पिछले दिनों पाकिस्तान की ओर से भारतीयों पर दोहरे हमले भारत के राजनीतिक संकट और नेतृत्व के ढुलमुल रवैये से उपजी कमजोरी का नतीजा हैं। पहले जलालाबाद में वाणिज्य दूतावास पर आतंकी हमला किया गया और इसके बाद घात लगाकर पांच भारतीय सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। भारत ने खुद को इतना कमजोर, लाचार और डरपोक कभी पेश नहीं किया है जितना कि आज कर रहा है।

आज जम्मू-कश्मीर के दोनों ओर से पाकिस्तान और चीन भारत को निशाना बना रहे हैं और टकराव के लिए उकसा रहे हैं। एक तरफ चीन ने लद्दाख में घुसपैठ बढ़ा दी है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान बार-बार युद्धविराम का उल्लंघन कर रहा है। सवाल यह है कि क्या ये दोनों 'सदाबहार मित्र' संयुक्त रूप से भारत पर दबाव बनाने की नीति पर चल रहे हैं? इस सवाल की परख में बीजिंग के खुलकर कश्मीर कार्ड खेलने पर ध्यान देना होगा। भारत अरुणाचल प्रदेश में अतिरिक्त सुरक्षाबल तैनात कर रहा है, खासतौर पर संवेदनशील तवांग घाटी में, जबकि चीन ने कश्मीर पर ध्यान केंद्रित किया हुआ है। वह जम्मू-कश्मीर पर भारत की संप्रभुता को विवादित बता रहा है, लद्दाख में घुसपैठ कर रहा है और पाक अधिकृत कश्मीर में अपनी जड़ें जमा रहा है।

जब भी पाकिस्तान की ओर से हमला होता है या चीन सीमा का उल्लंघन करता है, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चारों ओर से घिरी हुई सरकार अपना दूसरा गाल भी आगे कर देती है जैसेकि भारत के पास बस तुष्टिकरण या फिर युद्ध के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं हैं। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि भारत ने हर कार्रवाई को हल्के में लिया है।

इस साल अप्रैल-मई में जब चीनी सेना भारतीय सीमा में 19 किलोमीटर अंदर तक घुस आई थी तो भारत के विदेशमंत्री ने इसे मुंहासे का छोटा सा निशान बताया था। पांच सैनिकों की हत्या के बाद रक्षामंत्री ने संसद में जो बयान दिया, उससे पाक सेना और सरकार पाक-साफ सिद्ध हो जाती है। रक्षामंत्री के पास घटनाक्त्रम का आकलन करने के लिए कोई स्वतंत्र पद्धति नहीं है, फिर भी राजनीतिक लाभ के लिए उन्होंने सेना के आकलन को तोड़-मरोड़ कर पेश किया। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जिम्मेदार मंत्रियों और अनाड़ी गृहमंत्री, जिनकी टिप्पणियों से पाकिस्तान और हाफिज सईद जैसे इसके पिट्ठू आतंकियों को फायदा पहुंचा है, ने भारत के गले में चक्की का पाट बांध दिया है। यह किसी के लिए भी समझ पाना मुश्किल है कि रक्षा मंत्री एके एंटनी ने किस आधार पर पाकिस्तान सेना को क्लीनचिट दी?

अमेरिका और अन्य महत्वपूर्ण लोकतंत्रों में हमले के तुरंत बाद शीर्ष नेता सार्वजनिक बयान जारी करते हैं, किंतु मनमोहन सिंह अपनी शुरुआती प्रतिक्त्रिया चुप्पी साधकर देते हैं, जैसे वह सुनिश्चित कर लेना चाहते हों कि शांति प्रक्त्रिया पटरी से न उतर जाए। अगर प्रधानमंत्री भी सोनिया गांधी की तरह त्वरित टिप्पणी करते तो इससे देश को जबरदस्त झटका लगता, जो उन्हें निरीह व्यक्ति मानता है।

यहां तक कि जब पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत की सीमा में घुसकर दो सैनिकों का सिर कलम कर दिया और एक कटे हुए सिर को 'ट्राफी' के रूप में अपने साथ ले गए तब भी पाकिस्तान के साथ सामान्य संबंध बनाने की मनमोहन सिंह की इच्छा नहीं दबी। उनके लिए तो कोई भी पाकिस्तानी या चीनी आक्त्रमण एक सामान्य सी घटना है। इसका भारत की सुरक्षा और साख पर बड़ा घातक असर पड़ा है। पड़ोसी देशों के हमलों पर मनमोहन सिंह की निष्कि्त्रयता और निर्लिप्त भाव से इसे बर्दाश्त करने की क्षमता से पाकिस्तान व चीन भारत पर हमले करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहे हैं। प्रधानमंत्री की इसी निष्कि्त्रयता और उदासीनता के कारण सरकार की विदेश नीति में जनता का भरोसा डिग गया है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि मनमोहन सिंह पहले ही पाकिस्तान को अनेक इकतरफा राजनीतिक छूटें दे चुके हैं, इनमें वार्ता को आतंकवाद से अलग रखना भी शामिल है। उन्होंने अनेक मुद्दों पर पाकिस्तान के प्रति सद्भावना प्रदर्शित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जैसे क्त्रिकेट संबंध सुधारना और पाकिस्तानियों के लिए वीजा नियमों में ढील देना। इन तमाम कदमों से पाकिस्तान पहले से और आक्त्रामक ही हुआ है।

हालिया घटनाओं ने पाकिस्तान के प्रति भारत की नीतिगत दुविधा को बढ़ाया है। यदि संभव हो तो भारत पाकिस्तान में नागरिक सरकार के हाथ मजबूत करने में जो भी थोड़ा-बहुत सहयोग दे सकता है, देना चाहेगा। शांति प्रक्त्रिया भी ऐसा ही प्रयास हो सकता है। किंतु ये प्रयास तभी सार्थक सिद्ध हो सकते हैं जब पाक सरकार शक्तिशाली सेना पर अपनी अधिसत्ता स्थापित करे और देश की विदेश नीति, खासतौर पर भारत नीति, पर अपना नियंत्रण करे। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अब तक ऐसी अधिसत्ता स्थापित करने का जरा भी प्रयास नहीं किया है। वास्तव में, अपने राजनीतिक कैरियर के दौरान शरीफ नागरिक और सैन्य दोनों मंचों पर नृत्य करते रहे हैं। राजनीति में उनका प्रादुर्भाव सेना के आदमी की छवि के साथ हुआ किंतु इसी के साथ जब उन्होंने सेना द्वारा तैयार किए गए मानदंडों का उल्लंघन करना चाहा, तो वह मुसीबत में पड़ गए। उन्होंने जल्द ही सबक सीख लिया कि फिर से सेना के साथ न टकराएं।

जब पाकिस्तान में आज तक सेना प्रभावी ढंग से भारत के खिलाफ नीति निर्धारित कर रही है, तो भारत किसके साथ वार्ता कर भारत-पाक संबंधों में नई दिशा की तलाश कर सकता है? पाकिस्तान के साथ वार्ता को उत्सुक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस सवाल का जवाब नहीं सूझने पर कन्नी काट लेते हैं। मनमोहन सिंह की सरकार आजादी के बाद की सबसे कमजोर सरकार हो सकती है, किंतु भारत की विदेश नीति तो इसी के हाथ में है। दूसरी तरफ शरीफ सरकार संख्या बल के आधार पर राजनीतिक रूप से मजबूत दिखाई देती है, लेकिन उसका विदेश नीति के नाजुक अंगों पर कोई नियंत्रण नहीं है।

इस आलोक में भारत-पाक संबंधों का भविष्य पाकिस्तान के सैन्य-नागरिक प्रशासन में संतुलन पर निर्भर करते हैं। जब तक यह नहीं होता महज भारत-पाक वार्ताओं से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। फिर भी मनमोहन सिंह आतंकवाद के निर्यातक पाकिस्तान के साथ शांति के सपने देख रहे हैं। भारत की पाक नीति उम्मीदों पर कायम है, न कि भूराजनीतिक यथार्थ पर।

[लेखक ब्रह्मा चेलानी, सामरिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]

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