आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश, खासकर मुजफ्फरनगर, मेरठ, शामली आदि जिले सांप्रदायिक उन्माद की आग में जल रहे हैं। जबसे समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ हुई है तबसे 50 से अधिक सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हो चुकी हैं। वोट बैंक की राजनीति को पोषित करने के लिए समाजवादी पार्टी ने कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी और प्रशासन, दोनों का सांप्रदायीकरण करने की कोशिश की है। राज्य में फैली हिंसा उसी का परिणाम है। अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो अखिलेश यादव सरकार की नीतियों, फैसलों पर सवाल खड़े करते हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण ग्रेटर नोएडा की पूर्व एसडीएम दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन है। कर्तव्यपरायण दुर्गा शक्ति का अपराध इतना था कि उन्होंने सरकारी जमीन पर बनाई जा रही मस्जिद की गैरकानूनी दीवार को गिरवा दिया था। स्वाभाविक रूप से इस घटना से प्रशासन और पुलिस के उन अधिकारियों को गलत संदेश गया है जो अपने दायित्व को प्राथमिकता देते हैं।

राच्य में भड़की हिंसा वर्तमान सत्ता अधिष्ठान में कट्टरपंथियों के बढ़े प्रभाव को ही रेखांकित करती है। मुजफ्फरनगर के कवाल गांव में विगत 27 अगस्त को एक लड़की से छेड़छाड़ करने पर हिंसा आरंभ हुई थी। कटु सत्य यह है कि सपा के संरक्षण में एक समुदाय का कट्टरवादी वर्ग निरंकुश हो गया है। विगत 15 अगस्त को सहारनपुर के सरसावा के कुतुबपुर गांव में प्रभातफेरी लगा रहे छात्र-छात्राओं ने जैसे ही वंदे मातरम गाना शुरू किया, दंगाई लाठी-डंडों के साथ उन पर टूट पड़े। वंदे मातरम के विरोध की जो रुग्ण मानसिकता है, वस्तुत: वही मानसिकता प्रदेश में सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट कर रही है। विडंबना यह है कि सभ्य समाज को रक्तरंजित करने वाली मानसिकता पर तथाकथित सेक्युलर दलों के साथ राष्ट्रीय मीडिया मौन रहता है। तथाकथित सेक्युलरवाद और वोट बैंक की विभाजनकारी राजनीति के कारण कट्टरपंथियों के पोषण की विकृति कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली है। केरल में एक बार फिर कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां कोयंबटूर और बेंगलूर धमाकों के आरोपी अब्दुल नासेर मदनी को रिहा कराने के लिए एकजुट हो रही हैं। 8 अप्रैल, 1998 को हुए कोयंबटूर धमाके में 58 लोग मारे गए थे और मदनी उसका मुख्य आरोपी है। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता मदनी फिलहाल एक अन्य आतंकी घटना के कारण कर्नाटक सरकार की कैद में है। इससे पूर्व 26 मार्च, 2008 को होली की छुट्टी के दिन केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर मदनी को पैरोल पर रिहा कराने के लिए सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया। प्रत्येक विधानसभा चुनाव में मदनी का आशीर्वाद पाने के लिए कांग्रेस और कम्युनिस्टों में होड़ लगती है।

पिछले दिनों महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने राच्य के 1,889 मदरसों के आधुनिकीकरण का निर्णय लिया और उसके लिए सरकार ने 10,000 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा। क्या किसी सेक्युलर राज को एक मजहब विशेष के प्रचार-प्रसार के लिए राजकोष से धन उपलब्ध कराना चाहिए? आधुनिकीकरण केवल कंप्यूटर उपलब्ध कराने या अंग्रेजी सिखाने से नहीं हो सकता है। आधुनिकीकरण का सीधा संबंध मानसिकता से है। जिन लोगों ने अमेरिका में 9/11 को अंजाम दिया वे सब अंग्रेजी जानते थे, विमान उड़ाना जानते थे और तकनीकी रूप से सक्षम भी थे। चूंकि उनकी मानसिकता विषाक्त थी इसलिए उन्होंने अपनी इस योग्यता का उपयोग जिहाद के नाम पर कई हजार लोगों की जान लेने के लिए किया।

मदरसों द्वारा दीनी तालीम देने पर किसी को कोई आपत्तिनहीं हो सकती, किंतु ऐसे मदरसों का वित्तापोषण राजकोष से नहीं, मुस्लिम समाज द्वारा होना चाहिए। मदरसे मुख्यधारा वाले विद्यालयों का विकल्प नहीं हो सकते। वह उन मुस्लिम छात्रों को अतिरिक्त सुविधा प्रदान कर सकते हैं जो मुख्यधारा वाले विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं और अपने खाली समय में मजहबी तालीम लेना चाहते हैं। मुख्यधारा वाले विद्यालय से निकले छात्र और मदरसा शिक्षित छात्र के वैश्रि्वक दृष्टिकोण में भारी अंतर होना अवश्यंभावी है। उन दोनों छात्रों के सपने और जीवन लक्ष्य अलग होंगे और भारत के बारे में भी उनकी कल्पना एक नहीं होगी। दोहरी शिक्षा की इस पृष्ठभूमि में भारत क्या एक रह सकता है?

मदरसा शिक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी खामी यह भी है कि छात्रों का संपर्क केवल मुसलमान बच्चों व अध्यापकों के साथ होता है। इसके परिणामस्वरूप उनका दृष्टिकोण, वेशभूषा और भाषा शेष समाज से अलग होती है। बाहरी दुनिया से कटाव उन्हें दूसरे समुदाय के आचार-विचार और जीवनदर्शन से अपरिचित रखता है। यही अज्ञान आगे चलकर दूसरे मजहबों के बारे में पहले भ्रांतियां और बाद में भय का निर्माण करता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 और 15 मजहब या जाति के आधार पर भेदभाव नहीं होने देने का वचन देता है। इन्हीं अनुच्छेदों का प्राणतत्व जिंदा रखने के लिए कोलकाता उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों पश्चिम बंगाल सरकार की ऐसी ही राष्ट्रविरोधी एक योजना को निरस्त कर दिया। अप्रैल, 2012 में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राच्य के इमामों को 2500 रुपये और उनके हर सहायक को एक हजार रुपये प्रति माह देने की घोषणा की थी। राच्य द्वारा ऐसे नीतिगत निर्णय ही समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोलते हैं और उस विष की परिणति दंगों में होती है। हालिया दंगों में करीब ढाई दर्जन मासूमों की जानें जा चुकी हैं। मरने वाले हिंदू थे या मुसलमान, यह बहस निरर्थक है, क्योंकि वे सब भारतीय थे। पर इस बवाल के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या केवल वे हाथ जो हिंसा के लिए उठे थे? क्या वे नहीं जिन्होंने पहली घटना को अंजाम देकर इन वीभत्स दंगों की शुरुआत की? क्या वह राजनीतिक चिंतन कसूरवार नहीं जिसने सेक्युलरवाद का रूप इतना विकृत कर दिया है कि वह मुस्लिम कट्टरवाद के पोषण का पर्याय बन गया है? क्या वे पुलिस अधिकारी जवाबदेह नहीं जो इस रुग्ण चिंतन से प्रभावित होकर अपराध की गंभीरता को नहीं, बल्कि अपराधी के मजहब को ध्यान में रखकर कार्रवाई करते हैं?

उत्तार प्रदेश के अलग-अलग भागों में भड़की यह हिंसा सेक्युलरवाद के नाम पर किए गए कट्टरवाद के तुष्टीकरण का रक्तरंजित परिणाम है। जब राजनीतिक दल और उनके तथाकथित सेक्युलरवादी सहयोगी कट्टरपंथियों को प्रोत्साहन देते हैं तो वास्तव में वे वृहत मुस्लिम समाज से अन्याय करने के साथ उस समाज के प्रगतिशील तत्वों और आधुनिक सोच रखने वालों को भी निरुत्साहित करते हैं। जब तक सेक्युलरवाद के नाम पर उस मानसिकता को पुष्ट करने वाले कदमों और कट्टरवादी मुस्लिमों को राच्याश्रय मिलता रहेगा तब तक इस तरह की रक्तरंजित घटनाओं की पुनरावृत्तिनहीं रोकी जा सकती।

[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]

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