गंगा वैसे देश के कई सामाजिक संगठनों साधु-संतों व राजनीतिक संगठनों के आंदोलनों का गढ़ बनी रही है। लगातार इसको लेकर हर स्तर पर होहल्ला मचा ही रहा है।

गंगा ने आमरण अनशन व प्रदर्शन जमकर देखे हैं। इन सबका ज्यादा असर ना भी रहा हो पर गंगा की चर्चा लगातार रही। गंगा में बन रहे बांध, खनन व अतिक्रमण लगातार सुर्खियों में रहे है। असल में इन सामाजिक आंदोलनों ने मात्र ध्यान ही खींचा है। एक-आध बांध उत्तराखंड में अवश्य थम गये होंगे पर दूसरे मुद्दों पर गंगा लगातार मार ही खाती रही। इन सबके पीछे बड़ा कारण गंगा से जुड़ी कमाई रही है जिसे रोकने में हर सरकार असफल रही है। अकेले गंगा में खनन से करोड़ों का धंधा पनपता है। बांधों से बिजली सरकारों को खरी कमाई देती है। इन सब धंधों के पीछे राजनीतिक कनेक्शन ही सबसे बड़ी ऊर्जा रही है।

गंगा बचाओ अभियान को तरह-तरह से कई कोनों से विभिन्न संगठनों द्वारा बराबर जिंदा रखा गया पर ये ज्यादा चमत्कार नहीं कर पाये। इसको जिंदा रखना गंगा से ज्यादा संगठनों के अस्तित्व का भी सवाल था। यमुना बचाओ अभियान, नदी बचाओ अभियान इसी कड़ी का हिस्सा रहे हैं। शोर तो ठीक-ठाक ही रहा पर गंगा-यमुना का मैलापन धुंधला भी नहीं हो पाया और ना ही इनका कुछ उद्धार हुआ।

वैसे टुकड़े-टुकड़े में गंगा सफाई, गंगा संरक्षण आदि कई अभियानों की शुरुआत जरूर हुई पर सब जल्दी ही ढेर हो गये।

गंगा तटों के घाटों में कई बार गंगा-सफाई अभियान पर जनमानस को जोड़ने की कोशिश हुई पर कुछ ही दिनों में इन प्रयासों को थकावट ने घेर लिया।

ऐसा नहीं है कि सामाजिक संगठनों ने कोई कोशिशें ना की हो। गंगा के मायके में भी कई तरह की योजनाएं शुरू की गयी। गंगोत्री से उत्तरकाशी तक पर्यटकों के कचरे को साफ करने की कोशिश हुई थी। जगह-जगह स्थानीय लोग भी प्रशिक्षित किए गये ताकि कूड़ा ना बिखरे और उसे भी उपयोग में लाया जा सके। क्योंकि योजना 3 साल तक सहायता प्राप्त थी तो लुढ़क-लुढ़क कर जरूर चली पर फिर तीन साल बाद आखिर में गंगा ही स्थानीय कूड़े करकट का सहारा बनी। इस तरह की योजना गंगा के आस-पास लगभग सब जगह चली पर जैसा होता ही आया है कि ऐसी योजनाएं ज्यादा टिक नहीं पाई।

कुछ जागरूक संगठनों ने जगह-जगह जागरूकता के साथ उद्योगों से उत्पन्न कचरे पर अंकुश लगाने का भी काम किया। उदाहरण के लिए कानपुर में टेनरी से उत्पन्न क्रोम प्रदूषण के लिये उद्योगों पर दबाव बनाया। साथ में घाटों की सफाई के प्रदर्शन, कई जन जागरण कर लोगों को कचरे को स्थानीय प्रबंधन के लिये प्रेरित भी किया। पर यह प्रयोग ही रहे व्यवस्था नहीं बन पायी। आज भी गंगा कानपुर में ही सबसे ज्यादा गंदी है। इलाहाबाद में भी नगरपालिका ने स्थानीय संगठनों के साथ मिलकर जोर-शोर से गंगा घाट की सफाई में कुछ समय लगाया। वाटर पौंड सिस्टम शुद्धीकरण जैसे प्रयोग भी बनारस में स्वैच्छिक संगठनों द्वारा हुए पर गंगा से जुड़े लोगों की संख्या बल इन प्रयोगों से पूरी तरह जुड़ नहीं पायी।

गंगा की सफाई के लिये बनारस में ड्राइवर भी कूद पड़े और हर इतवार को सफाई की ठानी। पर इस तरह के प्रयत्न समय के साथ ठंडे बस्ते में चले जाते हैं। ऐसे ही बहुत से लोगों ने गंगा सफाई की कमर कसी जो शहरों के आस-पास ज्यादा बसते थे। पर बड़ा सवाल उनकी निरंतरता का है और लोगों की जागरूकता का जो उसे समझते और आगे बढ़ाते। यह सब फोटो खिंचवाने व मीडिया में छाने भर के लिये ही ठीक रहा। पर बड़े आंदोलन के रूप में ये सब कभी बदल नहीं सका। टुकड़ों-टुकड़ों में कई तरह की बातें, बहस व आंदोलन हुए पर उनकी सीमा तय थी। आगे इसलिये नहीं बढ़े क्योंकि उनमें ना तो पर्याप्त जन ऊर्जा थी और ना ही गहरी सोच।

असल में गंगा को लेकर जो कुछ भी लोगों ने अपने-अपने स्तर पर किया वो असरदार तो नहीं था पर हां ध्यान आकर्षित कर गंगा के हालातों को सुर्खियों में लाने के लिये ज्यादा था। कुल मिलाकर जो भी जन भागीदारी गंगा को बचने बचाने की आम व्यक्ति की पहल थी वह कभी भी प्रभावी नहीं बन पायी वरना इतने लंबे अंतराल में गंगा कहीं तो सुख पाती। पिछले दो दशकों में गंगा को बचाने का हल्ला कहीं तो कार्यान्वित होता। जिस समाज ने गंगा को लगातार भोगा और बड़े-बड़े फायदे उठाये वह ही इसके प्रति कभी ज्यादा सक्रिय नहीं रहा। जो कुछ भी हुआ या तो औपचारिकता भर था या फिर गंगा से ज्यादा अपने हित में उठाये गये कदम थे। गंगा के समाज से प्रश्नों का जबाव अभी भी अनुत्तरित और यथावत है।

-डॉ अनिल प्रकाश जोशी [पर्यावरणविद्]

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