Analysis: हिंसक अपशब्दों के आक्रमण से भाषा का सामाजिक ताना बाना टूट रहा है, जानिए कैसे?
अपशब्द भाषाई विकल्प नहीं हो सकते। अपशब्दों, उत्तेजक मुहावरों से भारतीय भाषाओं की आनंदवर्धक विरासत नष्ट हो रही है।
नई दिल्ली [ हृदयनारायण दीक्षित ]। शब्द भाव और अर्थ के गर्भ हैं। शब्द जीवन रस को गाढ़ा और मधुर करते हैं। वे दुरुपयोग में मृत्युदाता भी हैं। ईशा मसीह ने कहा था, ‘लेटर किल्थ यानी शब्द मारते भी हैं।’ पतंजलि ने शब्दानुशासन की विवेचना में लिखा है कि एक ही शब्द अपने प्रयोग के अनुसार भिन्न अर्थ देता है। कबीर ने शब्द की मार को बड़ा बताया है। भारत में सभ्य शब्द का मूल मधुर वाणी है। सभ्य सभेय है। सभेय का अर्थ सभा में बोलने वाला सभा सदस्य। जो मधुर बोले वही सभ्य। अथर्ववेद में सभा में मधुर बोलने और सभ्य रहने की स्तुतियां हैं, लेकिन बीते दो दशकों से आक्रामक शब्द बोलने की प्रतिस्पर्धा है। संप्रति शब्द प्रयोग पर ब्रिटिश अर्थशास्त्री ग्रेशम का नियम लागू है। ग्रेशम ने बताया था कि ‘खोेटे सिक्के अच्छे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं।’ यहां अपशब्दों ने सुंदर शब्दों को चलन से बाहर कर दिया है। शब्द अंगार हो रहे हैं। आग बरस रही है। हिंसक अपशब्दों के आक्रमण से भाषा का रूप और अंतर्मन घायल हैं। विधायी सदनों में ऐसे शब्दों का कोलाहल है। अंदरूनी कामकाज से खफा सर्वोच्च न्यायपीठ के चार वरिष्ठ न्यायमूर्तियों ने ‘लोकतंत्र को खतरे में’ बताकर गलत शब्द प्रयोग में बाजी मारी।
अपशब्द प्रयोग से वादविवाद संवाद की क्षमता प्रश्नवाचक हो रही है
पद्मावत प्रसंग में शब्द मर्यादा का चीरहरण हुआ। सोशल मीडिया में भी ऐसी प्रवृत्ति जारी है। अपशब्द प्रयोग से वादविवाद संवाद की क्षमता प्रश्नवाचक हो रही है। संविधान भारत का राष्ट्रधर्म है। सामान्यतया संशोधनीय और मूलत: अपरिवर्तनीय यह ग्रंथ भारतीय जनगणमन के लिए माननीय है। हाल में गैर भाजपा प्रतिपक्ष ने एकजुटता दिखाई। यह उनका अधिकार है। उन्होंने केंद्र की आलोचना की, यह भी उनका अधिकार है। लेकिन ‘संविधान बचाओ’ का नारा उचित शब्द प्रयोग नहीं था। 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी तब संविधान में 53 संशोधनों के साथ उद्देशिका में भी बदलाव किए गए। सातवीं अनुसूची भी बदली गई। तब ‘संविधान बचाओ’ का नारा नहीं लगा। संविधान को राजनीतिक उपकरण बनाने का शब्द प्रयोग अनुचित है। न्यायपालिका आदरणीय है, लेकिन एक मसले में कोर्ट ने टिप्पणी की है कि कार्यपालिका अपना काम नहीं करती तो क्या हम चुप रहें? इस शब्द प्रयोग में कार्यपालिका की ढिलाई की खिंचाई है, लेकिन ऐसे शब्द प्रयोगों का गलत अर्थ निकलता है। क्या कार्यपालिका कभी ऐसा कह सकती है कि ढेरों लंबित मुकदमों का निस्तारण नहीं हो रहा है, न्याय का काम सुस्त है तो हम न्याय भी करेंगे। अच्छा हुआ कि महान्यायवादी ने यही तर्क नहीं दिया। शब्द प्रयोग की मर्यादा है।
भाषा मनुष्य ने गढ़ी है, वाणी प्रकृति की देन है
भाषा सामाजिक संपदा है। मानव जाति के इतिहास की प्राचीनतम उपलब्धि। भाषा मनुष्य ने गढ़ी है। वाणी प्रकृति की देन है। भाषा का सतत विकास हुआ है। ऋग्वेद (5.58.6) के अनुसार ‘भाषा बुद्धि से शुद्ध की जाती है। यह नदी के समान प्रवाहमान रहती है।’ दुनिया के सारे समाज भाषा ने ही गढ़े हैं। प्रख्यात भाषाविद् मोलनीविसी ने 1923 में कहा था कि भाषा सामाजिक संगठन का काम करती है। जर्मन भाषाविद् सामरलेट ने 1932 में यही विचार दोहराया था। सारा ज्ञान विज्ञान और दर्शन भाषा के कारण सार्वजनिक संपदा बनता है। भारत में वैदिक काल से ही भाषा को मधुर बनाने के प्रयास हुए। शब्द मधुरता की अभिलाषा अथर्ववेद (9.1) में है ‘हमारी जिह्वा का अग्रभाग मधुर हो, मूल भाग मधुर हो। हम तेजस्वी वाणी भी मधुरता के साथ कहें। वाणी मधुर हो।’ वैदिक साहित्य के भीतर मंत्रों के छोटे समूहों को ‘सूक्त’ कहा गया है। सूक्त का अर्थ है सु-उक्त अर्थात सुंदर कथन। जैसे वैदिक साहित्य में सूक्त हैं वैसे ही परवर्ती साहित्य में सूक्तियां हैं। सूक्तियां सुंदर उक्तियां हैं, लेकिन मौजूदा दौर ने भाषा वाणी में विष घोल दिया है। कुछ सचेत मन द्वारा, सजग रूप में और कुछ अचेत मन द्वारा अंधानुकरण करते हुए।
पद्मावती विवाद में एक चैनल की टिप्पणी ‘गुंडों के हवाले देश’ क्या वास्तव में सही है?
फेसबुक, ट्विटर आदि ने विचार अभिव्यक्ति का सुंदर मंच दिया है। इसमें कवियों के लिए कविता की जगह है, फेसबुक में जारी कविता दूर तक जाती है। यहां विचार संप्रेषण के सुंदर अवसर हैं, लेकिन बहुधा ऐसे मंच का दुरुपयोग अपशब्दों के लिए हो रहा है। गुस्सा है तो गुस्सा और भड़ास। गाली का मन है तो गाली। मूलभूत प्रश्न है कि आधुनिक टेक्नोलॉजी द्वारा उपलब्ध ऐसे अवसरों का सदुपयोग सत्य, शिव और सुंदर के लिए क्यों नहीं हो सकता? क्या हम भारत के लोग तकनीक के सदुपयोग करने के लिए तैयार हैं? आखिर क्यों अक्षम हैं हम सब? चैनलों द्वारा प्रसारित सामान्य कार्यक्रमों में भी प्रस्तोता जोर से बोलते हैं। समझ में नहीं आता कि किसी घटना के वर्णन में आक्रामक आवाज की जरूरत क्यों पड़ती है? पद्मावती विवाद में एक चैनल की टिप्पणी ‘गुंडों के हवाले देश’ क्या वास्तव में सही है? किसी विधायक, सांसद या व्यक्ति को बाहुबली या गुंडा कहने के पहले सम्यक विचार नहीं होते। क्या किसी भी व्यक्ति या प्रकाशन प्रसारण संस्था को अपशब्द प्रयोग की भी अबाध स्वतंत्रता है।
शब्द की शक्ति बड़ी है, दूर तक असर करती है
शब्द की शक्ति बड़ी है। यह दूर तक असर करता है। ऋग्वेद में वाणी देवता हैं। वाणी विश्व धारण करती है। उत्तर वैदिक काल में शतपक्ष ब्राह्मण के रचनाकार ने ‘वाणी को विराट’ कहा था। यजुर्वेद में भाषा को ‘विश्वकर्मा’ बताया गया है। भाषा जीवन का प्रवाह है। मधु आपूरित शब्द जीवन को मधुमय बनाते हैं। अप्रिय शब्द जीवन में विष घोलते हैं। संप्रति देश वायु प्रदूषण की चपेट में है, जल प्रदूषण की मार है ही। शब्द प्रदूषण ने सामाजिक छंदबद्धता को तोड़ दिया है। आक्रामक शब्दों से लैस अपनी ही बात को सही बताने वाली सेनाएं हैं। संविधान ने ‘संगठन बनाने व निरायुद्ध सम्मेलन का मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 19 बी व सी) दिया है, लेकिन लोकव्यवस्था को क्षति पहुंचाने में सरकार को कार्रवाई के अधिकार हैं। ‘निरायुद्ध सम्मेलन’ ध्यान देने योग्य हैं। हथियार सहित सम्मेलन लोकव्यवस्था के विरूद्ध हैं। यह अधिकार सेना और पुलिस का है। ‘सेना’ शब्द भी कम विचारणीय नहीं है। भारत की सुरक्षा में तैनात बल ही सेना है। दूसरा कोई संगठन सेना कैसे हो सकता है? कुछ अर्सा पहले तक बिहार में भी तमाम सेनाएं थीं। अन्य भागों में भी हैं। बेशक वे सशस्त्र अभियान नहीं चलातीं, लेकिन उनकी भाषा में सेना का अनुशासन कम और भाषाई आक्रामकता अधिक होती है।
दुनिया ग्रह नाप रही है और हम अपनी भाषा बिगाड़ रहे हैं
अपशब्द भाषाई विकल्प नहीं हो सकते। अपशब्दों, उत्तेजक मुहावरों से भारतीय भाषाओं की आनंदवर्धक विरासत नष्ट हो रही है। हिंसा ही उसकी अंतिम परिणिति है। लोग तने हुए हैं, सामाजिक ताना बाना तोड़ रहे हैं। राष्ट्रीय एकता का अंतर्संगीत टूट रहा है। दुनिया तमाम ग्रह नाप रही है और हम अपनी भाषा ही बिगाड़ रहे हैं। ऋग्वेद के ऋषि ने वाणी के चार रूप बताए थे। पहला रूप है परा। यह मन में स्थित रहती है। पश्यंती दूसरी है-अब बोलने का विचार उठा है। तीसरी स्थिति मध्यमा में विचार का शब्द संधान होता है यहां शब्द योजना बनती है। विवेकीकरण होता है। फिर बोले गए रूप को बैखरी बताया है। साधारण लोग पहली तीन स्थितियां नहीं जानते। वे केवल चौथे का ही प्रयोग करते हैं। लेकिन यहां परिस्थिति उल्टी है। सार्वजनिक जीवन के प्रतिष्ठित लोग सोच समझकर ही अपशब्द बोल रहे हैं। समाज तनाव में है और तनावग्रस्त समाज राष्ट्रनिर्माण में प्रगति नहीं करते।
[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]