क्या है प्रणाली

न्यायपालिका के शीर्ष पदों यानी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति व स्थानांतरण का निर्धारण करने वाला एक फोरम है। इसमें देश के मुख्य न्यायाधीश सहित सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं। हालांकि इस प्रणाली का भारतीय संविधान में उल्लेख नहीं है।

क्या कहता है संविधान

अनुच्छेद 124 के तहत सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति की जाती है। इसके अनुसार राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर अन्य जजों की नियुक्ति करते हैं। हाई कोर्ट के जजों की नियुक्तियों का प्रावधान अनुच्छेद 217 में दिया गया है। इसके अनुसार राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश और राज्य के राज्यपाल से सलाह मशविरा करके जजों की नियुक्ति करेगा।

कोलेजियम सिस्टम की उत्पत्ति

इस प्रक्रिया का उद्भव थोड़े-थोड़े अंतराल पर दिए गए तीन फैसले से हुआ। जिसे कालांतर में 'थ्री जजेस केसेज' भी कहा गया। एसपी गुप्ता मामले को 'फ‌र्स्ट जज केस' कहा गया। इसमें घोषित किया गया कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति को दी गई सलाह की श्रेष्ठता को वाजिब तर्को से इन्कार किया जा सकता है। इस फैसले ने न्यायिक नियुक्तियों पर एक बार फिर कार्यपालिका का वर्चस्व कायम किया जो 12 साल तक चला।

न्यायपालिका की श्रेष्ठता कायम

6 अक्टूबर, 1993 को सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की एक खंडपीठ ने फैसला सुनाया जिसे 'सेकंड जजेस केस' कहा गया। इसने एक तरीके से कोलेजियम प्रणाली की जमीन खड़ी की। जस्टिस एसपी गुप्ता के पूर्व के फैसले को पलटते हुए इसमें कहा गया कि चूंकि यह मसला न्यायिक परिवार से ही जुड़ा हुआ है लिहाजा मुख्य न्यायाधीश की भूमिका इन मामलों में श्रेष्ठ रहनी चाहिए। कार्यपालिका की इस मामले में बराबर की भूमिका नहीं होनी चाहिए। ऐसी नियुक्तियों में मुख्य न्यायाधीश की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए। इस फैसले ने 'परामर्श' शब्द को अति लघु रूप प्रदान किया।

जारी मतभेद

हालांकि मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर खंडपीठ के सदस्यों के मतभेद भी उभरे। किसी ने मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार दूसरे जजों तो किसी ने दो अन्य जजों की भूमिका की बात कही। बहरहाल अगले पांच साल तक मुख्य न्यायाधीश की भूमिका को लेकर संशय बरकरार रहा। कई मामलों में मुख्य न्यायाधीश ने दो सहयोगियों को दरकिनार करते हुए अकेले फैसला लिया। इस सबके अलावा राष्ट्रपति इन मामलों में महज अनुमोदक की भूमिका रह गई।

संशय हुआ दूर

1998 में राष्ट्रपति केआर नारायणन ने प्रेसीडेंसियल रेफरेंस जारी कर सुप्रीम कोर्ट से पूछा कि क्या 'परामर्श' का मतलब केवल मुख्य न्यायाधीश की राय से है या फिर कई जजों से मिलकर बनने वाली राय से है? उत्तर में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण के लिए बने कोरम की कार्यशैली को लेकर नौ दिशानिर्देश दिए। इसी ने मौजूदा कोलेजियम सिस्टम को जन्म दिया। इसके अतिरिक्त 28 अक्टूबर, 1998 को जस्टिस एसपी भरुचा के एक फैसले में कार्यपालिका पर न्यायपालिका की श्रेष्ठता रखने पर जोर दिया। इसे 'थर्ड जजेस केस' कहा जाता है।

कोलेजियम की खामियां

* बिना सचिवालय या अभ्यर्थी जजों की पृष्ठभूमि के बारे में इंटेलीजेंस एकत्र करने की प्रणाली के नियुक्ति और स्थानांतरण का प्रशासकीय दायित्व किसी बोझ सरीखा है।

* बिना किसी औपचारिक और पारदर्शी प्रणाली के यह एक बंद कमरे में लिए गए फैसले जैसा है।

* सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए हाई कोर्ट के वरिष्ठतम जजों के चयन में कोलेजियम की सीमाएं आड़े आती हैं। इससे प्रतिभावान वरिष्ठ जजों और वकीलों की अनदेखी होती है।

प्रस्तावित विकल्प

एक राष्ट्रीय न्यायिक आयोग प्रस्तावित है। 2003 में राजग सरकार द्वारा 98वां संविधान संशोधन बिल पेश किया गया। इसके प्रावधान के मुताबिक मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले इस आयोग के सुप्रीम कोर्ट के दो अन्य वरिष्ठ जज सदस्य होंगे। कानून मंत्री इसके सदस्य होंगे। इसके अलावा प्रधानमंत्री की सलाह पर किसी गणमान्य नागरिक को भी राष्ट्रपति द्वारा इसका सदस्य नियुक्त किया जाएगा।

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