शत्रु के खिलाफ एक तरह की श्रेष्ठता हासिल करना है। इससे एक लाभ यह होता है कि हमारे व्यापारिक समुदाय को सुरक्षा मिलती है, जिससे वह न केवल अपने लिए, बल्कि राष्ट्र के लिए भी धन का सृजन करने में समर्थ होता है। इससे हमारे देश की आबादी को बाहरी हस्तक्षेप से सुरक्षा मिलती है, जिससे वह दिन-प्रतिदिन के कामकाज को सफलतापूर्वक और अनवरत रूप से पूरा कर पाने में समर्थ होती है।

यदि हम लोगों को हिंसा से सुरक्षा दिला पाने में असमर्थ रहते हैं और महज अहिंसा का उपदेश देते रहते हैं तो फिर तिब्बत की तरह घटनाएं स्वाभाविक हैं। हिंसा प्रधान साम्यवादी चीन ने आज तिब्बत पर कब्जा कर रखा है, जो पहले स्वाधीन था और अहिंसा के प्रति अत्यधिक प्रतिबद्ध भी। भारत से आयातित शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की विचारधारा के चलते तिब्बत में आम लोगों के जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए किसी तरह के सैन्य बल की जरूरत नहीं समझी गई। इस तरह जब चीन ने वहां अतिक्त्रमण किया तो ल्हासा नई दिल्ली की ओर देखता रहा कि उसे कोई मदद मिलेगी। इसमें दो राय नहीं कि तिब्बत में चीन के अतिक्त्रमण को रोकना न केवल तिब्बत के, बल्कि भारत के राष्ट्रीय हित में भी था। तिब्बत की रक्षा के लिए ब्रिटिश भारत में एक सुनिश्चित सैन्य योजना बनाई गई थी, लेकिन आजाद भारत में इस बारे में भ्रम बना रहा, जिसका खामियाजा कुछ भी नहीं कर पाने के रूप में आज हमारे सामने है। दुर्भाग्य से आज एक बड़ी संख्या में तिब्बती आबादी अपनी मातृभूमि से विस्थापित है और तकरीबन चालीस देशों में उन्हें निर्वासित जीवन जीना पड़ रहा है। तिब्बत के जो लोग वहां अभी भी बने हुए हैं वह जनसांख्यिकीय बदलाव का सामना करने को विवश हैं, क्योंकि धीरे-धीरे चीनी लोगों की संख्या बढ़ रही है। यह भी एक बड़ा पहलू है कि तिब्बत न केवल भौगोलिक, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी भारत के अधिक निकट है। पड़ोसियों के हाथों अपनी जमीन खो देने वाले अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की तरह ही इंदिरा गांधी ने भी विदेशियों को भारतीय जमीन में घुसपैठ करने दी। वोट बैंक की राजनीति के चलते 1983 में असम में इंदिरा गांधी ने अवैध प्रवासी ट्रिब्यूनल एक्ट को लागू किया। हालांकि बाद में इस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी और 2005 में इसे असंवैधानिक करार दिया। असम में लाखों की संख्या में बांग्लादेशी लोगों के आगमन से वहां के जनसांख्यिकीय स्वरूप में बड़ा बदलाव आ गया और आज असम के स्थानीय लोगों और अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों के बीच संघर्ष देखने को मिल रहा है।

किसी भी शांतिप्रिय समाज में तीन तरह की कमजोरियां होती हैं। पहला, इस तरह के समाज में सैन्य तैयारी पर बल नहीं दिया जाता, दूसरा वहां का आंतरिक प्रशासन अवांछित लोगों के प्रभाव से कुप्रबंधन का शिकार हो जाता है। यह एक तथ्य है कि भारत में ऐसी परिस्थितियां बनीं कि नक्सलवाद और माओवाद उभरा और अब वोट बैंक की राजनीति के कारण तालिबानी तरह के क्षेत्रों का विकास हो रहा है और यह दोनों ही खतरे राष्ट्र को भीतरी तौर पर कमजोर करने का काम कर रहे हैं। इसी तरह तीसरी कमजोरी दबाव की स्थिति में जल्दी हार मान लेने की प्रवृत्तिहै। प्राकृतिक रूप से अहिंसा में विश्वास करने वाले समुदाय पलायनवादी होते हैं, क्योंकि दृढ़ विचारधारा के अभाव में उनका प्रभाव सिमटने लगता है। साम्यवादी चीन अ?ैर पाकिस्तान अपना प्रभाव इसीलिए बढ़ा सके, क्योंकि भारत का अपने पड़ोसी देशों में प्रभाव सिकुड़ने लगा। अहिंसा की वकालत करते हुए गांधीजी और नेहरू की एकसमान भूल यही रही कि उन्होंने पाकिस्तान को और अधिक जगह दी। इसका परिणाम यह हुआ कि इस्लामिक गणराज्य ने एक इस्लामिक सेना का निर्माण किया, जिसने जिहादियों की एक बड़ी फौज तैयार की। इससे न केवल पाकिस्तान के भीतर संस्कृति की बहुलता प्रभावित हुई, बल्कि नई दिल्ली की अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों में पहुंच भी सीमित हुई। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज इन तीनों का उद्देश्य भारत को अस्थिर करना है।

नई दिल्ली में शांतिवादियों का एक समूह कहता है कि जिस तरह हम अपने रिश्तेदारों को बदल नहीं सकते, उसी तरह हम अपने पड़ोसियों को बदल नहीं सकते। यह सच है या गलत? गलत, क्योंकि चीन एक स्वतंत्र देश तिब्बत को ही निगल गया और हम आज एक नए पड़ोसी के साथ आमने-सामने हैं। नेहरू मॉडल की सबसे बड़ी भूल यही रही कि हमने एक बफर राज्य तिब्बत पर ध्यान नहीं दिया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आज चीन हमारी भूमि के 90 हजार वर्ग किमी क्षेत्र पर अपना दावा कर रहा है। यह आश्चर्यजनक है कि तिब्बत पर अतिक्त्रमण से पूर्व चीन का तिब्बत के साथ सीमा विवाद का मसला था। 1947 से भारत में दूरदृष्टि के अभाव और कमजोर नेतृत्व के चलते बीजिंग लगातार अपने भौगोलिक दावे का विस्तार करता गया। सौ सालों की विदेशी दासता के बावजूद आजाद देश में भी हमारा नेतृत्व चीन और पाकिस्तान के प्रति नरम रुख अपनाए हुए है। इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश में परिवर्तित करके अपने पड़ोसी देश में एक बड़ा बदलाव किया। उनकी सफलता का प्राथमिक कारण यही था कि उन्होंने सैन्य प्रमुखों से सीधी बात की और उनकी सलाह को माना। 1971 का पूरा युद्ध प्रोफशनल लोगों के हाथ में रहा। इस युद्ध में पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटने के साथ ही भारतीय सेना ने बड़ी जीत दर्ज की। युद्ध में जीत के बाद भी शिमला बैठक में समझौते की मेज पर भारत हार गया। एक विजेता देश के तौर पर हमारा उद्देश्य पाक अधिकृत कश्मीर को खाली कराना होना चाहिए था, लेकिन इसमें हम विफल रहे।

नीतिगत जकड़न से खुद को मुक्त करने के लिए भारत का घोषित लक्ष्य एशिया में खुद को एक सम्मानित लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में स्थापित करने का होना चाहिए। सारी रणनीतियां इसी मकसद की पूर्ति के लिए आगे बढ़ाई जानी चाहिए। तात्पर्य साफ है कि आर्थिक और सैन्य ताकत में वृद्धि की रणनीति और इस लक्ष्य की पूर्ति की कोशिश एक साथ चलनी चाहिए। अन्य लोकतांत्रिक देशों के साथ निर्णायक रणनीतिक साझेदारी करने की भी आवश्यकता होगी। इस लक्ष्य पर ध्यान लगाने से कमजोरी का भाव अपने आप मजबूती के आत्मविश्वास में बदलना आरंभ हो जाएगा। चीन और पाकिस्तान सरीखे विरोधियों का सामना करने के लिए भारतीय मस्तिष्क के सैन्यीकरण के संदर्भ में भी सोचा जाना चाहिए। इसके तहत सैन्य अधिकारियों को सिविल सेवा में शामिल किया जाना चाहिए और नीति निर्धारण में भी उनकी भूमिका होनी चाहिए।

[लेखक भरत वर्मा, जाने-माने रक्षा विशेषज्ञ हैं]

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